नवें श्लोक में भगवान् के दिव्य जन्म और कर्मों को तत्त्व से जानने का फल भगवान् की प्राप्ति बतलाया गया। उसके पूर्व भगवान् के जन्म की दिव्यता का विषय तो भलीभाँति समझाया गया, किंतु भगवान् के कर्मों की दिव्यता का विषय स्पष्ट नहीं हुआ; इसलिये अब भगवान् दो श्लोकों में अपने सृष्टि-रचनादि कर्मों में कर्तापन, विषमता और स्पृहा का अभाव दिखलाकर उन कर्मों की दिव्यता का विषय समझाते हैं-
इस मनुष्य लोक में कर्मों के फल को चाहने वाले लोग देवताओं का पूजन किया करते हैं; क्योंकि उनको कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि शीघ्र मिल जाती है ।।12।।
In this world of human beings; men seeking the fruition of their activities worship the gods; for success born of actions follow quickly.(12)
इह = इस; मानुषे = मनुष्य; लोके = लोंक में; कर्मणाम् = कर्मों के; सिद्विम् = फल को; काक्ष्ड़न्त: = चाहते हुए; देवता: = देवताओं को; यजन्ते = पूजते हैं (और उनके); कर्मजा = कर्मों से उत्पन्न हुई; सिद्वि; = सिद्धि (भी) क्षिप्रम् = शीघ्र; हि = ही; भवति = होती है