गीता 7:4-5: Difference between revisions

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Revision as of 11:04, 21 March 2010

गीता अध्याय-7 श्लोक-4, 5 / Gita Chapter-7 Verse-4, 5

प्रसंग-


परा और अपरा प्रकृतियों का स्वरूप बतलाकर अब भगवान् यह बतलाते हैं कि ये दोनों प्रकृतियाँ ही चराचर सम्पूर्ण भूतों का कारण है और मैं इन दोनों प्रकृतियों सहित समस्त जगत् का महाकारण हूँ-


भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।।4।।
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ।।5।।



पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार भी- इस प्रकार यह आठ प्रकार से विभाजित मेरी प्रकृति है । यह आठ प्रकार के भेदों वाली तो अपरा अर्थात् मेरी जड़ प्रकृति है और हे महाबाहो ! इससे दूसरी को, जिससे यह सम्पूर्ण जगत् धारण किया जाता है, मेरी जीवरूपा परा अर्थात् चेतन प्रकृति जान ।।4-5।।

Earth, water, fire, air, ether, mind, reason and also ego; these constitute my nature eithtfold divided. This indeed is my lower material nature; the other than this, by which the whole universe is sustained, know it to be my higher or spiritual nature in the form of jiva the life-principle, O Arjuna. (4,5)


भूमि: = पृथिवी; आप: = जल; अनल: = अग्नि: खम् = आकाश (तथा); च = और; अहंकार: = अहंकार; इति = ऐसे; इयम् = यह; अष्टधा = आठ प्रकार से; भिन्ना = विभक्त हुई; मे = मेरी; प्रकृति: = प्रकृति है; इयम् = यह (आठ प्रकार के भेदों वाली); तु = तो; अपरा = अपरा है अर्थात् मेरी जड़ प्रकृति है (और); महाबाहो= हे महाबाहो; इत: = इससे; अन्याम् = दूसरी को; जीवभूताम् = जीवरूप; पराम् = परा अर्थात् चेतन; प्रकृतिम् = प्रकृति; विद्वि =जान; यया =जिससे; इदम् = यह (संपूर्ण); धार्यते = धारण किया जाता है



अध्याय सात श्लोक संख्या
Verses- Chapter-7

1 | 2 | 3 | 4, 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29, 30

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)