पांड़्य देश: Difference between revisions
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Revision as of 11:20, 24 September 2011
- प्राचीन समय में पांड़्य देश सुदूर पश्चिम का एक राज्य था। कृत्माला और ताम्रपर्णी पांड़्य देश की मुख्य नदियाँ थी। महाभारत[1] में पांड़्य देश के राजा का सहदेव द्वारा परास्त होने का वर्णन है -
'पुलिंदाश्च रेणे जित्वा ययौ द्क्षिणत: पुर:,
युयुधे पांड़्य राजेन दिवसं नकुलानुज:।'[2]
- टॉलमी [3] ने पांडुदेश को 'पांडूओयी' लिखा है और इसको पंजाब से सम्बद्ध बताया है। सम्भव है सुदूर दक्षिण के 'पांड़्य देश' और उत्तर के 'पांडुदेश' का कुछ सम्बंध रहा हो। प्राचीन साहित्य से ज्ञात होता है कि शूरसेन या मथुरा, जो पांडवों के प्रिय सखा श्रीकृष्ण की जन्मभूमि होने के नाते टॉलमी द्वारा उल्लिखित 'पांडुदेश' हो सकता है, से दक्षिण भारत का कुछ सम्बंध अवश्य था जैसाकि मेगस्थनीज़ के वृतांत से भी सूचित होता है। जिस प्रकार शूरसेन देश की राजधानी मथुरा थी, उसी प्रकार 'पांड़्य देश' की राजधानी भी 'मधुरा' या वर्तमान 'मदुरा' या 'मदुरै' थी। सम्भवत: उत्तर के 'पांडु' लोग ही कालांतर में दक्षिण भारत में जाकर बस गये होंगे।
- कात्यायन ने पांड़्य शब्द की उत्पत्ति पांडु से बतायी है। अशोक के 13वें शिलाभिलेखों में 'पांड़्य' को चोल और सतियापुत्त के साथ मौर्य साम्राज्य के प्रत्यंत देशों में माना गया है।
- कालिदास ने रघुवंश[4] में इंदुमती स्वयंवर के प्रसंग में पांड़्यराज तथा उसके देश का मनोहारी वर्णन किया है जिसका एक अंश यह है-
'पांड़्योS यमंसार्पितलंबहार: क्लृप्तांमरागोहरिचंदनेन, अभाति बालातपर्क्तासानु: सनिर्झरोद्गार द्वादिराज:।
तांबूलवल्ली परिद्ध्पूगास्वेलालतालिंगिंतचंदनासु, तमालपत्रास्तरणासुरंतुं प्रसीद शश्वन् मलयस्थलीषु।'[5]
इन पद्यों में पाड़्य देश के चंदन, तांबूल, एला (इलायची) तथा तमाल वृक्षों तथा लताओं का वर्णन है और मलय पर्वत की स्थिति इस देश बताई गयी है। रघुवंश[6] में पांड़्यराज को 'इंदीवर स्यामतनु' कहा जो सुदूर दक्षिण के भारतीयों का स्वाभाविक शारीरिक रंग है।
- श्री रायचौधरी के अनुसार प्राचीन पांड़्य देश में वर्तमान मदुरा, रामनाद और तिन्नेवली ज़िले और केरल का दक्षिणी भाग सम्मिलित था तथा इसकी राजधानी कोरकई और मदुरा (दक्षिण मधुरा) में थी।[7]
- REDIRECTसाँचा:इन्हें भी देखें
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
माथुर, विजयेन्द्र कुमार ऐतिहासिक स्थानावली, द्वितीय संस्करण-1990 (हिन्दी), भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी, जयपुर, पृष्ठ संख्या-539-540।