इल्तुतमिश: Difference between revisions

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==मृत्यु==
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[[बयाना]] पर आक्रमण करने के लिए जाते समय मार्ग में इल्तुतमिश बीमार हो गया। अन्ततः अप्रैल 1236 में उसकी मृत्यु हो गई। इल्तुतमिश प्रथम सुल्तान था, जिसने दोआब के आर्थिक महत्त्व को समझा था और उसमें सुधार किया था।
[[बयाना]] पर आक्रमण करने के लिए जाते समय मार्ग में इल्तुतमिश बीमार हो गया। अन्ततः अप्रैल 1236 में उसकी मृत्यु हो गई। इल्तुतमिश प्रथम सुल्तान था, जिसने दोआब के आर्थिक महत्त्व को समझा था और उसमें सुधार किया था।
==यात्री विवरण एवं संरक्षक==
====रज़िया को उत्तराधिकार====
{{मुख्य|रज़िया सुल्तान}}
[[रज़िया सुल्तान]] इल्तुतमिश की पुत्री तथा [[भारत]] की पहली मुस्लिम शासिका थी। अपने अंतिम दिनों में इल्तुतमिश अपने उत्तराधिकार के सवाल को लेकर चिन्तित था। इल्तुतमिश के सबसे बड़े पुत्र [[नसीरूद्दीन महमूद]] की, जो अपने पिता के प्रतिनिधि के रूप में [[बंगाल]] पर शासन कर रहा था, 1229 ई. को अप्रैल में मृत्यु हो गई। सुल्तान के शेष जीवित पुत्र शासन कार्य के किसी भी प्रकार से योग्य नहीं थे। अत: इल्तुतमिश ने अपनी मृत्यु शैय्या पर से अपनी पुत्री रज़िया को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
==यात्री विवरण एवं संरक्षक==  
'''इल्तुतमिश की न्यायप्रियता का वर्णन करते हुए''' [[इब्नबतूता]] लिखता है कि, सुल्तान ने अपने महल के सामने संगमरमर की दो शेरों की मूर्तियाँ स्थापित कराई थीं, जिनके गलें में घण्टियां लगी थीं, जिसको कोई भी व्यक्ति बजाकर न्याय की माँग कर सकता था। 'मुहम्मद जुनैदी' और फ़खरुल इसामी' की मदद से इल्तुतमिश के दरबार में 'मिन्हाज-उल-सिराज', 'मलिक ताजुद्दीन' को संरक्षण मिला था। मिन्हाज-उल-सिराज ने इल्तुतमिश को महान दयालु, सहानुभूति रखने वाला, विद्धानों एवं वृद्धों के प्रति श्रद्धा रखने वाला सुल्तान बताया है। डॉ. आर.पी. त्रिपाठी के अनुसार [[भारत]] में मुस्लिम सम्प्रभुता का इतिहास इल्तुतमिश से आरम्भ होता है। अवफी ने इल्तुतमिश के ही शासन काल में ‘जिवामी-उल-हिकायत’ की रचना की। निज़ामुल्मुल्क मुहम्मद जुनैदी, मलिक कुतुबुद्दीन हसन ग़ोरी और फ़खरुल मुल्क इसामी जैसे योग्य व्यक्तियों को उसका संरक्षण प्राप्त था। वह शेख कुतुबुद्दीन तबरीजी, शेख बहाउद्दीन जकारिया, शेख नजीबुद्दीन नख्शबी आदि सूफ़ी संतों का बहुत सम्मान करता था।
'''इल्तुतमिश की न्यायप्रियता का वर्णन करते हुए''' [[इब्नबतूता]] लिखता है कि, सुल्तान ने अपने महल के सामने संगमरमर की दो शेरों की मूर्तियाँ स्थापित कराई थीं, जिनके गलें में घण्टियां लगी थीं, जिसको कोई भी व्यक्ति बजाकर न्याय की माँग कर सकता था। 'मुहम्मद जुनैदी' और फ़खरुल इसामी' की मदद से इल्तुतमिश के दरबार में 'मिन्हाज-उल-सिराज', 'मलिक ताजुद्दीन' को संरक्षण मिला था। मिन्हाज-उल-सिराज ने इल्तुतमिश को महान दयालु, सहानुभूति रखने वाला, विद्धानों एवं वृद्धों के प्रति श्रद्धा रखने वाला सुल्तान बताया है। डॉ. आर.पी. त्रिपाठी के अनुसार [[भारत]] में मुस्लिम सम्प्रभुता का इतिहास इल्तुतमिश से आरम्भ होता है। अवफी ने इल्तुतमिश के ही शासन काल में ‘जिवामी-उल-हिकायत’ की रचना की। निज़ामुल्मुल्क मुहम्मद जुनैदी, मलिक कुतुबुद्दीन हसन ग़ोरी और फ़खरुल मुल्क इसामी जैसे योग्य व्यक्तियों को उसका संरक्षण प्राप्त था। वह शेख कुतुबुद्दीन तबरीजी, शेख बहाउद्दीन जकारिया, शेख नजीबुद्दीन नख्शबी आदि सूफ़ी संतों का बहुत सम्मान करता था।



Revision as of 13:00, 8 June 2011

[[चित्र:Iltutmish-Tomb-Qutab-Minar.jpg|thumb|250px|इल्तुतमिश का मक़बरा, क़ुतुब मीनार]] इल्तुतमिश (1210- 236 ई.) एक इल्बारी तुर्क था। खोखरों के विरुद्ध इल्तुतमिश की कार्य कुशलता से प्रभावित होकर मुहम्मद ग़ोरी ने उसे “अमीरूल उमरा” नामक महत्त्वपूर्ण पद दिया था। अकस्मात् मुत्यु के कारण कुतुबद्दीन ऐबक अपने किसी उत्तराधिकारी का चुनाव नहीं कर सका था। अतः लाहौर के तुर्क अधिकारियों ने कुतुबद्दीन ऐबक के विवादित पुत्र आरामशाह (जिसे इतिहासकार नहीं मानते) को लाहौर की गद्दी पर बैठाया, परन्तु दिल्ली के तुर्को सरदारों एवं नागरिकों के विरोध के फलस्वरूप कुतुबद्दीन ऐबक के दामाद इल्तुतमिश, जो उस समय बदायूँ का सूबेदार था, को दिल्ली आमंत्रित कर राज्यसिंहासन पर बैठाया गया। आरामशाह एवं इल्तुतमिश के बीच दिल्ली के निकट जड़ नामक स्थान पर संघर्ष हुआ, जिसमें आरामशाह को बन्दी बनाकर बाद में उसकी हत्या कर दी गयी और इस तरह ऐबक वंश के बाद इल्बारी वंश का शासन प्रारम्भ हुआ।

कठिनाइयों से सामना

सुल्तान का पद प्राप्त करने के बाद इल्तुतमिश को कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इसके अन्तर्गत इल्तुतमिश ने सर्वप्रथम ‘कुल्बी’ अर्थात कुतुबद्दीन ऐबक के समय सरदार तथा ‘मुइज्जी’ अर्थात् मुहम्मद ग़ोरी के समय के सरदारों के विद्रोह का दमन किया। इल्तुमिश ने इन विद्रोही सरदारों पर विश्वास न करते हुए अपने 40 ग़ुलाम सरदारों का एक गुट या संगठन बनाया, जिसे ‘तुर्कान-ए-चिहालगानी’ का नाम दिया गया। इस संगठन को ‘चरगान’ भी कहा जाता है। इल्तुतिमिश के समय में ही अवध में पिर्थू विद्रोह हुआ।

1215 से 1217 ई. के बीच इल्तुतिमिश को अपने दो प्रबल प्रतिद्वन्द्धी 'एल्दौज' और 'कुबाचा' से संघर्ष करना पड़ा। 1215 ई. में इल्तुतिमिश ने एल्दौज को तराइन के मैदान में पराजित किया। 1217 ई. में इल्तुतिमिश ने कुबाचा से लाहौर छीन लिया तथा 1228 में उच्छ पर अधिकार कर कुबाचा से बिना शर्त आत्मसमर्पण के लिए कहा। अन्त में कुबाचा ने सिन्धु नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली। इस तरह इन दोनों प्रबल विरोधियों का अन्त हुआ।

मंगोलों से बचाव

मंगोल आक्रमणकारी चंगेज़ ख़ाँ के भय से भयभीत होकर ख्वारिज्म शाह का पुत्र 'जलालुद्दीन मुगबर्नी' वहां से भाग कर पंजाब की ओर आ गया। चंगेज़ ख़ाँ उसका पीछा करता हुए लगभग 1220-21 ई. में सिंध तक आ गया। उसने इल्तुतमिश को संदेश दिया कि वह मंगबर्नी की मदद न करें। यह संदेश लेकर चंगेज़ ख़ाँ का दूत इल्तुतमिश के दरबार में आया। इल्तुतमिश ने मंगोल जैसे शक्तिशाली आक्रमणकारी से बचने के लिए मंगबर्नी की कोई सहायता नहीं की। मंगोल आक्रमण का भय 1228 ई. में मंगबर्नी के भारत से वापस जाने पर टल गया। कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के बाद अली मर्दान ने बंगाल में अपने को स्वतन्त्र घोषित कर लिया तथा 'अलाउद्दीन' की उपाधि ग्रहण की। दो वर्ष बाद उसकी मृत्यु हो गई। इसके बाद उसका पुत्र 'हिसामुद्दीन इवाज' उत्तराधिकारी बना। उसने 'ग़यासुद्दीन आजिम' की उपाधि ग्रहण की तथा अपने नाम के सिक्के चलाए और खुतबा (उपदेश या प्रशंसात्मक रचना) पढ़वाया।

विजय अभियान

1225 में इल्तुतमिश ने बंगाल में स्वतन्त्र शासक 'हिसामुद्दीन इवाज' के विरुद्ध अभियान छेड़ा। इवाज ने बिना युद्ध के ही उसकी अधीनता में शासन करना स्वीकार कर लिया, पर इल्तुतमिश के पुनः दिल्ली लौटते ही उसने फिर से विद्रोह कर दिया। इस बार इल्तुतमिश के पुत्र नसीरूद्दीन महमूद ने 1226 ई. में लगभग उसे पराजित कर लखनौती पर अधिकार कर लिया। दो वर्ष के उपरान्त नासिरुद्दीन महमूद की मृत्यु के बाद मलिक इख्तियारुद्दीन बल्का ख़लजी ने बंगाल की गद्दी पर अधिकार कर लिया। 1230 ई. में इल्तुतमिश ने इस विद्रोह को दबाया। संघर्ष में बल्का ख़लजी मारा गया और इस बार एक बार फिर बंगाल दिल्ली सल्तनत के अधीन हो गया। 1226 ई. में इल्तुतमिश ने रणथंभौर पर तथा 1227 ई. में परमरों की राजधानी मन्दौर पर अधिकार कर लिया। 1231 ई. में इल्तुतमिश ने ग्वालियर के क़िले पर घेरा डालकर वहाँ के शासक मंगलदेव को पराजित किया। 1233 ई. में चंदेलों के विरुद्ध एवं 1234-35 ई. में उज्जैन एवं भिलसा के विरुद्ध उसका अभियान सफल रहा।

वैध सुल्तान एवं उपाधि

इल्तुतमिश के नागदा के गुहिलौतों और गुजरात चालुक्यों पर किए गए आक्रमण विफल हुए। इल्तुतमिश का अन्तिम अभियान बामियान के विरुद्ध हुआ। फ़रवरी, 1229 में बग़दाद के ख़लीफ़ा से इल्तुतमिश को सम्मान में ‘खिलअत’ एवं प्रमाण पत्र प्राप्त हुआ। ख़लीफ़ा ने इल्तुतमिश की पुष्टि उन सारे क्षेत्रों में कर दी, जो उसने जीते थे। साथ ही ख़लीफ़ा ने उसे 'सुल्तान-ए-आजम' (महान शासक) की उपाधि भी प्रदान की। प्रमाण पत्र प्राप्त होने के बाद इल्तुतमिश वैध सुल्तान एवं दिल्ली सल्तनत एक वैध स्वतन्त्र राज्य बन गई। इस स्वीकृति से इल्तुतमिश को सुल्तान के पद को वंशानुगत बनाने और दिल्ली के सिंहासन पर अपनी सन्तानों के अधिकार को सुरक्षित करने में सहायता मिली। खिलअत मिलने के बाद इल्तुतमिश ने ‘नासिर अमीर उल मोमिनीन’ की उपाधि ग्रहण की।

सिक्कों का प्रयोग

मामलूक अथवा गुलाम वंश
शासक काल
कुतुबुद्दीन ऐबक (1206 - 1210 ई.)
आरामशाह (1210 - 1211 ई.)
इल्तुतमिश (1211 - 1236 ई.)
रूकुनुद्दीन फ़ीरोज़शाह (1236 ई.)
रज़िया सुल्तान (1236 - 1240 ई.)
मुइज़ुद्दीन बहरामशाह (1240 - 1242 ई.)
अलाउद्दीन मसूद (1242 - 46 ई.)
नसीरूद्दीन महमूद (1245 - 1265 ई.)
ग़यासुद्दीन बलबन (1266 - 1287 ई.)
कैकुबादशमसुद्दीन क्यूमर्स (1287 - 1290 ई.)

इल्तुतमिश पहला तुर्क सुल्तान था, जिसने शुद्ध अरबी सिक्के चलवाये। उसने सल्तनत कालीन दो महत्त्वपूर्ण सिक्के 'चाँदी का टका' (लगभग 175 ग्रेन) तथा 'तांबे' का ‘जीतल’ चलवाया। इल्तुतमिश ने सिक्कों पर टकसाल के नाम अंकित करवाने की परम्परा को आरम्भ किया। सिक्कों पर इल्तुतमिश ने अपना उल्लेख ख़लीफ़ा के प्रतिनिधि के रूप में किया है। ग्वालियर विजय के बाद इल्तुतमिश ने अपने सिक्कों पर कुछ गौरवपूर्ण शब्दों को अंकित करवाया, जैसे “शक्तिशाली सुल्तान”, “साम्राज्य व धर्म का सूर्य”, “धर्मनिष्ठों के नायक के सहायक”। इल्तुतमिश ने ‘इक्ता व्यवस्था’ का प्रचलन किया और राजधानी को लाहौर से दिल्ली स्थानान्तरित किया।

मृत्यु

बयाना पर आक्रमण करने के लिए जाते समय मार्ग में इल्तुतमिश बीमार हो गया। अन्ततः अप्रैल 1236 में उसकी मृत्यु हो गई। इल्तुतमिश प्रथम सुल्तान था, जिसने दोआब के आर्थिक महत्त्व को समझा था और उसमें सुधार किया था।

रज़िया को उत्तराधिकार

रज़िया सुल्तान इल्तुतमिश की पुत्री तथा भारत की पहली मुस्लिम शासिका थी। अपने अंतिम दिनों में इल्तुतमिश अपने उत्तराधिकार के सवाल को लेकर चिन्तित था। इल्तुतमिश के सबसे बड़े पुत्र नसीरूद्दीन महमूद की, जो अपने पिता के प्रतिनिधि के रूप में बंगाल पर शासन कर रहा था, 1229 ई. को अप्रैल में मृत्यु हो गई। सुल्तान के शेष जीवित पुत्र शासन कार्य के किसी भी प्रकार से योग्य नहीं थे। अत: इल्तुतमिश ने अपनी मृत्यु शैय्या पर से अपनी पुत्री रज़िया को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।

यात्री विवरण एवं संरक्षक

इल्तुतमिश की न्यायप्रियता का वर्णन करते हुए इब्नबतूता लिखता है कि, सुल्तान ने अपने महल के सामने संगमरमर की दो शेरों की मूर्तियाँ स्थापित कराई थीं, जिनके गलें में घण्टियां लगी थीं, जिसको कोई भी व्यक्ति बजाकर न्याय की माँग कर सकता था। 'मुहम्मद जुनैदी' और फ़खरुल इसामी' की मदद से इल्तुतमिश के दरबार में 'मिन्हाज-उल-सिराज', 'मलिक ताजुद्दीन' को संरक्षण मिला था। मिन्हाज-उल-सिराज ने इल्तुतमिश को महान दयालु, सहानुभूति रखने वाला, विद्धानों एवं वृद्धों के प्रति श्रद्धा रखने वाला सुल्तान बताया है। डॉ. आर.पी. त्रिपाठी के अनुसार भारत में मुस्लिम सम्प्रभुता का इतिहास इल्तुतमिश से आरम्भ होता है। अवफी ने इल्तुतमिश के ही शासन काल में ‘जिवामी-उल-हिकायत’ की रचना की। निज़ामुल्मुल्क मुहम्मद जुनैदी, मलिक कुतुबुद्दीन हसन ग़ोरी और फ़खरुल मुल्क इसामी जैसे योग्य व्यक्तियों को उसका संरक्षण प्राप्त था। वह शेख कुतुबुद्दीन तबरीजी, शेख बहाउद्दीन जकारिया, शेख नजीबुद्दीन नख्शबी आदि सूफ़ी संतों का बहुत सम्मान करता था।

डॉ. ईश्वरी प्रसाद के अनुसार “इल्तुतमिश निस्सन्देह गुलाम वंश का वास्तविक संस्थापक था।”

निर्माण कार्य

स्थापत्य कला के अन्तर्गत इल्तुतमिश ने कुतुबुद्दीन ऐबक के निर्माण कार्य को पूरा करवाया। भारत में सम्भवतः पहला मक़बरा निर्मित करवाने का श्रेय भी इल्तुतमिश को दिया जाता है। इल्तुतमिश ने बदायूँ की जामा मस्जिद एवं नागौर में अतारकिन के दरवाज़ा का निर्माण करवाया। ‘अजमेर की मस्जिद’ का निर्माण इल्तुतमिश ने ही करवाया था। उसने दिल्ली में एक विद्यालय की स्थापना की। इल्तुतमिश का मक़बरा दिल्ली में स्थित है, जो एक कक्षीय मक़बरा है।



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