प्रसंग-
यह बात कही गयी कि मनुष्य आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है । अब उसी को स्पष्ट करने के लिये बतलाते हैं कि किन लक्षणों से युक्त मनुष्य आप ही अपना मित्र है और किन लक्षणों से युक्त आप ही अपना शत्रु है-
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् । आत्मैव ह्रात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन: ।।5।।
अपने द्वारा अपना संसार समुद्र से उद्धार करे और अपने को अधोगति में न डाले, क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है ।।5।।
One should lift oneself by one’s own efforts and should not degrade oneself; for one’s own self is one’s friend, and ones own self is one’s enemy.(5)
आत्मना = अपने द्वारा; आत्मानम् = आप का (संसार समुद्र से); उद्वरेत् = उद्वार करे(और); आत्मानम् = अपने आत्मा को; न अवसादयेत् = अधोगति में न पहुंचावे; हि = क्योंकि (यह ); आत्मा = जीवात्मा आप; एव =ही (तो ); आत्मन: = अपना; बन्धु: = मित्र है(और ); आत्मा = आप; आत्मन: = अपना; रिपु: = शत्रु है;
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