शाहज़ादा अकबर: Difference between revisions
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1679 ई. में | 1679 ई. में शाहज़ादा अकबर ने राजपूतों के विरुद्ध लड़ाई में [[मुग़ल]] सेना का नेतृत्व किया था। जब उसकी सेना [[चित्तौड़]] में थी, तो [[राजपूत|राजपूतों]] ने उस पर अचानक हमला बोलकर उसे हरा दिया। उसके बाद औरंगज़ेब ने उसका तबादला [[मारवाड़]] कर दिया। शाहज़ादा अकबर ने इसे अपनी बेइज्जती समझा और सोचा कि मैं स्वयं भी राजपूतों की सहायता से अपने बाप की जगह बादशाह बन सकता हूँ। जैसा की औरंगज़ेब ने किया था। राजपूत सरदारों ने भी उसका हौसला बढ़ाया और उसे समझाया कि राजपूतों की मदद से वह हिन्दुस्तान का सच्चा बादशाह बन सकता है। शाहज़ादा अकबर ने अपने पिता को एक कड़ा पत्र लिखा, जिसमें उसने असहिष्णुता की नीति को छोड़ने तथा शासन की दुर्व्यवस्था की ओर उसका ध्यान आकर्षित किया। | ||
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अन्त में 70 हज़ार सैनिकों के साथ, जिनमें बहुत से राजपूत भी थे, | अन्त में 70 हज़ार सैनिकों के साथ, जिनमें बहुत से राजपूत भी थे, शाहज़ादा अकबर अजमेर के निकट [[15 जनवरी]], 1681 ई. को पहुँच गया। उस समय औरंगज़ेब की सेना चित्तौड़ और दूसरों स्थानों में बिखरी हुई थी। अकबर ने उस पर हमला बोल दिया होता तो बादशाह मुश्किल में पड़ जाता, शाहजादे ने ऐयाशी और नाचरंग में समय गवाँ दिया। इस बीच औरंगज़ेब को अकबर और उसके राजपूत साथियों में फूट पैदा करने का मौक़ा मिल गया। राजपूतों ने उसका साथ छोड़ दिया। शाहज़ादा अकबर राजपूताना से दक्षिण की ओर भागा, जहाँ पर उसने [[शिवाजी]] के पुत्र [[शम्भाजी]] के यहाँ शरण ली। इससे शाहज़ादा और [[मराठा|मराठों]] के संयुक्त मोर्चे को ख़तरा पैदा हो गया। औरंगज़ेब खुद दक्षिण गया। लेकिन इस बीच शाहज़ादा अकबर ने अपने पिता को हराने की आशा छोड़ दी और वह हिन्दुस्तान को छोड़कर [[फ़ारस]] चला गया। 1695 ई. में अकबर ने फ़ारस की सहायता से हिन्दुस्तान पर हमला करने की कोशिश की पर [[मुल्तान]] के पास उसके सबसे बड़े भाई शाहज़ादा मुअज्जम के नेतृत्व में मुग़ल सेना ने उसे पराजित कर दिया। इस पराजय के बाद निराश शाहज़ादा अकबर फिर वापस फ़ारस गया, जहाँ पर 1704 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। | ||
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- शाहज़ादा अकबर औरंगज़ेब और उसकी दिलरस बानो बेगम का पुत्र था।
- वह बादशाह औरंगज़ेब का तीसरा और प्यारा बेटा था।
सेना का नेतृत्व
1679 ई. में शाहज़ादा अकबर ने राजपूतों के विरुद्ध लड़ाई में मुग़ल सेना का नेतृत्व किया था। जब उसकी सेना चित्तौड़ में थी, तो राजपूतों ने उस पर अचानक हमला बोलकर उसे हरा दिया। उसके बाद औरंगज़ेब ने उसका तबादला मारवाड़ कर दिया। शाहज़ादा अकबर ने इसे अपनी बेइज्जती समझा और सोचा कि मैं स्वयं भी राजपूतों की सहायता से अपने बाप की जगह बादशाह बन सकता हूँ। जैसा की औरंगज़ेब ने किया था। राजपूत सरदारों ने भी उसका हौसला बढ़ाया और उसे समझाया कि राजपूतों की मदद से वह हिन्दुस्तान का सच्चा बादशाह बन सकता है। शाहज़ादा अकबर ने अपने पिता को एक कड़ा पत्र लिखा, जिसमें उसने असहिष्णुता की नीति को छोड़ने तथा शासन की दुर्व्यवस्था की ओर उसका ध्यान आकर्षित किया।
औरंगज़ेब द्वारा फूट डालना
अन्त में 70 हज़ार सैनिकों के साथ, जिनमें बहुत से राजपूत भी थे, शाहज़ादा अकबर अजमेर के निकट 15 जनवरी, 1681 ई. को पहुँच गया। उस समय औरंगज़ेब की सेना चित्तौड़ और दूसरों स्थानों में बिखरी हुई थी। अकबर ने उस पर हमला बोल दिया होता तो बादशाह मुश्किल में पड़ जाता, शाहजादे ने ऐयाशी और नाचरंग में समय गवाँ दिया। इस बीच औरंगज़ेब को अकबर और उसके राजपूत साथियों में फूट पैदा करने का मौक़ा मिल गया। राजपूतों ने उसका साथ छोड़ दिया। शाहज़ादा अकबर राजपूताना से दक्षिण की ओर भागा, जहाँ पर उसने शिवाजी के पुत्र शम्भाजी के यहाँ शरण ली। इससे शाहज़ादा और मराठों के संयुक्त मोर्चे को ख़तरा पैदा हो गया। औरंगज़ेब खुद दक्षिण गया। लेकिन इस बीच शाहज़ादा अकबर ने अपने पिता को हराने की आशा छोड़ दी और वह हिन्दुस्तान को छोड़कर फ़ारस चला गया। 1695 ई. में अकबर ने फ़ारस की सहायता से हिन्दुस्तान पर हमला करने की कोशिश की पर मुल्तान के पास उसके सबसे बड़े भाई शाहज़ादा मुअज्जम के नेतृत्व में मुग़ल सेना ने उसे पराजित कर दिया। इस पराजय के बाद निराश शाहज़ादा अकबर फिर वापस फ़ारस गया, जहाँ पर 1704 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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