पांडव: Difference between revisions

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Revision as of 15:34, 14 September 2010

पांडव / पाण्डव

एक बार सभी देवगण गंगा में स्नान करने के लिए गये तो उन्होंने गंगा में बहता एक कमल का फूल देखा। इन्द्र उसका कारण खोजने गंगा के मूलस्थान की ओर बढ़े। गंगोत्री के पास एक सुंदरी रो रही थी। उसका प्रत्येक आंसू गंगाजल में गिरकर स्वर्णकमल बन जाता था। इन्द्र ने उसके दु:ख का कारण जानना चाहा तो वह इन्द्र को लेकर हिमालय पर्वत के शिखर पर पहुंची। वहां एक देव तरूण एक सुंदरी के साथ क्रीड़ारत था। इन्द्र ने उसकी अपमानजनक भर्त्सना की तथा दुराभिमान के साथ बताया कि वह सारा स्थान उसके अधीन है। उस देव पुरुष के दृष्टिपात मात्र से इन्द्र चेतनाहीन जड़वत हो गये। देव पुरुष ने इन्द्र को बताया कि वह रुद्र है तथा इन्द्र को एक पर्वत हटाकर गुफ़ा का मुंह खोलने का आदेश दिया। ऐसा करने पर इन्द्र ने देखा कि गुफ़ा के अंदर चार अन्य तेजस्वी इन्द्र विद्यमान थे। रुद्र के आदेश पर इन्द्र ने भी वहां प्रवेश किया। रुद्र ने कहा-'तुमने दुराभिमान के कारण मेरा अपमान किया है, अत: तुम पांचों पृथ्वी पर मानव-रूप में जन्म लोगे। तुम पांचों का विवाह इस सुंदरी के साथ होगा जो कि लक्ष्मी है। तुम सब सत्कर्मों का संपादन करके पुन: इन्द्रलोक की प्राप्ति कर पाओगे।' अत: पांचों पांडव तथा द्रौपदी का जन्म हुआ। पंचम इन्द्र ही पांडवों में अर्जुन हुए।[1]

पांडवों का जन्म

एक बार राजा पाण्डु अपनी दोनों पत्नियों-कुन्ती तथा माद्री-के साथ आखेट के लिये वन में गये। वहाँ उन्हें एक मृग का मैथुनरत जोड़ा दृष्टिगत हुआ। पाण्डु ने तत्काल अपने बाण से उस मृग को घायल कर दिया। मरते हुये मृग ने पाण्डु को शाप दिया,'राजन! तुम्हारे समान क्रूर पुरुष इस संसार में कोई भी नहीं होगा। तूने मुझे मैथुन के समय बाण मारा है अतः जब कभी भी तू मैथुनरत होगा तेरी मृत्यु हो जायेगी।' इस शाप से पाण्डु अत्यन्त दुःखी हुये और अपनी रानियों से बोले,'हे देवियों! अब मैं अपनी समस्त वासनाओं का त्याग कर के इस वन में ही रहूँगा तुम लोग हस्तिनापुर लौट जाओ़' उनके वचनों को सुन कर दोनों रानियों ने दुःखी होकर कहा,'नाथ! हम आपके बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकतीं। आप हमें भी वन में अपने साथ रखने की कृपा कीजिये।' पाण्डु ने उनके अनुरोध को स्वीकार कर के उन्हें वन में अपने साथ रहने की अनुमति दे दी। इसी दौरान राजा पाण्डु ने अमावस्या के दिन बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों को ब्रह्मा जी के दर्शनों के लिये जाते हुये देखा। उन्होंने उन ऋषि-मुनियों से स्वयं को साथ ले जाने का आग्रह किया। उनके इस आग्रह पर ऋषि-मुनियों ने कहा,'राजन! कोई भी निःसन्तान पुरुष ब्रह्मलोक जाने का अधिकारी नहीं हो सकता अतः हम आपको अपने साथ ले जाने में असमर्थ हैं।'


ऋषि-मुनियों की बात सुन कर पाण्डु अपनी पत्नी से बोले, 'हे कुन्ती! मेरा जन्म लेना ही वृथा हो रहा है क्योंकि सन्तानहीन व्यक्ति पितृ-ऋण, ऋषि-ऋण, देव-ऋण तथा मनुष्य-ऋण से मुक्ति नहीं पा सकता क्या तुम पुत्र प्राप्ति के लिये मेरी सहायता कर सकती हो?' कुन्ती बोली, 'हे आर्यपुत्र! दुर्वासा ऋषि ने मुझे ऐसा मन्त्र प्रदान किया है जिससे मैं किसी भी देवता का आह्वान करके मनोवांछित वस्तु प्राप्त कर सकती हूँ। आप आज्ञा करें मैं किस देवता को बुलाऊँ।

  • इस पर पाण्डु ने धर्म को आमन्त्रित करने का आदेश दिया। धर्म ने कुन्ती को पुत्र प्रदान किया जिसका नाम युधिष्ठर रखा गया।
  • कालान्तर में पाण्डु ने कुन्ती को पुनः दो बार वायु देव तथा इन्द्रदेव को आमन्त्रित करने की आज्ञा दी। वायुदेव से भीम तथा इन्द्र से अर्जुन की उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात पाण्डु की आज्ञा से कुन्ती ने माद्री को उस मन्त्र की दीक्षा दी। माद्री ने
  • अश्वनीकुमारों को आमन्त्रित किया और नकुल तथा सहदेव का जन्म हुआ। एक दिन राजा पाण्डु माद्री के साथ वन में सरिता के तट पर भ्रमण कर रहे थे। वातावरण अत्यन्त रमणीक था और शीतल-मन्द-सुगन्धित वायु चल रही थी। सहसा वायु के झोंके से माद्री का वस्त्र उड़ गया। इससे पाण्डु का मन चंचल हो उठा और वे मैथुन मे प्रवृत हुये ही थे कि शापवश उनकी मृत्यु हो गई। माद्री उनके साथ सती हो गई किन्तु पुत्रों के पालन-पोषण के लिये कुन्ती हस्तिनापुर लौट आई।

पांडवों का विशिष्ट चरित्र

पांचों पांडवों का विशिष्ट चरित्र था।

  • युधिष्ठर धर्मात्मा एवं सत्यवादी थे।
  • भीम अपनी शक्ति तथा भूख के लिए जाने जाते थे।
  • अर्जुन महान धर्नुधर के रूप में जाने जाते थे।
  • नकुल निपुण घुड़सवार थे। तथा
  • सहदेव निपुण तलवार भांजक थे।

महाभारत

पांडवों के राज्य, धोखे से उनके चचेरे भाईयों द्वारा छीन लिये जाने के कारण 100 कौरवों के साथ एक महान युद्ध हुआ महाभारत, जिसमें भगवान कृष्ण ने उनकी सहायता की जो भगवान विष्णु के एक अवतार थे तथा इस युद्ध से कौरवों की मृत्यु और पराजय हुई।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत, आदिपर्व, अध्याय 196, श्लोक 1 से 36 तक

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