गीता 4:33: Difference between revisions
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'''प्रसंग-''' | '''प्रसंग-''' | ||
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इस प्रकार ज्ञान यज्ञ की और उसके फलस्वरूप ज्ञान की प्रशंसा करके अब भगवान् दो श्लोकों में ज्ञान को प्राप्त करने के लिये अर्जुन को आज्ञा देते हुए उसकी प्राप्ति का मार्ग और उसका फल बतलाते हैं- | इस प्रकार ज्ञान [[यज्ञ]] की और उसके फलस्वरूप ज्ञान की प्रशंसा करके अब भगवान् दो [[श्लोक|श्लोकों]] में ज्ञान को प्राप्त करने के लिये [[अर्जुन]]<ref>[[महाभारत]] के मुख्य पात्र है। वे [[पाण्डु]] एवं [[कुन्ती]] के तीसरे पुत्र थे। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में वे प्रसिद्ध थे। [[द्रोणाचार्य]] के सबसे प्रिय शिष्य भी वही थे। [[द्रौपदी]] को [[स्वयंवर]] में भी उन्होंने ही जीता था।</ref> को आज्ञा देते हुए उसकी प्राप्ति का मार्ग और उसका फल बतलाते हैं- | ||
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हे < | हे परन्तप<ref>पार्थ, भारत, धनज्जय, पृथापुत्र, परन्तप, गुडाकेश, निष्पाप, महाबाहो सभी [[अर्जुन]] के सम्बोधन है।</ref> अर्जुन ! द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है, तथा यावन्मात्र सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं ।।33।। | ||
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | |||
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==संबंधित लेख== | |||
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Latest revision as of 13:01, 4 January 2013
गीता अध्याय-4 श्लोक-33 / Gita Chapter-4 Verse-33
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टीका टिप्पणी और संदर्भसंबंधित लेख |
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