द्रौपदी स्वयंवर: Difference between revisions
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[[लाक्षागृह]] से जीवित बच निकलने के पश्चात् [[पाण्डव]] अपनी माता [[कुन्ती]] सहित वहाँ से [[एकचक्रा|एकचक्रा नगरी]] में जाकर मुनि के वेष में एक [[ब्राह्मण]] के घर में निवास करने लगे। यहीं पर [[भीम]] ने बक नामक [[राक्षस]] का वध किया। पाण्डवों को एकचक्रा नगरी में रहते कुछ काल व्यतीत हो गया तो एक दिन उनके यहाँ भ्रमण करता हुआ एक ब्राह्मण आया। पाण्डवों ने उसका यथोचित सत्कार करके पूछा- "देव! आपका आगमन कहाँ से हो रहा है?” ब्राह्मण ने उत्तर दिया- "मैं [[द्रुपद|महाराज द्रुपद]] की नगरी [[पांचाल]] से आ रहा हूँ। वहाँ पर द्रुपद की कन्या [[द्रौपदी]] के स्वयंवर के लिये अनेक देशों के राजा-महाराजा पधारे हुये हैं।” उस ब्राह्मण के प्रस्थान करने के पश्चात् पाण्डवों से भेंट करने [[वेदव्यास]] आ पहुँचे। वेदव्यास ने पाण्डवों को आदेश दिया कि तुम लोग पांचाल चले जाओ। वहाँ द्रुपद कन्या पांचाली का स्वयंवर होने जा रहा है। वह कन्या तुम लोगों के सर्वथा योग्य है, क्योंकि पूर्वजन्म में उसने भगवान शंकर की तपस्या की थी और उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर [[शिव]] ने उसे अगले जन्म में पाँच उत्तम पति प्राप्त होने का वरदान दिया था। वह देविस्वरूपा बालिका सब भाँति से तुम लोगों के योग्य ही है। तुम लोग वहाँ जाकर उसे प्राप्त करो।" इतना कहकर वेद व्यास वहाँ से चले गये।<ref name="aa">{{cite web |url= http://freegita.in/mahabharat4/|title=महाभारत कथा- भाग 4|accessmonthday=23 अगस्त |accessyear=2015 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=freegita |language= हिन्दी}}</ref> | |||
पांचाल जाते हुए मार्ग में पाण्डवों की भेंट धौम्य नामक ब्राह्मण से हुई और वे उसके साथ ब्राह्मणों का वेश धर कर द्रुौपदी के स्वयंवर में पहुँचे। स्वयंवर सभा में अनेक देशों के राजा-महाराजा एवं राजकुमार पधारे हुये थे। एक ओर [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] अपने बड़े भाई [[बलराम]] तथा गणमान्य यदुवंशियों के साथ विराजमान थे। वहाँ वे ब्राह्मणों की पंक्ति में जाकर बैठ गये। कुछ ही देर में राजकुमारी द्रौपदी हाथ में वरमाला लिये अपने भाई [[धृष्टद्युम्न]] के साथ उस सभा में पहुँचीं। धृष्टद्युम्न ने सभा को सम्बोधित करते हुये कहा- "हे विभिन्न देश से पधारे राजा-महाराजाओं एवं अन्य गणमान्य जनों! इस मण्डप में स्तम्भ के ऊपर बने हुए उस घूमते हुये यंत्र पर ध्यान दीजिये। उस यन्त्र में एक [[मछली]] लटकी हुई है तथा यंत्र के साथ घूम रही है। आपको स्तम्भ के नीचे रखे हुए तैलपात्र में मछली के प्रतिबिम्ब को देखते हुए बाण चलाकर मछली के नेत्र को लक्ष्य बनाना है। मछली के नेत्र का सफल भेदन करने वाले से मेरी बहन द्रौपदी का [[विवाह]] होगा।” | पांचाल जाते हुए मार्ग में पाण्डवों की भेंट धौम्य नामक ब्राह्मण से हुई और वे उसके साथ ब्राह्मणों का वेश धर कर द्रुौपदी के स्वयंवर में पहुँचे। स्वयंवर सभा में अनेक देशों के राजा-महाराजा एवं राजकुमार पधारे हुये थे। एक ओर [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] अपने बड़े भाई [[बलराम]] तथा गणमान्य यदुवंशियों के साथ विराजमान थे। वहाँ वे ब्राह्मणों की पंक्ति में जाकर बैठ गये। कुछ ही देर में राजकुमारी द्रौपदी हाथ में वरमाला लिये अपने भाई [[धृष्टद्युम्न]] के साथ उस सभा में पहुँचीं। धृष्टद्युम्न ने सभा को सम्बोधित करते हुये कहा- "हे विभिन्न देश से पधारे राजा-महाराजाओं एवं अन्य गणमान्य जनों! इस मण्डप में स्तम्भ के ऊपर बने हुए उस घूमते हुये यंत्र पर ध्यान दीजिये। उस यन्त्र में एक [[मछली]] लटकी हुई है तथा यंत्र के साथ घूम रही है। आपको स्तम्भ के नीचे रखे हुए तैलपात्र में मछली के प्रतिबिम्ब को देखते हुए बाण चलाकर मछली के नेत्र को लक्ष्य बनाना है। मछली के नेत्र का सफल भेदन करने वाले से मेरी बहन द्रौपदी का [[विवाह]] होगा।” | ||
एक के बाद एक सभी राजा-महाराजा एवं राजकुमारों ने मछली पर निशाना साधने का प्रयास किया, किन्तु सफलता हाथ न लगी और वे कान्तिहीन होकर अपने स्थान में लौट आये। इन असफल लोगों में [[जरासंध]], [[शल्य]], [[शिशुपाल]] तथा [[दुर्योधन]], [[दुःशासन]] आदि [[कौरव]] भी सम्मिलित थे। कौरवों के असफल होने पर दुर्योधन के परम मित्र [[कर्ण]] ने मछली को निशाना बनाने के लिये धनुष उठाया, किन्तु उन्हें देखकर द्रौपदी बोल उठीं- "यह सूतपुत्र है, इसलिये मैं इसका वरण नहीं कर सकती।” द्रौपदी के वचनों को सुनकर कर्ण ने लज्जित होकर धनुष बाण रख दिया। उसके | एक के बाद एक सभी राजा-महाराजा एवं राजकुमारों ने मछली पर निशाना साधने का प्रयास किया, किन्तु सफलता हाथ न लगी और वे कान्तिहीन होकर अपने स्थान में लौट आये। इन असफल लोगों में [[जरासंध]], [[शल्य]], [[शिशुपाल]] तथा [[दुर्योधन]], [[दुःशासन]] आदि [[कौरव]] भी सम्मिलित थे। कौरवों के असफल होने पर दुर्योधन के परम मित्र [[कर्ण]] ने मछली को निशाना बनाने के लिये धनुष उठाया, किन्तु उन्हें देखकर द्रौपदी बोल उठीं- "यह सूतपुत्र है, इसलिये मैं इसका वरण नहीं कर सकती।” द्रौपदी के वचनों को सुनकर कर्ण ने लज्जित होकर धनुष बाण रख दिया। उसके पश्चात् ब्राह्मणों की पंक्ति से उठकर [[अर्जुन]] ने निशाना लगाने के लिये धनुष उठा लिया। एक ब्राह्मण को राजकुमारी के स्वयंवर के लिये उद्यत देख वहाँ उपस्थित जनों को अत्यन्त आश्चर्य हुआ, किन्तु ब्राह्मणों के क्षत्रियों से अधिक श्रेष्ठ होने के कारण से उन्हें कोई रोक न सका। अर्जुन ने तैलपात्र में मछली के प्रतिबिम्ब को देखते हुए एक ही बाण से मछली के नेत्र को भेद दिया। [[द्रौपदी]] ने आगे बढ़कर अर्जुन के गले में वरमाला डाल दी। एक [[ब्राह्मण]] के गले में द्रौपदी को वरमाला डालते देख समस्त [[क्षत्रिय]] राजा-महाराजा एवं राजकुमारों ने क्रोधित होकर अर्जुन पर आक्रमण कर दिया। अर्जुन की सहायता के लिये शेष [[पाण्डव]] भी आ गये और पाण्डवों तथा क्षत्रिय राजाओं में घमासान युद्ध होने लगा। [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]] ने अर्जुन को पहले ही पहचान लिया था, इसलिये उन्होंने बीच-बचाव करके युद्ध को शान्त करा दिया। दुर्योधन ने भी अनुमान लगा लिया कि निशाना लगाने वाला अर्जुन ही रहा होगा और उसका साथ देने वाले शेष पाण्डव रहे होंगे। वारणावत के लाक्षागृह से पाण्डवों के बच निकलने पर उसे अत्यन्त आश्चर्य होने लगा।<ref name="aa"/> | ||
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[[चित्र:Arjuna-Targets-Fish.jpg|thumb|300px|लक्ष्यभेदन करते अर्जुन]] लाक्षागृह से जीवित बच निकलने के पश्चात् पाण्डव अपनी माता कुन्ती सहित वहाँ से एकचक्रा नगरी में जाकर मुनि के वेष में एक ब्राह्मण के घर में निवास करने लगे। यहीं पर भीम ने बक नामक राक्षस का वध किया। पाण्डवों को एकचक्रा नगरी में रहते कुछ काल व्यतीत हो गया तो एक दिन उनके यहाँ भ्रमण करता हुआ एक ब्राह्मण आया। पाण्डवों ने उसका यथोचित सत्कार करके पूछा- "देव! आपका आगमन कहाँ से हो रहा है?” ब्राह्मण ने उत्तर दिया- "मैं महाराज द्रुपद की नगरी पांचाल से आ रहा हूँ। वहाँ पर द्रुपद की कन्या द्रौपदी के स्वयंवर के लिये अनेक देशों के राजा-महाराजा पधारे हुये हैं।” उस ब्राह्मण के प्रस्थान करने के पश्चात् पाण्डवों से भेंट करने वेदव्यास आ पहुँचे। वेदव्यास ने पाण्डवों को आदेश दिया कि तुम लोग पांचाल चले जाओ। वहाँ द्रुपद कन्या पांचाली का स्वयंवर होने जा रहा है। वह कन्या तुम लोगों के सर्वथा योग्य है, क्योंकि पूर्वजन्म में उसने भगवान शंकर की तपस्या की थी और उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने उसे अगले जन्म में पाँच उत्तम पति प्राप्त होने का वरदान दिया था। वह देविस्वरूपा बालिका सब भाँति से तुम लोगों के योग्य ही है। तुम लोग वहाँ जाकर उसे प्राप्त करो।" इतना कहकर वेद व्यास वहाँ से चले गये।[1]
पांचाल जाते हुए मार्ग में पाण्डवों की भेंट धौम्य नामक ब्राह्मण से हुई और वे उसके साथ ब्राह्मणों का वेश धर कर द्रुौपदी के स्वयंवर में पहुँचे। स्वयंवर सभा में अनेक देशों के राजा-महाराजा एवं राजकुमार पधारे हुये थे। एक ओर श्रीकृष्ण अपने बड़े भाई बलराम तथा गणमान्य यदुवंशियों के साथ विराजमान थे। वहाँ वे ब्राह्मणों की पंक्ति में जाकर बैठ गये। कुछ ही देर में राजकुमारी द्रौपदी हाथ में वरमाला लिये अपने भाई धृष्टद्युम्न के साथ उस सभा में पहुँचीं। धृष्टद्युम्न ने सभा को सम्बोधित करते हुये कहा- "हे विभिन्न देश से पधारे राजा-महाराजाओं एवं अन्य गणमान्य जनों! इस मण्डप में स्तम्भ के ऊपर बने हुए उस घूमते हुये यंत्र पर ध्यान दीजिये। उस यन्त्र में एक मछली लटकी हुई है तथा यंत्र के साथ घूम रही है। आपको स्तम्भ के नीचे रखे हुए तैलपात्र में मछली के प्रतिबिम्ब को देखते हुए बाण चलाकर मछली के नेत्र को लक्ष्य बनाना है। मछली के नेत्र का सफल भेदन करने वाले से मेरी बहन द्रौपदी का विवाह होगा।”
एक के बाद एक सभी राजा-महाराजा एवं राजकुमारों ने मछली पर निशाना साधने का प्रयास किया, किन्तु सफलता हाथ न लगी और वे कान्तिहीन होकर अपने स्थान में लौट आये। इन असफल लोगों में जरासंध, शल्य, शिशुपाल तथा दुर्योधन, दुःशासन आदि कौरव भी सम्मिलित थे। कौरवों के असफल होने पर दुर्योधन के परम मित्र कर्ण ने मछली को निशाना बनाने के लिये धनुष उठाया, किन्तु उन्हें देखकर द्रौपदी बोल उठीं- "यह सूतपुत्र है, इसलिये मैं इसका वरण नहीं कर सकती।” द्रौपदी के वचनों को सुनकर कर्ण ने लज्जित होकर धनुष बाण रख दिया। उसके पश्चात् ब्राह्मणों की पंक्ति से उठकर अर्जुन ने निशाना लगाने के लिये धनुष उठा लिया। एक ब्राह्मण को राजकुमारी के स्वयंवर के लिये उद्यत देख वहाँ उपस्थित जनों को अत्यन्त आश्चर्य हुआ, किन्तु ब्राह्मणों के क्षत्रियों से अधिक श्रेष्ठ होने के कारण से उन्हें कोई रोक न सका। अर्जुन ने तैलपात्र में मछली के प्रतिबिम्ब को देखते हुए एक ही बाण से मछली के नेत्र को भेद दिया। द्रौपदी ने आगे बढ़कर अर्जुन के गले में वरमाला डाल दी। एक ब्राह्मण के गले में द्रौपदी को वरमाला डालते देख समस्त क्षत्रिय राजा-महाराजा एवं राजकुमारों ने क्रोधित होकर अर्जुन पर आक्रमण कर दिया। अर्जुन की सहायता के लिये शेष पाण्डव भी आ गये और पाण्डवों तथा क्षत्रिय राजाओं में घमासान युद्ध होने लगा। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को पहले ही पहचान लिया था, इसलिये उन्होंने बीच-बचाव करके युद्ध को शान्त करा दिया। दुर्योधन ने भी अनुमान लगा लिया कि निशाना लगाने वाला अर्जुन ही रहा होगा और उसका साथ देने वाले शेष पाण्डव रहे होंगे। वारणावत के लाक्षागृह से पाण्डवों के बच निकलने पर उसे अत्यन्त आश्चर्य होने लगा।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत कथा- भाग 4 (हिन्दी) freegita। अभिगमन तिथि: 23 अगस्त, 2015।
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