कर्ण का जन्म: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
No edit summary
 
Line 1: Line 1:
[[चित्र:The-Birth-of-Karna.jpg|thumb|250px|[[कुन्ती]] को वरदान देते सूर्यदेव]]
[[धृतराष्ट्र]], [[पाण्डु]] और [[विदुर]] के पालन-पोषण का भार [[भीष्म]] के ऊपर था। तीनों पुत्र बड़े होने पर विद्या-अध्ययन के लिए भेजे गए। धृतराष्ट्र बल विद्या में, पाण्डु धनुर्विद्या में तथा विदुर [[धर्म]] और नीति में निपुण हुए। युवा होने पर धृतराष्ट्र अन्धे होने के कारण राज्य के उत्तराधिकारी न बन सके। विदुर दासीपुत्र थे, इसलिये पाण्डु को ही [[हस्तिनापुर]] का राजा घोषित किया गया।
[[धृतराष्ट्र]], [[पाण्डु]] और [[विदुर]] के पालन-पोषण का भार [[भीष्म]] के ऊपर था। तीनों पुत्र बड़े होने पर विद्या-अध्ययन के लिए भेजे गए। धृतराष्ट्र बल विद्या में, पाण्डु धनुर्विद्या में तथा विदुर [[धर्म]] और नीति में निपुण हुए। युवा होने पर धृतराष्ट्र अन्धे होने के कारण राज्य के उत्तराधिकारी न बन सके। विदुर दासीपुत्र थे, इसलिये पाण्डु को ही [[हस्तिनापुर]] का राजा घोषित किया गया।



Latest revision as of 06:37, 26 August 2015

[[चित्र:The-Birth-of-Karna.jpg|thumb|250px|कुन्ती को वरदान देते सूर्यदेव]] धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर के पालन-पोषण का भार भीष्म के ऊपर था। तीनों पुत्र बड़े होने पर विद्या-अध्ययन के लिए भेजे गए। धृतराष्ट्र बल विद्या में, पाण्डु धनुर्विद्या में तथा विदुर धर्म और नीति में निपुण हुए। युवा होने पर धृतराष्ट्र अन्धे होने के कारण राज्य के उत्तराधिकारी न बन सके। विदुर दासीपुत्र थे, इसलिये पाण्डु को ही हस्तिनापुर का राजा घोषित किया गया।

भीष्म ने धृतराष्ट्र का विवाह गांधार की राजकुमारी गांधारी से कर दिया। गांधारी को जब ज्ञात हुआ कि उसका पति अन्धा है तो उसने स्वयं अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली। उन्हीं दिनों यदुवंशी राजा शूरसेन की पोषित कन्या कुन्ती जब युवावस्था को प्राप्त हुई तो पिता ने उसे घर आये हुए महात्माओं की सेवा में लगा दिया। पिता के अतिथिगृह में जितने भी साधु-महात्मा, ऋषि-मुनि आदि आते, कुन्ती उनकी सेवा मन लगा कर किया करती थी। एक बार वहाँ दुर्वासा ऋषि आ पहुँचे। कुन्ती ने उनकी भी मन लगाकर सेवा की। कुन्ती की सेवा से प्रसन्न होकर दुर्वासा ऋषि ने कहा- "पुत्री! मैं तुम्हारी सेवा से अत्यन्त प्रसन्न हूँ, अतः तुझे एक ऐसा मन्त्र देता हूँ, जिसके प्रयोग से तू जिस देवता का स्मरण करेगी, वह तत्काल तेरे समक्ष प्रकट होकर तेरी मनोकामना पूर्ण करेगा।" दुर्वासा ऋषि कुन्ती को मन्त्र प्रदान कर चले गये।[1]

मन्त्र की सत्यता की जाँच हेतु एक दिन कुन्ती ने एकान्त स्थान पर बैठकर उस मन्त्र का जाप करते हुए सूर्यदेव का स्मरण किया। उसी क्षण सूर्यदेव वहाँ प्रकट हुए और बोले- "देवि! मुझे बताओ कि तुम मुझसे किस वस्तु की अभिलाषा करती हो। मैं तुम्हारी अभिलाषा अवश्य पूर्ण करूँगा।" इस पर कुन्ती ने कहा- "हे देव! मुझे आपसे किसी भी प्रकार की अभिलाषा नहीं है। मैंने तो केवल मन्त्र की सत्यता परखने के लिये ही उसका जाप किया है।" कुन्ती के इन वचनों को सुनकर सूर्यदेव बोले- "हे कुन्ती! मेरा आना व्यर्थ नहीं जा सकता। मैं तुम्हें एक अत्यन्त पराक्रमी तथा दानशील पुत्र प्रदान करता हूँ।" इतना कहकर सूर्यदेव अन्तर्ध्यान हो गये। कुन्ती लज्जावश यह बात किसी से नहीं कह सकी। समय आने पर उसके गर्भ से कवच-कुण्डल धारण किये हुए एक पुत्र उत्पन्न हुआ। कुन्ती ने उसे एक मंजूषा में रखकर रात्रि बेला में गंगा में बहा दिया। वह बालक बहता हुआ उस स्थान पर पहुँचा, जहाँ पर धृतराष्ट्र का सारथी अधिरथ अपने अश्व को गंगा नदी में जल पिला रहा था। उसकी दृष्टि कवच-कुण्डल धारी शिशु पर पड़ी। अधिरथ निःसन्तान था, इसलिये उसने बालक को अपने छाती से लगा लिया और घर ले जाकर अपनी पत्नी राधा को सौंप दिया। उन्होंने उस बालक को गोद ले लिया और उसका ललन-पालन करने लगे। उस बालक के कान अति सुन्दर थे, इसलिये उसका नाम 'कर्ण' रखा गया।



left|30px|link=धृतराष्ट्र, पांडु व विदुर जन्म|पीछे जाएँ कर्ण का जन्म right|30px|link=पाण्डव जन्म|आगे जाएँ


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत कथा- भाग 3 (हिन्दी) freegita। अभिगमन तिथि: 22 अगस्त, 2015।

संबंधित लेख