द्रौपदी जन्म: Difference between revisions

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पांचाल पहुँचने पर [[अर्जुन]] ने द्रोणाचार्य से कहा- "गुरुदेव! आप पहले कौरवों को राजा द्रुपद से युद्ध करने की आज्ञा दीजिये। यदि वे द्रुपद को बन्दी बनाने में असफल रहे तो हम [[पाण्डव]] युद्ध करेंगे।” गुरु की आज्ञा मिलने पर [[दुर्योधन]] के नेतृत्व में कौरवों ने पांचाल पर आक्रमण कर दिया। दोनों पक्षों के मध्य भयंकर युद्ध होने लगा, किन्तु अन्त में कौरव परास्त होकर भाग निकले। कौरवों को पलायन करते देख पाण्डवों ने आक्रमण आरम्भ कर दिया। [[भीम]] तथा अर्जुन के पराक्रम के समक्ष पांचाल नरेश की सेना हार गई। अर्जुन ने आगे बढ़कर द्रुपद को बन्दी बना लिया और गुरु द्रोणाचार्य के समक्ष ले आये। [[द्रुपद]] को बन्दी के रूप में देखकर [[द्रोणाचार्य]] ने कहा- "हे द्रुपद! अब तुम्हारे राज्य का स्वामी मैं हो गया हूँ। मैं तो तुम्हें अपना मित्र समझ कर तुम्हारे पास आया था, किन्तु तुमने मुझे अपना मित्र स्वीकार नहीं किया था। अब बताओ क्या तुम मेरी मित्रता स्वीकार करते हो?” द्रुपद ने लज्जा से सिर झुका लिया और अपनी भूल के लिये क्षमा याचना करते हुये बोले- "हे द्रोण! आपको अपना मित्र न मानना मेरी भूल थी और उसके लिये अब मेरे हृदय में पश्चाताप है। मैं तथा मेरा राज्य दोनों ही अब आपके आधीन हैं, अब आपकी जो इच्छा हो करें।”<ref name="aa">{{cite web |url= http://freegita.in/mahabharat4/|title=महाभारत कथा- भाग 4|accessmonthday=23 अगस्त |accessyear=2015 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=freegita |language= हिन्दी}}</ref>
पांचाल पहुँचने पर [[अर्जुन]] ने द्रोणाचार्य से कहा- "गुरुदेव! आप पहले कौरवों को राजा द्रुपद से युद्ध करने की आज्ञा दीजिये। यदि वे द्रुपद को बन्दी बनाने में असफल रहे तो हम [[पाण्डव]] युद्ध करेंगे।” गुरु की आज्ञा मिलने पर [[दुर्योधन]] के नेतृत्व में कौरवों ने पांचाल पर आक्रमण कर दिया। दोनों पक्षों के मध्य भयंकर युद्ध होने लगा, किन्तु अन्त में कौरव परास्त होकर भाग निकले। कौरवों को पलायन करते देख पाण्डवों ने आक्रमण आरम्भ कर दिया। [[भीम]] तथा अर्जुन के पराक्रम के समक्ष पांचाल नरेश की सेना हार गई। अर्जुन ने आगे बढ़कर द्रुपद को बन्दी बना लिया और गुरु द्रोणाचार्य के समक्ष ले आये। [[द्रुपद]] को बन्दी के रूप में देखकर [[द्रोणाचार्य]] ने कहा- "हे द्रुपद! अब तुम्हारे राज्य का स्वामी मैं हो गया हूँ। मैं तो तुम्हें अपना मित्र समझ कर तुम्हारे पास आया था, किन्तु तुमने मुझे अपना मित्र स्वीकार नहीं किया था। अब बताओ क्या तुम मेरी मित्रता स्वीकार करते हो?” द्रुपद ने लज्जा से सिर झुका लिया और अपनी भूल के लिये क्षमा याचना करते हुये बोले- "हे द्रोण! आपको अपना मित्र न मानना मेरी भूल थी और उसके लिये अब मेरे हृदय में पश्चाताप है। मैं तथा मेरा राज्य दोनों ही अब आपके आधीन हैं, अब आपकी जो इच्छा हो करें।”<ref name="aa">{{cite web |url= http://freegita.in/mahabharat4/|title=महाभारत कथा- भाग 4|accessmonthday=23 अगस्त |accessyear=2015 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=freegita |language= हिन्दी}}</ref>


द्रोणाचार्य ने कहा- "तुमने कहा था कि मित्रता समान वर्ग के लोगों में होती है। अतः मैं तुमसे बराबरी का मित्र भाव रखने के लिये तुम्हें तुम्हारा आधा राज्य लौटा रहा हूँ।” इतना कहकर द्रोणाचार्य ने [[गंगा नदी]] के दक्षिणी तट का राज्य द्रुपद को सौंप दिया और शेष को स्वयं रख लिया। द्रोण से पराजित होने के उपरान्त महाराज द्रुपद अत्यन्त लज्जित हुये और उन्हें किसी प्रकार से नीचा दिखाने का उपाय सोचने लगे। इसी चिन्ता में एक बार वे घूमते हुए कल्याणी नगरी के ब्राह्मणों की बस्ती में जा पहुँचे। वहाँ उनकी भेंट 'याज' तथा 'उपयाज' नामक महान कर्मकाण्डी ब्राह्मण भाइयों से हुई। राजा द्रुपद ने उनकी सेवा करके उन्हें प्रसन्न कर लिया एवं उनसे द्रोणाचार्य के वध का उपाय पूछा। उनके पूछने पर बड़े भाई याज ने कहा- "इसके लिये आप एक विशाल यज्ञ का आयोजन करके [[अग्नि देव]] को प्रसन्न कीजिये, जिससे कि वे आपको महान बलशाली पुत्र का वरदान दे देंगे।”  
द्रोणाचार्य ने कहा- "तुमने कहा था कि मित्रता समान वर्ग के लोगों में होती है। अतः मैं तुमसे बराबरी का मित्र भाव रखने के लिये तुम्हें तुम्हारा आधा राज्य लौटा रहा हूँ।” इतना कहकर द्रोणाचार्य ने [[गंगा नदी]] के दक्षिणी तट का राज्य द्रुपद को सौंप दिया और शेष को स्वयं रख लिया। द्रोण से पराजित होने के उपरान्त महाराज द्रुपद अत्यन्त लज्जित हुये और उन्हें किसी प्रकार से नीचा दिखाने का उपाय सोचने लगे। इसी चिन्ता में एक बार वे घूमते हुए कल्याणी नगरी के ब्राह्मणों की बस्ती में जा पहुँचे। वहाँ उनकी भेंट 'याज' तथा 'उपयाज' नामक महान् कर्मकाण्डी ब्राह्मण भाइयों से हुई। राजा द्रुपद ने उनकी सेवा करके उन्हें प्रसन्न कर लिया एवं उनसे द्रोणाचार्य के वध का उपाय पूछा। उनके पूछने पर बड़े भाई याज ने कहा- "इसके लिये आप एक विशाल यज्ञ का आयोजन करके [[अग्नि देव]] को प्रसन्न कीजिये, जिससे कि वे आपको महान् बलशाली पुत्र का वरदान दे देंगे।”  


[[द्रुपद]] ने याज और उपयाज से उनके कहे अनुसार [[यज्ञ]] करवाया। उनके यज्ञ से प्रसन्न होकर अग्नि देव ने उन्हें एक ऐसा पुत्र दिया जो सम्पूर्ण आयुध एवं कवच कुण्डल से युक्त था। उसके पश्चात् उस यज्ञ कुण्ड से एक कन्या उत्पन्न हुई, जिसके नेत्र खिले हुए [[कमल]] के समान देदीप्यमान थे, भौहें [[चन्द्रमा]] के समान वक्र थीं तथा उसका वर्ण श्यामल था। उसके उत्पन्न होते ही एक आकाशवाणी हुई कि "इस बालिका का जन्म क्षत्रियों के संहार और कौरवों के विनाश के हेतु हुआ है।" बालक का नाम [[धृष्टद्युम्न]] एवं बालिका का नाम कृष्णा ([[द्रौपदी]]) रखा गया।<ref name="aa"/>
[[द्रुपद]] ने याज और उपयाज से उनके कहे अनुसार [[यज्ञ]] करवाया। उनके यज्ञ से प्रसन्न होकर अग्नि देव ने उन्हें एक ऐसा पुत्र दिया जो सम्पूर्ण आयुध एवं कवच कुण्डल से युक्त था। उसके पश्चात् उस यज्ञ कुण्ड से एक कन्या उत्पन्न हुई, जिसके नेत्र खिले हुए [[कमल]] के समान देदीप्यमान थे, भौहें [[चन्द्रमा]] के समान वक्र थीं तथा उसका वर्ण श्यामल था। उसके उत्पन्न होते ही एक आकाशवाणी हुई कि "इस बालिका का जन्म क्षत्रियों के संहार और कौरवों के विनाश के हेतु हुआ है।" बालक का नाम [[धृष्टद्युम्न]] एवं बालिका का नाम कृष्णा ([[द्रौपदी]]) रखा गया।<ref name="aa"/>

Latest revision as of 14:03, 30 June 2017

जब पाण्डव तथा कौरव राजकुमारों की शिक्षा पूर्ण हो गई तो उन्होंने द्रोणाचार्य को गुरु दक्षिणा देना चाहा। द्रोणाचार्य को पांचाल नरेश तथा अपने पूर्व के मित्र द्रुपद के द्वारा किये गये अपने अपमान का स्मरण हो आया और उन्होंने राजकुमारों से कहा- "राजकुमारों! यदि तुम गुरु दक्षिणा देना ही चाहते हो तो पांचाल नरेश द्रुपद को बन्दी बनाकर मेरे समक्ष प्रस्तुत करो। यही तुम लोगों की गुरुदक्षिणा होगी।" गुरुदेव के इस प्रकार कहने पर समस्त राजकुमार अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र लेकर पांचाल देश की ओर चल दिए।

पांचाल पहुँचने पर अर्जुन ने द्रोणाचार्य से कहा- "गुरुदेव! आप पहले कौरवों को राजा द्रुपद से युद्ध करने की आज्ञा दीजिये। यदि वे द्रुपद को बन्दी बनाने में असफल रहे तो हम पाण्डव युद्ध करेंगे।” गुरु की आज्ञा मिलने पर दुर्योधन के नेतृत्व में कौरवों ने पांचाल पर आक्रमण कर दिया। दोनों पक्षों के मध्य भयंकर युद्ध होने लगा, किन्तु अन्त में कौरव परास्त होकर भाग निकले। कौरवों को पलायन करते देख पाण्डवों ने आक्रमण आरम्भ कर दिया। भीम तथा अर्जुन के पराक्रम के समक्ष पांचाल नरेश की सेना हार गई। अर्जुन ने आगे बढ़कर द्रुपद को बन्दी बना लिया और गुरु द्रोणाचार्य के समक्ष ले आये। द्रुपद को बन्दी के रूप में देखकर द्रोणाचार्य ने कहा- "हे द्रुपद! अब तुम्हारे राज्य का स्वामी मैं हो गया हूँ। मैं तो तुम्हें अपना मित्र समझ कर तुम्हारे पास आया था, किन्तु तुमने मुझे अपना मित्र स्वीकार नहीं किया था। अब बताओ क्या तुम मेरी मित्रता स्वीकार करते हो?” द्रुपद ने लज्जा से सिर झुका लिया और अपनी भूल के लिये क्षमा याचना करते हुये बोले- "हे द्रोण! आपको अपना मित्र न मानना मेरी भूल थी और उसके लिये अब मेरे हृदय में पश्चाताप है। मैं तथा मेरा राज्य दोनों ही अब आपके आधीन हैं, अब आपकी जो इच्छा हो करें।”[1]

द्रोणाचार्य ने कहा- "तुमने कहा था कि मित्रता समान वर्ग के लोगों में होती है। अतः मैं तुमसे बराबरी का मित्र भाव रखने के लिये तुम्हें तुम्हारा आधा राज्य लौटा रहा हूँ।” इतना कहकर द्रोणाचार्य ने गंगा नदी के दक्षिणी तट का राज्य द्रुपद को सौंप दिया और शेष को स्वयं रख लिया। द्रोण से पराजित होने के उपरान्त महाराज द्रुपद अत्यन्त लज्जित हुये और उन्हें किसी प्रकार से नीचा दिखाने का उपाय सोचने लगे। इसी चिन्ता में एक बार वे घूमते हुए कल्याणी नगरी के ब्राह्मणों की बस्ती में जा पहुँचे। वहाँ उनकी भेंट 'याज' तथा 'उपयाज' नामक महान् कर्मकाण्डी ब्राह्मण भाइयों से हुई। राजा द्रुपद ने उनकी सेवा करके उन्हें प्रसन्न कर लिया एवं उनसे द्रोणाचार्य के वध का उपाय पूछा। उनके पूछने पर बड़े भाई याज ने कहा- "इसके लिये आप एक विशाल यज्ञ का आयोजन करके अग्नि देव को प्रसन्न कीजिये, जिससे कि वे आपको महान् बलशाली पुत्र का वरदान दे देंगे।”

द्रुपद ने याज और उपयाज से उनके कहे अनुसार यज्ञ करवाया। उनके यज्ञ से प्रसन्न होकर अग्नि देव ने उन्हें एक ऐसा पुत्र दिया जो सम्पूर्ण आयुध एवं कवच कुण्डल से युक्त था। उसके पश्चात् उस यज्ञ कुण्ड से एक कन्या उत्पन्न हुई, जिसके नेत्र खिले हुए कमल के समान देदीप्यमान थे, भौहें चन्द्रमा के समान वक्र थीं तथा उसका वर्ण श्यामल था। उसके उत्पन्न होते ही एक आकाशवाणी हुई कि "इस बालिका का जन्म क्षत्रियों के संहार और कौरवों के विनाश के हेतु हुआ है।" बालक का नाम धृष्टद्युम्न एवं बालिका का नाम कृष्णा (द्रौपदी) रखा गया।[1]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कथा- भाग 4 (हिन्दी) freegita। अभिगमन तिथि: 23 अगस्त, 2015।

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