कर्ण को शाप: Difference between revisions

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अपनी कुमार अवास्था से ही [[कर्ण]] की रुचि अपने [[पिता]] [[अधिरथ]] के समान रथ चलाने की बजाय युद्धकला में अधिक थी। कर्ण और उसके पिता अधिरथ [[द्रोणाचार्य|आचार्य द्रोणाचार्य]] से मिले, जो कि उस समय युद्धकला के सर्वश्रेष्ठ आचार्यों में से एक थे। द्रोणाचार्य उस समय कुरु राजकुमारों को शिक्षा दिया करते थे। उन्होने कर्ण को शिक्षा देने से मना कर दिया, क्योंकि कर्ण एक रथ हाँकने वाले का पुत्र था और द्रोणाचार्य केवल क्षत्रियों को ही शिक्षा दिया करते थे।
अपनी कुमार अवास्था से ही [[कर्ण]] की रुचि अपने [[पिता]] [[अधिरथ]] के समान रथ चलाने की बजाय युद्धकला में अधिक थी। कर्ण और उसके पिता अधिरथ [[द्रोणाचार्य|आचार्य द्रोणाचार्य]] से मिले, जो कि उस समय युद्धकला के सर्वश्रेष्ठ आचार्यों में से एक थे। द्रोणाचार्य उस समय कुरु राजकुमारों को शिक्षा दिया करते थे। उन्होने कर्ण को शिक्षा देने से मना कर दिया, क्योंकि कर्ण एक रथ हाँकने वाले का पुत्र था और द्रोणाचार्य केवल क्षत्रियों को ही शिक्षा दिया करते थे।


द्रोणाचार्य की असम्मति के उपरान्त कर्ण ने [[परशुराम]] से सम्पर्क किया, जो केवल [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] को ही शिक्षा दिया करते थे। कर्ण ने स्वयं को ब्राह्मण बताकर परशुराम से शिक्षा का आग्रह किया। परशुराम ने कर्ण का आग्रह स्वीकार कर लिया और कर्ण को अपने समान ही युद्धकला और धनुर्विद्या में निष्णात किया। कर्ण को उसके गुरु परशुराम और पृथ्वी माता से शाप मिला था। कर्ण की शिक्षा अपने अंतिम चरण पर थी। एक दोपहर की बात है, गुरु परशुराम कर्ण की जंघा पर सिर रखकर विश्राम कर रहे थे। कुछ देर बाद कहीं से एक बिच्छु आया और कर्ण की दूसरी जंघा पर काट कर घाव बनाने लगा। कर्ण बिल्कुल भी नहीं चाहता था कि उसके गुरु के विश्राम में कोई बाधा उत्पन्न हो। इसीलिए उसने उस बिच्छू को हटाकर दूर नहीं फेंका। वह बिच्छू अपने डंक से कर्ण को भयंकर पीड़ा देता रहा, किन्तु कर्ण ने अपने गुरु के विश्राम में खलल नहीं आने दिया।  
द्रोणाचार्य की असम्मति के उपरान्त कर्ण ने [[परशुराम]] से सम्पर्क किया, जो केवल [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] को ही शिक्षा दिया करते थे। कर्ण ने स्वयं को ब्राह्मण बताकर परशुराम से शिक्षा का आग्रह किया। परशुराम ने कर्ण का आग्रह स्वीकार कर लिया और कर्ण को अपने समान ही युद्धकला और धनुर्विद्या में निष्णात किया। कर्ण को उसके गुरु परशुराम और पृथ्वी माता से शाप मिला था। कर्ण की शिक्षा अपने अंतिम चरण पर थी। एक दोपहर की बात है, गुरु परशुराम कर्ण की जंघा पर सिर रखकर विश्राम कर रहे थे। कुछ देर बाद कहीं से एक बिच्छु आया और कर्ण की दूसरी जंघा पर काट कर घाव बनाने लगा। कर्ण बिल्कुल भी नहीं चाहता था कि उसके गुरु के विश्राम में कोई बाधा उत्पन्न हो। इसीलिए उसने उस बिच्छू को हटाकर दूर नहीं फेंका। वह बिच्छू अपने डंक से कर्ण को भयंकर पीड़ा देता रहा, किन्तु कर्ण ने अपने गुरु के विश्राम में खलल नहीं आने दिया।<ref name="aa">{{cite web |url= http://freegita.in/mahabharat3/|title=महाभारत कथा- भाग 3|accessmonthday=23 अगस्त |accessyear=2015 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=freegita |language= हिन्दी}}</ref>


कुछ देर बाद जब गुरु परशुराम की निद्रा टूटी और उन्होंने देखा की [[कर्ण]] की जांघ से बहुत [[रक्त]] बह रहा है। उन्होंने कहा कि केवल किसी [[क्षत्रिय]] में ही इतनी सहनशीलता हो सकती है कि वह बिच्छु का डंक सह ले, ना कि किसी ब्राह्मण में, और परशुराम ने उसे मिथ्या भाषण के कारण शाप दिया कि- "जब भी कर्ण को उनकी दी हुई शिक्षा की सर्वाधिक आवश्यकता होगी, उस दिन वह उसके काम नहीं आएगी।" कर्ण, जो कि स्वयं भी ये नहीं जानता था कि वह किस वंश से है, ने अपने गुरु से क्षमा माँगी और कहा कि उसके स्थान पर यदि कोई और शिष्य भी होता तो वो भी यही करता। यद्यपि कर्ण को क्रोधवश शाप देने पर परशुराम को बहुत ग्लानि हुई, किन्तु वे अपना शाप वापस नहीं ले सकते थे। तब उन्होंने कर्ण को अपना 'विजय' नामक [[धनुष अस्त्र|धनुष]] प्रदान किया और उसे ये आशीर्वाद भी दिया कि उसे वह वस्तु मिलेगी जिसे वह सर्वाधिक चाहता है- "अमिट प्रसिद्धि।"
कुछ देर बाद जब गुरु परशुराम की निद्रा टूटी और उन्होंने देखा की [[कर्ण]] की जांघ से बहुत [[रक्त]] बह रहा है। उन्होंने कहा कि केवल किसी [[क्षत्रिय]] में ही इतनी सहनशीलता हो सकती है कि वह बिच्छु का डंक सह ले, ना कि किसी ब्राह्मण में, और परशुराम ने उसे मिथ्या भाषण के कारण शाप दिया कि- "जब भी कर्ण को उनकी दी हुई शिक्षा की सर्वाधिक आवश्यकता होगी, उस दिन वह उसके काम नहीं आएगी।" कर्ण, जो कि स्वयं भी ये नहीं जानता था कि वह किस वंश से है, ने अपने गुरु से क्षमा माँगी और कहा कि उसके स्थान पर यदि कोई और शिष्य भी होता तो वो भी यही करता। यद्यपि कर्ण को क्रोधवश शाप देने पर परशुराम को बहुत ग्लानि हुई, किन्तु वे अपना शाप वापस नहीं ले सकते थे। तब उन्होंने कर्ण को अपना 'विजय' नामक [[धनुष अस्त्र|धनुष]] प्रदान किया और उसे ये आशीर्वाद भी दिया कि उसे वह वस्तु मिलेगी जिसे वह सर्वाधिक चाहता है- "अमिट प्रसिद्धि।"


कुछ लोककथाओं में ये भी माना जाता है कि बिच्छु के रूप में स्वयं [[इन्द्र|देवराज इन्द्र]] ने कर्ण को पीड़ा पहुचाई थी, क्योंकि वे परशुराम के समक्ष उसकी वास्तविक क्षत्रिय पहचान को उजागर करना चाहते थे। परशुराम के आश्रम से जाने के पश्चात कर्ण कुछ समय तक भटकता रहा। इस दौरान वह ‘शब्दभेदी’ विद्या सीख रहा था। अभ्यास के दौरान उसने एक गाय के बछड़े को कोई वनीय पशु समझ लिया और उस पर शब्दभेदी बाण चला दिया और बछडा़ मारा गया। तब उस [[गाय]] के स्वामी [[ब्राह्मण]] ने कर्ण को शापप दिया कि- "जिस प्रकार उसने एक असहाय पशु को मारा है, वैसे ही एक दिन वह भी मारा जाएगा, जब वह सबसे अधिक असहाय होगा और जब उसका सारा ध्यान अपने शत्रु से कहीं अलग किसी और काम पर होगा।"
कुछ लोककथाओं में ये भी माना जाता है कि बिच्छु के रूप में स्वयं [[इन्द्र|देवराज इन्द्र]] ने कर्ण को पीड़ा पहुचाई थी, क्योंकि वे परशुराम के समक्ष उसकी वास्तविक क्षत्रिय पहचान को उजागर करना चाहते थे। परशुराम के आश्रम से जाने के पश्चात कर्ण कुछ समय तक भटकता रहा। इस दौरान वह ‘शब्दभेदी’ विद्या सीख रहा था। अभ्यास के दौरान उसने एक गाय के बछड़े को कोई वनीय पशु समझ लिया और उस पर शब्दभेदी बाण चला दिया और बछडा़ मारा गया। तब उस [[गाय]] के स्वामी [[ब्राह्मण]] ने कर्ण को शापप दिया कि- "जिस प्रकार उसने एक असहाय पशु को मारा है, वैसे ही एक दिन वह भी मारा जाएगा, जब वह सबसे अधिक असहाय होगा और जब उसका सारा ध्यान अपने शत्रु से कहीं अलग किसी और काम पर होगा।"<ref name="aa"/>





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अपनी कुमार अवास्था से ही कर्ण की रुचि अपने पिता अधिरथ के समान रथ चलाने की बजाय युद्धकला में अधिक थी। कर्ण और उसके पिता अधिरथ आचार्य द्रोणाचार्य से मिले, जो कि उस समय युद्धकला के सर्वश्रेष्ठ आचार्यों में से एक थे। द्रोणाचार्य उस समय कुरु राजकुमारों को शिक्षा दिया करते थे। उन्होने कर्ण को शिक्षा देने से मना कर दिया, क्योंकि कर्ण एक रथ हाँकने वाले का पुत्र था और द्रोणाचार्य केवल क्षत्रियों को ही शिक्षा दिया करते थे।

द्रोणाचार्य की असम्मति के उपरान्त कर्ण ने परशुराम से सम्पर्क किया, जो केवल ब्राह्मणों को ही शिक्षा दिया करते थे। कर्ण ने स्वयं को ब्राह्मण बताकर परशुराम से शिक्षा का आग्रह किया। परशुराम ने कर्ण का आग्रह स्वीकार कर लिया और कर्ण को अपने समान ही युद्धकला और धनुर्विद्या में निष्णात किया। कर्ण को उसके गुरु परशुराम और पृथ्वी माता से शाप मिला था। कर्ण की शिक्षा अपने अंतिम चरण पर थी। एक दोपहर की बात है, गुरु परशुराम कर्ण की जंघा पर सिर रखकर विश्राम कर रहे थे। कुछ देर बाद कहीं से एक बिच्छु आया और कर्ण की दूसरी जंघा पर काट कर घाव बनाने लगा। कर्ण बिल्कुल भी नहीं चाहता था कि उसके गुरु के विश्राम में कोई बाधा उत्पन्न हो। इसीलिए उसने उस बिच्छू को हटाकर दूर नहीं फेंका। वह बिच्छू अपने डंक से कर्ण को भयंकर पीड़ा देता रहा, किन्तु कर्ण ने अपने गुरु के विश्राम में खलल नहीं आने दिया।[1]

कुछ देर बाद जब गुरु परशुराम की निद्रा टूटी और उन्होंने देखा की कर्ण की जांघ से बहुत रक्त बह रहा है। उन्होंने कहा कि केवल किसी क्षत्रिय में ही इतनी सहनशीलता हो सकती है कि वह बिच्छु का डंक सह ले, ना कि किसी ब्राह्मण में, और परशुराम ने उसे मिथ्या भाषण के कारण शाप दिया कि- "जब भी कर्ण को उनकी दी हुई शिक्षा की सर्वाधिक आवश्यकता होगी, उस दिन वह उसके काम नहीं आएगी।" कर्ण, जो कि स्वयं भी ये नहीं जानता था कि वह किस वंश से है, ने अपने गुरु से क्षमा माँगी और कहा कि उसके स्थान पर यदि कोई और शिष्य भी होता तो वो भी यही करता। यद्यपि कर्ण को क्रोधवश शाप देने पर परशुराम को बहुत ग्लानि हुई, किन्तु वे अपना शाप वापस नहीं ले सकते थे। तब उन्होंने कर्ण को अपना 'विजय' नामक धनुष प्रदान किया और उसे ये आशीर्वाद भी दिया कि उसे वह वस्तु मिलेगी जिसे वह सर्वाधिक चाहता है- "अमिट प्रसिद्धि।"

कुछ लोककथाओं में ये भी माना जाता है कि बिच्छु के रूप में स्वयं देवराज इन्द्र ने कर्ण को पीड़ा पहुचाई थी, क्योंकि वे परशुराम के समक्ष उसकी वास्तविक क्षत्रिय पहचान को उजागर करना चाहते थे। परशुराम के आश्रम से जाने के पश्चात कर्ण कुछ समय तक भटकता रहा। इस दौरान वह ‘शब्दभेदी’ विद्या सीख रहा था। अभ्यास के दौरान उसने एक गाय के बछड़े को कोई वनीय पशु समझ लिया और उस पर शब्दभेदी बाण चला दिया और बछडा़ मारा गया। तब उस गाय के स्वामी ब्राह्मण ने कर्ण को शापप दिया कि- "जिस प्रकार उसने एक असहाय पशु को मारा है, वैसे ही एक दिन वह भी मारा जाएगा, जब वह सबसे अधिक असहाय होगा और जब उसका सारा ध्यान अपने शत्रु से कहीं अलग किसी और काम पर होगा।"[1]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत कथा- भाग 3 (हिन्दी) freegita। अभिगमन तिथि: 23 अगस्त, 2015।

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