गीता 4:40: Difference between revisions

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Revision as of 10:59, 21 March 2010

गीता अध्याय-4 श्लोक-40 / Gita Chapter-4 Verse-40

प्रसंग-


इस प्रकार अविवेक और अश्रद्धा के सहित संशय को ज्ञान प्राप्ति में बाधक बतलाकर, अब विवेक द्वारा संशय का नाश करके कर्मयोग का अनुष्ठान करने में <balloon link="अर्जुन" title="महाभारत के मुख्य पात्र है। पाण्डु एवं कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे। अर्जुन सबसे अच्छा धनुर्धर था। वो द्रोणाचार्य का शिष्य था। द्रौपदी को स्वयंवर मे जीतने वाला वो ही था। ¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">अर्जुन</balloon> का उत्साह उत्पन्न करने के लिये संशयरहित तथा वश में किये हुए अन्त:करण वाले कर्मयोगी की प्रशंसा करते हैं-


अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मन: ।।40।।




विवेकहीन और श्रद्धारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है । ऐसे संशयमुक्त मनुष्य के लिये न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है ।।40।।


He who lacks discrimination, is devoid of faith, and is at the same time possessed by doubt is lost to the spiritual path. For the doubting soul there is neither this world nor the world beyond, nor even happiness.(40)


अज्ञ: = भगवत विषय को न जानने वाला; अश्रदृघान: = श्रद्वारहित; संशयात्मा = संशययुक्त पुरुष; विनश्यति = परमार्थ से भ्रष्ट हो जाता है; (उनमें भी); संशयात्मन: संशययुक्त पुरुष के लिये तो; पर; परलोक; अस्ति = है अर्थात् यह लोक और परलोक दोनों ही उसके लिये भ्रष्ट हो जाते है।



अध्याय चार श्लोक संख्या
Verses- Chapter-4

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29, 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)