उपर्युक्त श्लोक में यह बात कही गयी कि सन्न्यास के द्वारा मनुष्य परम नैष्कर्म्य सिद्धि को प्राप्त होता है; इस पर यह जिज्ञासा होती है कि उस सन्न्यास (सांख्ययोग) का क्या स्वरूप है और उसके द्वारा मनुष्य किस क्रम से सिद्धि को प्राप्त होकर ब्रह्म को प्राप्त होता है ? अत: इन सब बातों को बतलाने की प्रस्तावना करते हुए भगवान् अर्जुन[1] को सुनने के लिये सावधान करते हैं-
सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्रा तथाप्नोति निबोध मे । समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ।।50।।
जो कि ज्ञानयोग की परानिष्ठा है, उस नैष्कर्म्य सिद्धि को जिस प्रकार से प्राप्त होकर मनुष्य ब्रह्म को प्राप्त होता है, उस प्रकार को हे कुन्ती[2] पुत्र ! तू संक्षेप में ही मुझसे समझ ।।50।।
O son of Kunti, learn from Me in brief how one can attain to the supreme perfectional stage, Brahman, by acting in the way I shall now summarize. (50)
कौन्तेय = हे कुन्तीपुत्र ; सिद्धिम् = अन्त:करण की शुद्धिरूप सिद्धि को ; प्राप्त: = प्राप्त हुआ पुरुष ; यथा = जैसे (सांख्ययोग के द्वारा); ब्रह्म = सच्चिदानन्दघन ब्रह्म को ; आप्रोति = प्राप्त होता है ; तथा = तथा ; या = जो ; ज्ञानस्य = तत्त्वज्ञानकी ; परा = परा ; निष्ठा = निष्ठा है ; तत् = उसको ; एव = भी (तूं) ; मे = मेरे से ; समासेन = संक्षेप से ; निबोध = जान
↑महाभारत के मुख्य पात्र है। वे पाण्डु एवं कुन्ती के तीसरे पुत्र थे। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में वे प्रसिद्ध थे। द्रोणाचार्य के सबसे प्रिय शिष्य भी वही थे। द्रौपदी को स्वयंवर में भी उन्होंने ही जीता था।