गीता 4:29-30: Difference between revisions
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इस प्रकार यज्ञ करने वाले साधकों की प्रशंसा करके अब उन यज्ञों के करने से होने वाले लाभ और न करने पर होने वाली हानि दिखलाकर भगवान् उपर्युक्त प्रकार से यज्ञ करने की आवश्यकता का प्रतिपादन करते हैं- | इस प्रकार [[यज्ञ]] करने वाले साधकों की प्रशंसा करके अब उन यज्ञों के करने से होने वाले लाभ और न करने पर होने वाली हानि दिखलाकर भगवान् उपर्युक्त प्रकार से यज्ञ करने की आवश्यकता का प्रतिपादन करते हैं- | ||
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दूसरे कितने ही योगी जन अपान वायु में प्राण वायु को हवन करते हैं, वैसे ही अन्य योगीजन प्राण वायु में अपान वायु को हवन करते हैं तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करने वाले प्राणायाम परायण पुरुष प्राण और अपान की गति को रोककर प्राणों को प्राणों में ही हवन किया करते | दूसरे कितने ही योगी जन अपान वायु में प्राण वायु को हवन करते हैं, वैसे ही अन्य योगीजन प्राण वायु में अपान वायु को हवन करते हैं तथा अन्य कितने ही नियमित आहार करने वाले प्राणायाम परायण पुरुष प्राण और अपान की गति को रोककर प्राणों को प्राणों में ही हवन किया करते हैं। ये सभी साधक [[यज्ञ|यज्ञों]] द्वारा पापों का नाश कर देने वाले और यज्ञों को जानने वाले हैं ।।29-30।। | ||
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | |||
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गीता अध्याय-4 श्लोक-29, 30 / Gita Chapter-4 Verse-29, 30
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टीका टिप्पणी और संदर्भसंबंधित लेख |
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