गीता 4:41

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गीता अध्याय-4 श्लोक-41 / Gita Chapter-4 Verse-41

प्रसंग-


इस प्रकार कर्मयोगी की प्रशंसा करके अब <balloon link="अर्जुन" title="महाभारत के मुख्य पात्र है। पाण्डु एवं कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे । अर्जुन सबसे अच्छा धनुर्धर था। वो द्रोणाचार्य का शिष्य था। द्रौपदी को स्वयंवर में जीतने वाला वो ही था। ¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">अर्जुन</balloon> को कर्मयोग में स्थित होकर युद्ध करने की आज्ञा देकर भगवान् इस अध्याय का उपसंहार करते हैं-


योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम् ।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय ।।41।।




हे <balloon title="पार्थ, भारत, धनंजय, पृथापुत्र, परन्तप, गुडाकेश, निष्पाप, महाबाहो सभी अर्जुन के सम्बोधन है ।" style="color:green">धनंजय</balloon> ! जिसने कर्मयोग की विधि से समस्त कर्मों का परमात्मा में अर्पण कर दिया है और जिसने विवेक द्वारा समस्त संशयों का नाश कर दिया है, ऐसे वश में किये हुए अन्त:करण वाले पुरुष को कर्म नहीं बाँधते ।।41।।


Arjuna, actions do not bind him who has dedicated all his actions to God according to the spirit of Karmayoga, whose doubts have been torn to shreds by wisdom, and who is self-possessed.(41)


धनंजय = हे धनजय, योग-संन्यस्त-कर्माणम् = समत्व बुद्धिरूप योग द्वारा भगवत्-अर्पण कर दिये हैं संपूर्ण कर्म जिसने, कर्माणि = कर्म, न= नही, निबन्धन्ति = बान्धते हैं ज्ञान-संछिन्न-संशयम = ज्ञान द्वारा नष्ट हो गये है सब संशय जिसके , आत्मवन्तम् = परायण पुरुष को



अध्याय चार श्लोक संख्या
Verses- Chapter-4

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29, 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42

अध्याय / Chapter:
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