गीता 3:4: Difference between revisions

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Revision as of 05:55, 14 June 2011

गीता अध्याय-3 श्लोक-4 / Gita Chapter-3 Verse-4

प्रसंग-


इस प्रकार कर्मयोगी के लिये कर्तव्य कर्मों के न करने को योगनिष्ठा की प्राप्ति में बाधक और सांख्ययोगी के लिये सिद्धि की प्राप्ति में केवल बाहरी कर्मों के त्याग को गौण बतलाकर, अब <balloon link="अर्जुन" title="महाभारत के मुख्य पात्र है। पाण्डु एवं कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे । अर्जुन सबसे अच्छा धनुर्धर था। वो द्रोणाचार्य का शिष्य था। द्रौपदी को स्वयंवर में जीतने वाला वो ही था। ¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">अर्जुन</balloon> को कर्तव्य कर्मों में प्रवृत्त करने के उद्देश्य से भिन्न-भिन्न हेतुओं से कर्म करने की आवश्कता सिद्ध करने के लिये पहले कर्मों के सर्वथा त्याग को आशक्य बतलाते हैं-


न कर्मणामनारम्भान्नैष्कमर्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ।।4।।



मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को यानी योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्याग मात्र से सिद्धि यानी सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है ।।4।।

Man does not attain freedom from action (culmination of the discipline of action) without entering upon action; nor does he reach perfection (culmination of the discipline of knowledge) merely by ceasing to act.(4)


पुरुष: = मनुष्य ; न = न (तो) ; कर्मणाम् = कर्मोंके ; च = और ; न = न ; संन्यसनात् एव = कर्मोंको त्यागनेमात्रसे ; अनारम्भात् = न करनेसे ; नैष्कर्म्यम् = निष्कर्मताको ; अश्नुते = प्राप्त होता है ; सि़द्धिम् = भगवत्साक्षात्काररूप सिद्धिको ; समधिगच्छति = प्राप्त होता है ;



अध्याय तीन श्लोक संख्या
Verses- Chapter-3

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14, 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)