गीता 4:18: Difference between revisions

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गीता अध्याय-4 श्लोक-18 / Gita Chapter-4 Verse-18

प्रसंग-


इस प्रकार कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म दर्शन का महत्त्व बतलाकर अब पाँच श्लोक में भिन्न-भिन्न शैली से उपर्युक्त कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म दर्शनपूर्वक कर्म करने वाले सिद्ध और साधक पुरुषों की असंगता का वर्णन करके उस विषय को स्पष्ट करते हैं-


कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य: ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत् ।।18।।




जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और जो अकर्म में कर्म देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह योगी समस्त कर्मों को करने वाला है ।।18।।


He who sees inaction in action, and action in inaction, is wise among men; he is a yogi, who has performed all action.(18)


य: = जो पुरुष; कर्मणि = कर्म में अर्थात् अहंकार हित की हुई संपूर्ण चेष्टाओं में अकर्म अर्थात्; अकर्म =अकर्म अर्थात् वास्तव में उनका न होनापना; पश्येत् = देखे; च =और; य: = जो पुरुष; अकर्मणि = अज्ञानी पुरुष द्वारा किये हुए संपूर्ण क्रियाओं के त्याग में (भी); कर्म = त्यागरूप क्रिया को देखे; स: = वह पुरुष: मनुष्येषु = मनुष्यों में; युक्त: = योगी; कृत्स्त्रकर्मकृत् = संपूर्ण कर्मों का करने वाला है।



अध्याय चार श्लोक संख्या
Verses- Chapter-4

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29, 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)