एतान्यपि तु कर्माणि सग्ङंत्यक्त्वा फलानि च । कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ।।6।।
इसलिये हे पार्थ[1] ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिये; यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है ।।6।।
Hence these acts of sacrifice, charity and penance, and all other acts too, must be performed without attachment and hope of reward; this is My considered and supreme verdict, Arjuna.(6)
पार्थ = हे पार्थ ; एतानि = यह यज्ञ, दान और तपरूप कर्म ; तु = तथा ; (अन्यानि) = और ; अपि = भी ; कर्माणि = संपूर्ण श्रेष्ठ कर्म ; सग्डम् = आसक्ति को ; च = और ; फलानि = फलों को ; त्यक्त्वा = त्यागकर (आवश्य) ; कर्तव्यानि = करने चाहिये ; इति = ऐसा ; मे = मेरा ; निश्र्चितम् = निश्र्चय किया हुआ ; उत्तमम् = उत्तम ; मतम् = मत है ;