मन को परमात्मा में स्थिर करके परमात्मा के सिवा अन्य कुछ भी चिन्तन न करने की बात कही गयी; परन्तु यदि किसी साधक का चित्त पूर्वाभ्यासवश बलात्कार से विषयों की ओर चला जाये तो उसे क्या करना चाहिये, इस जिज्ञासा पर कहते हैं-
क्रम-क्रम से अभ्यास करता हुआ उपरति को प्राप्त हो तथा धैर्य युक्त बुद्धि के द्वारा मन को परमात्मा में स्थित करके परमात्मा के सिवा और कुछ भी चिन्तन न करे ।।25।।
He should through gradual practice attain tranquility; and fixing the mind on God through reason controlled by steadfastness, he should not think of anything else. (25)
शनै: = क्रम क्रम से (अभ्यास करता हुआ); उपरमेत् = उपरामता को प्राप्त होवे (तथा); धृतिगृहीतया = धैर्ययुक्त; बुद्वया = बुद्धिद्वारा; मन: = मन को; आत्मसंस्थम् = परमात्मा में स्थित; कृत्वा = करके (परमात्मा के सिवाय और); किंचित् = कुछ; अपि = भी; न चिन्तयेत् = चिन्तन न करे।