Difference between revisions of "श्रावस्ती"

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[[चित्र:Jain-Temple-Sravasti.jpg|thumb|250px|प्राचीन जैन मंदिर के अवशेष, श्रावस्ती]]
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{{श्रावस्ती विषय सूची}}{{चयनित लेख}}
[[भारत]] के [[उत्तर प्रदेश]] राज्य के गोंडा-बहराइच ज़िलों की सीमा पर यह [[बौद्ध]] तीर्थ स्थान है। गोंडा-[[बलरामपुर]] से 12 मील पश्चिम में आधुनिक सहेत-महेत गांव ही श्रावस्ती है। पहले यह [[कौशल]] देश की दूसरी राजधानी थी, भगवान [[राम]] के पुत्र [[लव कुश|लव]] ने इसे अपनी राजधानी बनाया था, श्रावस्ती बौद्ध [[जैन]] दोनों का तीर्थ स्थान है, [[बुद्ध|तथागत]] श्रावस्ती में रहे थे, यहाँ के श्रेष्ठी अनाथपिण्डिक ने भगवान [[गौतम बुद्ध|बुद्ध]] के लिये जेतवन बिहार बनवाया था, आजकल यहाँ बौद्ध धर्मशाला, मठ और मन्दिर है।
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{{सूचना बक्सा पर्यटन
==प्राचीन नगर==
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|चित्र=Jain-Temple-Sravasti.jpg
यह [[कौशल|कोसल]]-जनपद का एक प्रमुख नगर था। वहाँ का दूसरा प्रसिद्ध नगर [[अयोध्या]] था। श्रावस्ती नगर अचिरावती नदी के तट पर बसा था, जिसकी पहचान आधुनिक राप्ती नदी से की जाती है। इस सरिता के तट पर स्थित आज का सहेट-महेट प्राचीन श्रावस्ती का प्रतिनिधि है। इस नगर का यह नाम क्यों पड़ा, इस संबन्ध में कई तरह के वर्णन मिलते हैं। [[बौद्ध धर्म]] -ग्रन्थों के अनुसार इस समृद्ध नगर में दैनिक जीवन में  काम आने वाली सभी छोटी-बड़ी चीज़ें बहुतायत में बड़ी सुविधा से मिल जाती थीं, अतएव इसका यह नाम पड़ गया था।
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|चित्र का नाम=प्राचीन जैन मंदिर के अवशेष, श्रावस्ती
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|विवरण=[[भारत]] के [[उत्तर प्रदेश]] राज्य के [[गोंडा ज़िला|गोंडा]]-[[बहराइच ज़िला|बहराइच]] ज़िलों की सीमा पर [[श्रावस्ती ज़िला|श्रावस्ती ज़िले]] में यह [[बौद्ध]] एवं [[जैन]] [[तीर्थ स्थान]] स्थित है।
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|राज्य=[[उत्तर प्रदेश]]
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|केन्द्र शासित प्रदेश=
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|ज़िला=[[श्रावस्ती ज़िला|श्रावस्ती]]
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|निर्माता=
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|स्वामित्व=
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|प्रबंधक=
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|निर्माण काल=प्राचीन काल से ही रामायण, महाभारत, जैन, बौद्ध आदि अनेक उल्लेख
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|स्थापना=
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|भौगोलिक स्थिति=[http://maps.google.co.in/maps?q=27.517073%C2%B082.050619%C2%B0&hl=en&ie=UTF8&sll=27.504226,82.040203&sspn=0.006538,0.011362&vpsrc=0&t=m&z=17 उत्तर- 27.517073°; पूर्व- 82.050619°]
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|मार्ग स्थिति=श्रावस्ती [[बलरामपुर]] से 17 कि.मी., [[लखनऊ]] से 176 कि.मी., [[कानपुर]] से 249 कि.मी., [[इलाहाबाद]] से 262 कि.मी., [[दिल्ली]] से 562 कि.मी. की दूरी पर है।
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|प्रसिद्धि=पुरावशेष। ऐतिहासिक एवं पौराणिक स्थल।
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|कब जाएँ=[[अक्टूबर]] से [[मार्च]]
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|कैसे पहुँचें=हवाई जहाज़, रेल, बस आदि से पहुँचा जा सकता है।
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|हवाई अड्डा=लखनऊ हवाई अड्डा
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|रेलवे स्टेशन=बलरामपुर रेलवे स्टेशन
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|बस अड्डा=मेगा टर्मिनस गोंडा, श्रावस्ती शहर से 50 किलोमीटर की दूरी पर है
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|यातायात=टैक्सी और बस
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|क्या देखें=[[पुरावशेष]]
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|कहाँ ठहरें=
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|क्या खायें=
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|क्या ख़रीदें=
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|एस.टी.डी. कोड=
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|ए.टी.एम=
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|सावधानी=
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|मानचित्र लिंक=[http://maps.google.co.in/maps?q=Shravasti&hl=en&ll=27.599586,82.09259&spn=0.536701,1.352692&client=firefox-a&hq=Shravasti&t=m&z=10&vpsrc=6&iwloc=A गूगल मानचित्र]
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|संबंधित लेख=[[जेतवन श्रावस्ती|जेतवन]], [[शोभनाथ मन्दिर श्रावस्ती|शोभनाथ मन्दिर]], [[कौशल महाजनपद]] आदि
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|शीर्षक 1=[[भाषा]]
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|पाठ 1=[[हिन्दी]], [[अंग्रेज़ी]] और [[उर्दू भाषा|उर्दू]]
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|अन्य जानकारी='श्रावस्ती' न केवल [[बौद्ध]] और [[जैन]] धर्मों का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र था अपितु यह ब्राह्मण धर्म एवं [[वेद|वेद विद्या]] का भी एक महत्त्वपूर्ण केंद्र था।
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|बाहरी कड़ियाँ=[http://shravasti.nic.in/ आधिकारिक वेबसाइट]
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'''श्रावस्ती''' [[भारत]] के [[उत्तर प्रदेश]] राज्य के [[गोंडा ज़िला|गोंडा]]-[[बहराइच ज़िला|बहराइच]] ज़िलों की सीमा पर स्थित यह [[जैन]] और [[बौद्ध]] का [[तीर्थ|तीर्थ स्थान]] है। गोंडा - [[बलरामपुर]] से 12 मील पश्चिम में आधुनिक 'सहेत-महेत' गाँव ही श्रावस्ती है। पहले यह [[कौशल]] देश की दूसरी राजधानी थी। ऐसी पौराणिक मान्यता है कि भगवान [[राम]] के पुत्र [[लव कुश]] ने इसे अपनी राजधानी बनाया था। श्रावस्ती [[बौद्ध]] [[जैन]] दोनों का [[तीर्थ]] स्थान है, [[तथागत]] (बुद्ध) श्रावस्ती में रहे थे, यहाँ के श्रेष्ठी '[[अनाथपिंडक]]' ने भगवान [[गौतम बुद्ध|बुद्ध]] के लिये 'जेतवन विहार' बनवाया था, आजकल यहाँ बौद्ध धर्मशाला, मठ और मन्दिर है।
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==परिचय==
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{{main|श्रावस्ती का परिचय}}
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माना गया है कि श्रावस्ति के स्थान पर आज आधुनिक 'सहेत-महेत' ग्राम है, जो एक-दूसरे से लगभग डेढ़ फर्लांग के अंतर पर स्थित हैं। यह बुद्धकालीन नगर था, जिसके भग्नावशेष उत्तर प्रदेश राज्य के, बहराइच एवं गोंडा ज़िले की सीमा पर, [[राप्ती नदी]] के दक्षिणी किनारे पर फैले हुए हैं। अनुश्रुतियों के अनुसार सूर्यवंशी राजा श्रावस्त के नाम पर इस नगरी का नामकरण कर [[श्रावस्ती]] नाम की संज्ञा दी गयी, तब से ये इलाका श्रावस्ती के नाम से जाना जाता है। जंगलों के बीच गुफ़ा में रहकर राहगीरों को लूटने के बाद उनकी ऊंगली काटकर माला पहनने वाले एक दुर्दांत डाकू [[अंगुलिमाल]] को [[राप्ती नदी]] के किनारे बसे इसी स्थान पर [[बुद्ध|भगवान बुद्ध]] ने अपनी इश्वरीय शक्तियों के बल पर नास्तिक से आस्तिक बनाकर अपना अनुयायी बनाया था। ये वही इलाका है, जहाँ पर गौतम बुद्ध ने अपने जीवन काल के सबसे ज्यादा [[बसंत ऋतु|बसंत]] बिताये थे।
 
==स्थिति==
 
==स्थिति==
प्राचीन श्रावस्ती के अवशेष आधुनिक ‘सहेत’-‘महेत’ नामक स्थानों पर प्राप्त हुए हैं।<ref>द्रष्टव्य आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया रिपोर्टस , भाग 1, पृष्ठ 330; तत्रैव, भाग 11, पृष्ठ 78 और आगे। </ref> यह नगर 27°31’ उत्तरी अक्षांश और 82°1’ पूर्वी देशांतर पर स्थिर था।<ref>एम. वेंक्टरम्मैया, श्रावस्ती, (आर्कियोलाजिकल् सर्वे आफ इंडिया, दिल्ली 1981), पृष्ठ 1</ref> ‘सहेत’ का समीकरण ‘जेतवन’ से तथा ‘महेत’ का प्राचीन श्रावस्ती नगर से किया गया है। प्राचीन टीला एवं भग्नावशेष गोंडा एवं बहराइच ज़िलो की सीमा पर बिखरे पड़े हैं, जहाँ बलरामपुर स्टेशन से पहुँचा जा सकता है। बहराइच एवं बलरामपुर से इसकी दूरी क्रमश: 26 एवं 10 मील है।<ref>विमलचरण लाहा, प्राचीन भारत का ऐतिहासिक भूगोल (उत्तर प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी, लखनऊ, 1972), पृष्ठ 210</ref> आजकल ‘सहेत’ (जेतवन) का भाग बहराइच ज़िले में और ‘महेत’ गोंडा जिले में पड़ता है। बलरामपुर-बहराइच मार्ग पर सड़क से 800 फुट की दूरी पर ‘सहेत’ स्थित है जबकि ‘महेत’ 1/3 मील की दूरी पर स्थित है।<ref>दि मेमायर्स आफ दि आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया, भाग 50 ([[दिल्ली]] 1935) में उद्धृत विमलचरण लाहा का लेख ‘श्रावस्ती इन इंडियन लिटरेचर’, पृष्ठ 1</ref>विंसेंट स्मिथ ने सर्वप्रथम श्रावस्ती का समीकरण चरदा से किया था जो ‘सहेत-महेत’ से 40 मील उत्तर-पश्चिम में स्थित है।<ref>जर्नल ऑफ़ दि रायल एशियाटिक सोसाइटी, 1900, पृष्ठ 9</ref> लेकिन जेतवन के उत्खनन से गोविंद चंद गहड़वाल के 1128 ई. के एक अभिलेख की प्राप्ति से इसका समीकरण ‘सहेत-महेत’ से निश्चित हो गया है।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस 1907-08, पृष्ठ 131-132; तुलनीय, विशुद्धनन्द पाठक, हिस्ट्री ऑफ़ कोशल, (मोतीलाल बनारसीदास, [[वाराणसी]], 1963 ई.) पृष्ठ 63</ref>
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{{main|श्रावस्ती का परिचय}}
 
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प्राचीन श्रावस्ती के अवशेष आधुनिक ‘सहेत’-‘महेत’ नामक स्थानों पर प्राप्त हुए हैं।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया रिपोर्टस, भाग 1, पृष्ठ 330; एवं भाग 11, पृष्ठ 78 </ref> यह नगर 27°51’ उत्तरी अक्षांश और 82°05’ पूर्वी देशांतर पर स्थिर था।<ref>एम. वेंक्टरम्मैया, श्रावस्ती, आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, दिल्ली 1981, पृष्ठ 1</ref> ‘सहेत’ का समीकरण ‘जेतवन’ से तथा ‘महेत’ का प्राचीन 'श्रावस्ती नगर' से किया गया है। प्राचीन टीला एवं [[भग्नावशेष]] गोंडा एवं बहराइच ज़िलों की सीमा पर बिखरे पड़े हैं, जहाँ बलरामपुर स्टेशन से पहुँचा जा सकता है। बहराइच एवं बलरामपुर से इसकी दूरी क्रमश: 26 एवं 10 मील है।<ref>विमलचरण लाहा, प्राचीन भारत का ऐतिहासिक भूगोल, उत्तर प्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी, लखनऊ, 1972, पृष्ठ 210</ref> आजकल ‘सहेत’<ref>जेतवन</ref> का भाग बहराइच ज़िले में और ‘महेत’ गोंडा ज़िले में पड़ता है। बलरामपुर - बहराइच मार्ग पर सड़क से 800 फुट की दूरी पर ‘सहेत’ स्थित है जबकि ‘महेत’ 1/3 मील की दूरी पर स्थित है।<ref>दि मेमायर्स ऑफ द आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, भाग 50, [[दिल्ली]] 1935 में उद्धृत विमलचरण लाहा का लेख ‘श्रावस्ती इन इंडियन लिटरेचर’, पृष्ठ 1</ref> विंसेंट स्मिथ ने सर्वप्रथम श्रावस्ती का समीकरण '''चरदा''' से किया था जो ‘सहेत-महेत’ से 40 मील उत्तर-पश्चिम में स्थित है।<ref>जर्नल ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसाइटी, 1900, पृष्ठ 9</ref> लेकिन जेतवन के [[उत्खनन]] से गोविंद चंद गहड़वाल के 1128 ई. के एक [[अभिलेख]] की प्राप्ति से इसका समीकरण ‘सहेत-महेत’ से निश्चित हो गया है।<ref>आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस 1907-08, पृष्ठ 131-132; विशुद्धनन्द पाठक, हिस्ट्री ऑफ़ कोशल, मोतीलाल बनारसीदास, [[वाराणसी]], 1963 ई., पृष्ठ 63</ref>
प्राचीन श्रावस्ती नगर अचिरावती नदी (आधुनिक [[राप्ती नदी|राप्ती]]) के तट पर स्थित था।<ref>विनय महावग्ग, पृष्ठ 191-192; परमत्थजोतिका, पृष्ठ 511</ref> यह नदी नगर के समीप ही बहती थी। बौद्ध युग में यह नदी नगर को घेर कर बहती थी।<ref>[[राहुल सांकृत्यायन]], पुरातत्त्व निबंधावली (इलाहाबाद, 1958), पृष्ठ 24</ref> बौद्ध साहित्य में श्रावस्ती का वर्णन कोशल जनपद की राजधानी और राजगृह से दक्षिण-पश्चिम में कालक और अस्सक तक जाने वाले राजमार्ग पर सावत्थी नामक दो महत्त्वपूर्ण पड़ावों के रूप में मिलता है।<ref> 9- विमलचरण लाहा, प्राचीन [[भारत]] का ऐतिहासिक भूगोल, ([[उत्तर प्रदेश]] हिन्दी ग्रंथ अकादमी, [[लखनऊ]], प्रथम संस्करण, 1972), पृष्ठ 211</ref><ref name= "उत्तर प्रदेश">{{cite book | last = सिंह| first =डॉ. अशोक कुमार  | title =उत्तर प्रदेश के प्राचीनतम नगर | edition = | publisher = वाणी प्रकाशन| location =भारतडिस्कवरी पुस्तकालय  | language =[[हिन्दी]]  | pages =98-124  | chapter =}}</ref>
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==नामकरण==
[[चित्र:Jetavana-Sravasti.jpg|thumb|250px|left|[[खत्ती]], श्रावस्ती]]  
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{{main|श्रावस्ती का नामकरण}}
==नाम की उत्पत्ति==
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*सावत्थी, [[संस्कृत]] श्रावस्ती का [[पालि]] और अर्द्धमागधी रूप है।<ref name= "उत्तर प्रदेश">{{cite book | last = सिंह| first =डॉ. अशोक कुमार  | title =उत्तर प्रदेश के प्राचीनतम नगर  | edition = | publisher = वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली | location =भारतडिस्कवरी पुस्तकालय  | language =[[हिन्दी]] | pages =98-124  | chapter =}}</ref> बौद्ध ग्रन्थों में इस नगर के नाम की उत्पत्ति के विषय में एक अन्य उल्लेख भी मिलता है। इनके अनुसार सवत्थ (श्रावस्त) नामक एक [[ऋषि]] यहाँ पर रहते थे, जिनकी बड़ी ऊँची प्रतिष्ठा थी। इन्हीं के नाम के आधार पर इस नगर का नाम श्रावस्ती पड़ गया था।
श्रावस्ती कोशल का एक प्रमुख नगर था। भगवान [[बुद्ध]] के जीवन काल में यह कोशल देश की राजधानी थी।<ref>भरत सिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल (हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, संवत् 2018), पृष्ठ 236, दीधनिकाय, पृष्ठ 152; राखिल, दि लाइफ आफ दि बुद्ध लीजेंड एंड हिस्ट्री पृष्ठ 136</ref> इसे बुद्धकालीन भारत के 6 महानगरों ([[चंपा]], [[राजगृह]], श्रावस्ती, [[साकेत]], [[कोशांबी]] और [[वाराणसी]]) में एक माना जाता था।<ref>दीधनिकाय, पृष्ठ 152; राखिल, दि लाइफ आफ दि बुद्ध लीजेंड एंड हिस्ट्री, पृष्ठ 136</ref> इसके नाम की व्युत्पत्ति के संबंध में कई मत प्रतिपादित है। सावत्थी, संस्कृत श्रावस्ती का पालि और अर्द्धमागधी रूप है।<ref name= "उत्तर प्रदेश"/> बौद्ध ग्रन्थों में इस नगर के नाम की उत्पत्ति के विषय में एक अन्य उल्लेख भी मिलता है। इनके अनुसार सवत्थ (श्रावस्त) नामक एक ऋषि यहाँ पर रहते थे, जिनकी बड़ी ऊँची प्रतिष्ठा थी। इन्हीं के नाम के आधार पर इस नगर का नाम श्रावस्ती पड़ गया था। [[पाणिनि]] ने, जिनका समय आज से नहीं कुछ तो चौबीस या पचीस सौ साल पहले था, अपने प्रसिद्ध व्याकरण-ग्रन्थ '[[अष्टाध्यायी]]' में साफ लिखा है कि स्थानों के नाम वहाँ रहने वाले किसी विशेष व्यक्ति के नाम के आधार पर पड़ जाते थे। [[महाभारत]] के अनुसार श्रावस्ती के नाम की उत्पत्ति का कारण कुछ दूसरा ही था। ब्राह्मण साहित्य, महाकाव्यों एवं पुराणों के अनुसार श्रावस्ती का नामकरण श्रावस्त या श्रावस्तक के नाम के आधार पर हुआ था। श्रावस्तक युवनाश्व का पुत्र था और पृथु की छठी पीढ़ी में उत्पन्न हुआ था। <ref>विश्वगश्वा पृथो: पुत्र पुत्रस्तस्मादार्दश्चजज्ञिवान्।
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[[चित्र:Jetavana-Sravasti.jpg|thumb|250px|left|[[खत्ती]], श्रावस्ती]]
आर्द्रात्तु युवनाश्वस्तु श्रावस्तस्य तु चात्मज: ॥
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*[[पाणिनि]] (लगभग 500 ई.पूर्व) ने अपने प्रसिद्ध व्याकरण-ग्रन्थ '[[अष्टाध्यायी]]' में साफ़ लिखा है कि- "स्थानों के नाम वहाँ रहने वाले किसी विशेष व्यक्ति के नाम के आधार पर पड़ जाते थे।"
तस्य श्रावस्तको ज्ञेय श्रावस्ती येन निर्मित:।
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*[[महाभारत]] के अनुसार श्रावस्ती के नाम की उत्पत्ति का कारण कुछ दूसरा ही था। श्रावस्त नामक एक राजा हुये जो कि पृथु की छठीं पीढ़ी में उत्पन्न हुये थे। वही इस नगर के जन्मदाता थे और उन्हीं के नाम के आधार पर इसका नाम श्रावस्ती पड़ गया था। पुराणों में श्रावस्तक नाम के स्थान पर श्रावस्त नाम मिलता है। महाभारत में उल्लिखित यह परम्परा उपर्युक्त अन्य परम्पराओं से कहीं अधिक प्राचीन है। अतएव उसी को प्रामाणिक मानना उचित बात होगी। बाद में चल कर [[कोसल]] की राजधानी, [[अयोध्या]] से हटाकर श्रावस्ती ला दी गई थी और यही नगर कोसल का सबसे प्रमुख नगर बन गया।
श्रावतस्य तु दायादो वृहदाश्वो महाबल: ॥महाभारत, आदिपर्व, अध्याय 201, श्लोक 3-4;</ref><ref name= "उत्तर प्रदेश"/> वही इस नगर के जन्मदाता थे और उन्हीं के नाम के आधार पर इसका नाम श्रावस्ती पड़ गया था। [[पुराण|पुराणों]] में श्रावस्तक नाम के स्थान पर श्रावस्त नाम मिलता है। महाभारत में उल्लिखित यह परम्परा उपर्युक्त अन्य परम्पराओं से कहीं अधिक प्राचीन है। अतएव उसी को प्रामणिक मानना उचित बात होगी। [[मत्स्य पुराण|मत्स्य]] एवं [[ब्रह्मपुराण|ब्रह्मपुराणों]] में इस नगर के संस्थापक का नाम श्रावस्तक के स्थान पर श्रावस्त मिलता है। <ref>श्रावस्तश्च महातेजा वत्सकस्तत्सुतोऽभवत्
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*[[ब्राह्मण साहित्य]], [[महाकाव्य|महाकाव्यों]] एवं [[पुराण|पुराणों]] के अनुसार श्रावस्ती का नामकरण श्रावस्त या श्रावस्तक के नाम के आधार पर हुआ था। श्रावस्तक युवनाश्व का पुत्र था और पृथु की छठी पीढ़ी में उत्पन्न हुआ था।
निर्मिता येन श्रावस्ती गौडदेशे द्विजोत्तम्॥ मत्स्यपुराण, अध्याय 12, श्लोक 29 ;</ref><ref name= "उत्तर प्रदेश"/>बाद में चल कर कोसल की राजधानी, [[अयोध्या]] से हटाकर श्रावस्ती ला दी गई थी और यही नगर कोसल का सबसे प्रमुख नगर बन गया। एक [[बौद्ध]] ग्रन्थ के अनुसार वहाँ 57 हज़ार कुल रहते थे और कोसल-नरेशों की आमदनी सबसे ज़्यादा इसी नगर से हुआ करती थी। [[बुद्ध|गौतम बुद्ध]] के समय में भारतवर्ष के 6 बड़े नगरों में श्रावस्ती की गणना हुआ करती थी। यह चौड़ी और गहरी खाई से घिरा हुआ था। इसके अतिरिक्त इसके इर्द-गिर्द एक सुरक्षा-दीवार भी थी, जिसमें हर दिशा में दरवाजे बने हुये थे। हमारी प्राचीन कला में श्रावस्ती के दरवाजों का अंकन हुआ है। उससे ज्ञात होता है कि वे काफ़ी चौड़े थे और उनसे कई बड़ी सवारियाँ एक ही साथ बाहर निकल सकती थीं। कोसल के नरेश बहुत सज-धज कर बड़ी हाथियों की पीठ पर कसे हुये चाँदी या सोने के हौदों में बैठ कर बड़े ही शान के साथ बाहर निकला करते थे। चीनी यात्री [[फ़ाह्यान|फाहियान]] और [[हुएन-सांग|हुयेनसांग]] ने भी श्रावस्ती के दरवाजों का उल्लेख किया है। श्रावस्ती एक समृद्ध, जनाकीर्ण और व्यापारिक महत्त्व वाली नगरी भी। यहाँ मनुष्यों के उपभोग-परिभोग की सभी वस्तुएँ सुलभी थीं अत: इसे सावत्थी (सब्ब अत्थि) कहा जाता था।<ref>‘यं किं च मनुस्सान उपभोग- परिभोगं सब्बं एत्थ अत्थीति सावत्थो।’ एक किंवदंती के अनुसार एक बार काफिले वालों ने आकर यहाँ पूछा कि यहाँ क्या सामान है? (किं भण्डं अत्थि) इसके उत्तर में उनसे कहा गया ‘सब कुछ है।’ (सब्बं अत्थीति) ‘सब्बं अतीति वचनमुपादाय सावत्थि’  पपंचसूदनी, भाग 1, पृष्ठ 59-60</ref> पहले यह केवल एक धार्मिक स्थान था, किंतु कालांतर में इस नगर का समुत्कर्ष हुआ। [[जैन साहित्य]] में इसके लिए चंद्रपुरी<ref>जैन हरिवंशपुराण, पृष्ठ 717; देखें, विशुद्धानंद पाठक, हिस्ट्री आफ कोशल पृष्ठ 61</ref> तथा चंद्रिकापुरी नाम भी मिलते हैं। महाकाव्यों एवं [[पुराण|पुराणों]] में श्रावस्ती को [[राम]] के पुत्र [[लव]] की राजधानी बताया गया है। [[कालिदास]]<ref>कालिदास, रघुवंश, अध्याय 15, श्लोक 97; देखें, विशुद्धानंद पाठक, हिस्ट्री आफ कोशल, (मोलीलाल बनारसीदास, वाराणसी, 1963), पृष्ठ 59 </ref> ने इसे ‘सारावती’ नाम से अभिहित किया है। उच्चारण संबंधी समानता के आधार पर ‘श्रावस्ती’ और ‘सारावती’ दोनों एक ही प्रतीत होते हैं और एक निश्चित स्थान की तरफ इंगित भी करते हैं।
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==विकास==
 
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{{main|श्रावस्ती का विकास}}
श्रावस्ती न केवल बौद्ध और जैन धर्मों का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र था अपितु यह ब्राह्मण धर्म एवं [[वेद]] विद्या का भी एक महत्वपूर्ण केंद्र था। यहाँ वैदिक शिक्षा केंद्र के कुलपति के रूप में जानुस्सोणि का नामोल्लेख मिलता है।<ref>दीघनिकाय, (पालि टेक्स्ट सोसायटी, लंदन), भाग 1, पृष्ठ 235; सुमंगलविलासिनी, भाग 2, पृष्ठ 399; मच्झिमनिकाय, भाग 1, पृष्ठ 16</ref> कालांतर में बुद्ध के जीवन-काल से संबंधित तथा प्रमुख व्यापारिक मार्गों से जुड़े होने के कारण श्रावस्ती की भौतिक समृद्धि में वृद्धि हुई।<ref name= "उत्तर प्रदेश"/>
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हमारे कुछ प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार कोसल का यह प्रधान नगर सर्वदा रमणीक, दर्शनीय, मनोरम और धनधान्य से संपन्न था। इसमें सभी तरह के उपकरण मौजूद थे। इसको देखने से लगता था, मानो देवपुरी अलकनन्दा ही साक्षात धरातल पर उतर आई हो। नगर की सड़कें चौड़ी थीं और इन पर बड़ी सवारियाँ भली भाँति आ सकती थीं। नागरिक श्रृंगार-प्रेमी थे। वे [[हाथी]], घोड़े और पालकी पर सवार होकर राजमार्गों पर निकला करते थे। इसमें राजकीय कोष्ठागार<ref>कोठार</ref> बने हुये थे, जिनमें [[घी]], तेल और खाने-पीने की चीज़ें प्रभूत मात्रा में एकत्र कर ली गई थीं।<ref name="sravasti">{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हमारे पुराने नगर |लेखक=डॉ. उदय नारायण राय  |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=हिन्दुस्तान एकेडेमी, इलाहाबाद  |पृष्ठ संख्या=43-46 |url=}}</ref> वहाँ के नागरिक [[गौतम बुद्ध]] के बहुत बड़े [[भक्त]] थे। '[[मिलिन्दपन्ह|मिलिन्दप्रश्न]]' नामक ग्रन्थ में चढ़ाव-बढ़ाव के साथ कहा गया है कि इसमें [[भिक्कु|भिक्षुओं]] की संख्या 5 करोड़ थी। इसके अलावा वहाँ के तीन लाख सत्तावन हज़ार गृहस्थ [[बौद्ध धर्म]] को मानते थे। इस नगर में '[[जेतवन श्रावस्ती|जेतवन]]' नाम का एक उद्यान था, जिसे वहाँ के 'जेत' नामक राजकुमार ने आरोपित किया था। इस नगर का [[अनाथपिंडक]] नामक सेठ जो [[बुद्ध]] का प्रिय शिष्य था, इस उद्यान के शान्तिमय वातावरण से बड़ा प्रभावित था। उसने इसे ख़रीद कर बौद्ध संघ को दान कर दिया था।<ref name="sravasti"/> [[बौद्ध साहित्य|बौद्ध ग्रन्थों]] में कथा आती है कि इस पूँजीपति ने जेतवन को उतनी मुद्राओं में ख़रीदा था
 
 
==नगर का विकास==
 
[[चित्र:Stupas-Jetavana.jpg|thumb|250px|जेतवन स्तूप के अवशेष, श्रावस्ती]]
 
हमारे कुछ पुराने ग्रन्थों के अनुसार कोसल का यह प्रधान नगर सर्वदा रमणीक, दर्शनीय, मनोरम और धनधान्य से संपन्न था। इसमें सभी तरह के उपकरण मौजूद थे। इसको देखने से लगता था, मानों देवपुरी अकलनन्दा ही साक्षात धरातल पर उतर आई हो। नगर की सड़कें चौड़ी थीं और इन पर बड़ी सवारियाँ भली भाँति आ सकती थीं नागरिक श्रृंगार-प्रेमी थे। वे हाथी, घोड़े और पालकी पर सवार होकर राजमार्गों पर निकला करते थे। इसमें राजकीय कोष्ठागार (कोठार) बने हुये थे जिनमें घी, तेल और खाने-पीने की चीज़ें प्रभूत मात्रा में एकत्र कर ली गई थीं।
 
वहाँ के नागरिक गौतम [[बुद्ध]] के बहुत बड़े भक्त थे। 'मिलिन्दप्रश्न' नामक ग्रन्थ में चढ़ाव-बढ़ाव के साथ कहा गया है कि इसमें भिक्षुओं की संख्या 5 करोड़ थी। इसके अलावा वहाँ के तीन लाख सत्तावन हज़ार गृहस्थ बौद्ध धर्म को मानते थे। इस नगर में जेतवन नाम का एक उद्यान था जिसे वहाँ के जेत नामक राजकुमार ने आरोपित किया था। इस नगर का अनाथपिण्डिक नामक सेठ जो बुद्ध का प्रिय शिष्य था, इस उद्यान के शान्तिमय वातावरण से बड़ा प्रभावित था। उसने इसे ख़रीद कर बौद्ध संघ को दान कर दिया था। बौद्ध ग्रन्थों में कथा आती है कि इस पूँजीपति ने जेतवन को उतनी ही मुद्राओं में ख़रीदी थीं जितनी की बिछाने पर इसकी पूरी फर्श को भली प्रकार ढक देती थीं। उसने इसके भीतर  एक मठ भी बनवा दिया जो कि श्रावस्ती आने पर बुद्ध का विश्रामगृह हुआ करता था। इसे लोग 'कोसल मन्दिर' भी कहते थे। अनाथपिंडिक ने जेतवन के भीतर कुछ और भी मठ बनवा दिये जिनमें भिक्षु लोग रहते थे। इनमें प्रत्येक के निर्माण में एक लाख मुद्रायें ख़र्च हुई थीं। इसके अतिरिक्त उसने कूएँ, तालाब और चबूतरे आदि का भी वहाँ निर्माण करा दिया था। बौद्ध ग्रन्थों में वर्णन मिलता है कि जेतवन में रहने वाले भिक्षु सुबह और शाम राप्ती नदी में नहाने के लिये आते थे। लगता है कि यह उद्यान इसके तट के समीप ही कहीं स्थित था। अनाथपिंडिक ने अपने जीवन की सारी कमाई बौद्ध संघ के हित में लगा दी थी। उसके घर पर श्रमणों को बहुसंख्या में प्रति दिन यथेष्ट भोजन कराया जाता था। गौतम बुद्ध के प्रति श्रद्धा के कारण श्रावस्ती नरेशों ने इस नगर में दानगृह बनवा रखा था, जहाँ पर भिक्षुओं को भोजन मिलता था।
 
[[चित्र:Jetavana-Sravasti-2.jpg|thumb|250px|left|जेतवन, श्रावस्ती<br />Jetavana, Sravasti]]
 
 
 
==महाकाव्यों तथा पुराणों में वर्णित श्रावस्ती==
 
महाकाव्यों में श्रावस्ती का विशद वर्णन मिलता है। [[वायु पुराण]]<ref>कुशस्य कोशलो राज्यं पुरी वापि कुशस्थली। रम्या निर्मिता तेन विंध्यपर्वत सानुषु॥ उत्तर कोशले राज्ये लवस्य च महात्मन:। श्रावस्ती लोकविख्याता कुशवशं निबोधत॥ [[वायु पुराण]], अध्याय 88, 197-98</ref> और [[रामायण]]<ref>कोशलेष कुशम् वीरम् उत्तरेषु लवं तथा।  अभिषिज्य महात्मानावुभौ राम: कुशीलवौ॥ कुशस्य नगरी रम्या विंध्यपर्वत रोधसि।  कुशावतीति नाम्ना सा कृता रामेण धीमता ॥ श्रावस्तीति पुरी रम्या श्रावीता च लवस्य च। अयोध्यां विजना कृत्वा राधवो भरस्तदा॥ [[रामायण]], उत्तरकांड, सर्ग 1, 20-22</ref> में दो [[कोशल]] नगरों की चर्चा है:-
 
*उत्तर कोशल जिसकी राजधानी श्रावस्ती थी,
 
*दक्षिण कोशल जिसकी राजधानी कुशावती थी।
 
[[राम]] के शासन काल में इन दोनों राजधानियों का वर्णन मिलता है। राम ने अपने पुत्र [[लव]] को श्रावस्ती का और [[कुश]] को कुशावती का राजा बनाया था।<ref>मेमायर्स ऑफ़् दि आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया, भाग 50, पृष्ठ 7</ref> वर्तमान समय में श्रावस्ती बलरामपुर से 10 मील, [[अयोध्या]] से 58 मील तथा [[राजगीर]] से 720 मील दूर स्थित है।<ref>रामायण, उत्तरकांड, अध्याय 121; नंदूलाल डे, दि ज्योग्राफिकल डिक्शनरी आफ ऐंश्येंट एंड मिडिवल इंडिया, पृष्ठ 197</ref> [[मत्स्य पुराण|मत्स्य]], [[लिंग पुराण|लिंग]] और [[कूर्म पुराण|कूर्म पुराणों]] में श्रावस्ती को गौडा में स्थित बतलाया गया है, जिसका समीकरण कनिंघम ने आधुनिक गोंडा से किया है।<ref>ए. एनिंघम, दि ऐंश्येंट ज्योग्राफी आफ इंडिया, पृष्ठ 343</ref> श्रावस्ती की संस्थापना श्रावस्तक ने की थी। [[वायु पुराण]] के अनुसार श्रावस्तक के पिता का नाम अंध था।<ref>वायुपुराण, अध्याय 88, पृष्ठ 24-26; द्रष्टव्य, विष्णुपुराण, अध्याय 4, पृष्ठ 2-12</ref> मत्स्य<ref> मत्स्यपुराण, अध्याय 12, पृष्ठ 29-30</ref> और ब्रह्म पुराणों<ref>ब्रह्मपुराण, अध्याय 7, पृष्ठ 53;  द्रष्टव्य, मेमायर्स आफ आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया, संख्या 50. पृष्ठ 6</ref> में श्रावस्त (श्रावस्तक) को युवनाश्व का पुत्र और अद्र का पौत्र कहा गया है (वायुपुराण के अनुसार यह अंध्र तथा भागवत पुराण के अनुसार चंद्र था)।<ref>भागवतपुराण, अध्याय 9, पृष्ठ 20-21</ref> महाभारत में इनसे अलग सूचना मिलती है। इसमें श्रावस्तक को श्राव का पुत्र तथा युवनाश्व का पौत्र कहा गया है।<ref> महाभारत, वनपर्व, 20/3-4; 11/21-22</ref> कुछ पुराणों में श्रवस्तक (श्रावस्तक) को युवनाश्व का पुत्र और आद्र का पौत्र कहा गया है।<ref>ब्रह्मपुराण, 6, 53; मत्स्यपुराण, 12 29-30 26- मत्स्यपुराण, अध्याय 12, पृष्ठ 29-30</ref>
 
 
 
==जातकों में वर्णित श्रावस्ती==
 
[[चित्र:Gandhakuti-Jetavana-Vihara.jpg|गंधकुटी जेतवन विहार, श्रावस्ती|250px|thumb]]
 
जातकों में श्रावस्ती का विशद वर्णन मिलता है। इनके अनुसार श्रावस्ती का धार्मिक वायुमंडल बौद्ध धर्म से अधिक प्रभावत था। इस नगर में गौतम बुद्ध के अनेक व्याख्यान हुए थे, जिनसे प्रभावित होकर समस्त वर्गों के अनेक व्यक्तियों ने इस धर्म को अपना लिया था। नगर-श्रेष्ठी अनाथपिंडक बुद्ध का परम भक्त था। उसके घर में पाँच सौ भिक्षुओं के निमित्त प्रतिदिन भोजन तैयार कराया जाता था।<ref>जातक, भाग 4, पृष्ठ 91 (भदंत आनंद कौसल्यायन संस्करण</ref> कहा जाता है कि अनाथपिंडक ने अपने द्वारा बनवाए हुए सभी भवनों को बौद्ध संघ को समर्पित कर दिया था। समर्पण की यह क्रिया बड़े समारोह के साथ संपादित हुए थी। इसमें उसने 18 करोड़ मुद्राएँ व्यय की थीं।<ref>तत्रैव, भाग 1, पृष्ठ 92</ref> इन निवास गृहों में गंधकुटी, करेरिकुटी तथा कोसंबकुटी उल्लेखनीय हैं। कोसंबकुटी एवं करेरिकुटी का नामकरण उसके समीप करेरि और कोसंब वृक्षों के नाम के आधार पर हुआ।<ref> ‘करेरिमंडपो तस्सा कुटिकाय द्वारेथितो तस्मा करेरिकुटिकाय द्वारेथितो तस्म करेरिकुटिका ति वुच्चति’ ‘कोसंबरुक्खस्स द्वारे थित्तता कोसंबकुटिका ति’ सुगंलबिलासिनी, भाग 2, पृष्ठ 407</ref> गंधकुटी जेतवन के मध्य बनी हुई थी।<ref> तत्रैव, भाग 1, पृष्ठ 92 (सो मज्झे गंधकुटीं कारेसि</ref> पाटिकाराम नामक एक अन्य विहार भी श्रावस्ती के ही समीप था। जब सुनक्षत्र लिच्छवि पुत्र भिक्षु संघ को छोड़कर गया, तब भगवान् इस विहार में ही निवास कर रहे थे।<ref>तत्रैव, भाग 1, पृष्ठ 389</ref> एक अन्य विहार राजकाराम था जो पसेनादि (प्रसेनजित) द्वारा बनवाया गया था। यह नगर के दक्षिण-पश्चिम स्थित था।<ref>तत्रैव, भाग 2, पृष्ठ 15</ref> यहीं पर आम्रवनों के बीच एक बड़ा तालाब था जिसे जेतवन पोक्खरणि के नाम से जाना जाता था। इसके चारों तरफ उपवन इतने घने थे कि यह एक जंगल के समान प्रतीत होता था।<ref>जातक, भाग 4, पृष्ठ 228</ref> श्रावस्तीवासियों ने बुद्ध प्रमुख भिक्षु संघ को आतिथ्य सत्कार की इच्दा से दान दिया। उन्होंने विहार में एक धर्मघोष<ref>वह भिक्षु जो धर्मोपदेश की घोषणा किया करता था। </ref> नामक भिक्षु को नियुक्त किया।<ref>जातक, (भदंत आनंद कौसल्यायन संस्करण), खंड तृतीय, पृष्ठ 15</ref> श्रावस्ती से व्यापार का भी उल्लेख जातकों में आया है। व्यापारियों द्वारा एक पुराने जलाशय को खोदने से लोहा, जस्ता, शीशा, रत्न, सोना, मुक्ता और बिल्लौर आदि धातुएँ प्राप्त हुई थीं।<ref>तत्रैव, पृष्ठ 24 ‘जरुदपानं खणमाना, वाणिजा उदकत्थका  अजझगंसू अयोलोहं, तिपुसीसन्ची वाणिजा।  रतनं जातरूपंच मुक्ता बेकुरिया बाहु॥</ref> कुंभ जातक में श्रावस्ती में सामूहिक सुरा-उत्सव मनाने का उल्लेख मिलता है।<ref>तत्रैव, भाग 5, पृष्ठ 98</ref>
 
 
 
==बौद्ध साहित्य में श्रावस्ती==
 
बुद्ध काल में कोशल जैसे समृद्धशाली जनपद की राजधानी होने के कारण श्रावस्ती का ऊँचा स्थान था। साथ ही बौद्ध धर्म के प्रचार का प्रमुख केंद्र होने के कारण बौद्ध साहित्य में इस नगर का विशद वर्णन मिलता है। ललितविस्तर<ref>ललितविस्तर अध्याय 1</ref> के अनुसार श्रावस्ती कोशल जनपद की राजधानी थी। यह राजाओं, राजकुमारों, मंत्रियों, सभासदों तथा उनके समर्थकों-क्षत्रियों, ब्राह्मणों एवं गृहस्वामियों से भरी हुई थी।<ref>विमलचरण लाहा, श्रावस्ती इन इंडियन लिटरेचर, दि मेमायर्स आफ दि आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया भाग 50, पृष्ठ 20</ref> इस नगर के नागरिक तथागत के बड़े प्रशंसक थे। बौद्ध धर्म के प्रचार की ओर संकेत करते हुए मिलिंदपन्हों में भिक्षुओं की संख्या 5 करोड़ बतलायी गई है<ref>‘नगरे महाराज पंचकोटिमत्ता अरियसावका भगवती उपासक-उपासिकायो सत्तण्णा सहसानि तोझि सतहससानि अनागामि फले पतित्थिता ने सब्बेऽपि गिही न पच्चजिता।’ मिलिंदपन्हो, पृष्ठ 349</ref>, जो निश्चय ही अतिरंजना है। बुद्धघोष के अनुसार उस समय श्रावस्ती में 57 हज़ार परिवार निवास करते थे। <ref>परमत्थजोतिका, भाग 1, पृष्ठ 371; सामंतपासादिका, भाग 3, पृष्ठ 636</ref> इसी ग्रंथ में यहाँ की जनसंख्या 18 करोंड़ बताई गई है, जो स्पष्टत: अतिरंजित है।<ref> 46- भरतसिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल (हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, संवत् 2018), पृष्ठ 237</ref>
 
[[चित्र:Jetavan-Monastery-2.jpg|जेतवन मठ, श्रावस्ती|left|250px|thumb]]
 
====  व्यापार का केंद्र  ====
 
श्रावस्ती की भौतिक समृद्धि का प्रमुख कारण यह था कि यहाँ पर तीन प्रमुख व्यापारिक पथ मिलते थे जिससे यह व्यापार का एक महान केंद्र बन गया था। यह नगर पूर्व में [[राजगृह]] से, उत्तर-पश्चिम में [[तक्षशिला]] से और दक्षिण में प्रतिष्ठान से जुड़ा हुआ था।<ref>विशुद्धानंद पाठक, हिस्ट्री आफ कोशल, (मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी 1963), पृष्ठ 59</ref> राजगृह से 45 योजन दूर आकर बुद्ध (शास्ता) ने श्रावस्ती में विहार किया था।<ref>‘राजगंह कपिलवस्थुतो दूरं सट्ठि योजनानि, सावत्थि पन पंचदश।  सत्था राजगहतो पंचतालीसयोजनं आगन्त्या सावत्थियं विहरति।’ मच्झिमनिकाय, अट्ठकथा, 1/3/4</ref> श्रावस्ती से राजगृह का रास्ता वैशाली होकर गुजरता था। यह मार्ग सेतव्य, [[कपिलवस्तु]], कुशीनारा (<ref>कुशीनगर</ref>), पावा, भोगनगर और [[वैशाली]] से होकर जाता था।<ref>पावामोतीचंद्र, सार्थवाह, (बिहार राष्ट्र-भाषा परिषद, पटना, 1953), पृष्ठ 17</ref> प्रतिष्ठान को जाने वाला मार्ग साकेत, कोशांबी, विदिशा, गोनधा और उज्जैन से होकर गुजरता था। इस नगर का संबंध वाराणसी से भी था।<ref> सुत्तनिपात (सारनाथ संस्करण), पृष्ठ 212-13</ref> इन दोनों के मध्य कोटागिरी नामक स्थान पड़ता था।<ref>मच्झिमनिकाय, (पालि टेक्स्ट् सोसायटी, लंदन), भाग 1, पृष्ठ 473; मोतीचंद्र, सार्थवाह, पृष्ठ 17</ref> श्रावस्ती से तक्षशिक्षा का मार्ग सोरेय्य (सोरों) होते हुए जाता था। इस मार्ग में सार्थ निरंतर चलते रहते थे।<ref> भरतसिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृष्ठ 239</ref> इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रावस्ती का बौद्ध काल में भारत के सभी प्रमुख नगरों से घनिष्ट व्यापारिक संबंध था।
 
====पालि साहित्य में श्रावस्ती====
 
पालि साहित्य में विभिन्न नगरों से श्रावस्ती की दूरी दी हुई है, जिससे उसका व्यापारिक महत्त्व प्रकट होता है। श्रावस्ती से तक्षशिला 192 योजन<ref>‘वुक्कसाति नाम कुलपुत्रो (तक्कसलातो) अट्ठ हि उनकानि योजनसतानि गतो जेतवनद्वारकोठकस्थ पर समीपे गच्छत्तो’ मच्झिमनिकाय, अट्ककथा, 3/4/10</ref>, संकाश्य (संकीसा) से 30 योजन<ref>‘सावत्थितो संकस्य नगरं तिसयोजनानि’ धम्मपद अट्ठकथा, 14/2</ref>, साकेत 6 योजन, राजगृह 60 योजन, मच्छिकासंड 30 योजन<ref>राहुल सांकृत्यायन, पुरातत्त्व निबंधावली, पृष्ठ 20</ref> उग्रनगर 120 योजन तथा चंद्रभागा नदी (चेनाव) 120 योजन<ref>‘वीसं योजनसतं पच्चुग्गत्वा चंद्रभागाय नदियातोरे’ धम्मपद अट्ठकथा 6/4</ref> पर थी। प्राचीन भारत में ‘योजन’ की माप निश्चित न होने के कारण श्रावस्ती से इन स्थानों की वास्तविक दूरी निश्चित करना कठिन है।
 
 
 
श्रावस्ती से भगवान बुद्ध के जीवन और कार्यों का विशेष संबंध था। उल्लेख्य है कि बुद्ध ने अपने जीवन के अंतिम पच्चीस वर्षों के वर्षावास श्रावस्ती में ही व्यतीत किए थे। बौद्ध धर्म के प्रचार की दृष्टि से भी श्रावस्ती का महत्त्वपूर्ण स्थान था। भगवान् बुद्ध ने प्रथम निकायों के 871 सुत्तों का उपदेश श्रावस्ती में दिया था, जिनमें 844 जेतवन में, 23 पुब्बाराम में और 4 श्रावस्ती के आस-पास के अन्य स्थानों में उपदिष्ट किए गए।<ref>भरतसिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृष्ठ 237</ref> बौद्ध धर्म प्रचार केंद्र के रूप में श्रावस्ती की ख्याति का ज्ञान यहाँ उपदिष्ट सूत्रों के आधार पर निश्चित हो जाता है।
 
====जेतवन====
 
[[चित्र:Jetavana.jpg|जेतवन, श्रावस्ती|250px|thumb]]
 
बुद्ध के जीवन-काल में श्रावस्ती के दक्षिण में स्थित जेतवन एवं पुब्बाराम दो प्रसिद्ध वैहारिक अधिष्ठान एवं बौद्धमत के प्रभावशाली केंद्र थे। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार जेतवन का आरोपण, संवर्धन तथा परिपालन जेत नामक एक राजकुमार द्वारा किया गया था।<ref>तंहि जेतेन राजकुमारेन रोपितं संवर्द्धिंत परिपालित। सो च तस्सि सामी अहोसि, तस्मा, जेतवने ति वुच्चति॥ पपंचसूदनी, भाग 1, पृष्ठ 60</ref> राजगृह मे वेणुवन और वैशाली के महावन के ही भाँति जेतवन का भी विशेष महत्त्व था।<ref>उदयनारायण राय, प्राचीन भारत में नगर तथा नगर जीवन, पृष्ठ 118</ref> इस नगर में निवास करने वाले अनाथपिंडक ने जेतवन में विहार (भिक्षु विश्राम स्थल), परिवेण (आँगनयुक्त घर), उपस्थान शालाएँ (सभागृह), कापिय कुटी (भंडार), चंक्रम (टहलने के स्थान), पुष्करणियाँ और मंडप बनवाए।<ref>विनयपिटक (हिन्दी अनुवाद), पृष्ठ 462; बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृष्ठ 240; तुल. विशुद्धानन्द पाठक, हिस्ट्री आफ कोशल, (मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी, 1963), पृष्ठ 61</ref> अनाथपिंडक के निमंत्रण पर भगवान बुद्ध श्रावस्ती स्थित जेतवन पहुँचे। अनाथापिण्डक ने उन्हें खाद्य भोज्य अपने हाथों से अर्पित कर जेतवन को बौद्ध संघ कोदान कर दिया। इसमें अनाथ पिंडक को 18 करोड़ मुद्राओं को व्यय करना पड़ा था। उल्लेखनीय है कि इस घटना का अंकन भरहुत कला में भी हुआ है।<ref>बरुआ, भरहुत, भाग 2, पृष्ठ 31</ref> तथागत ने जेतवन में प्रथम वर्षावास बोधि के चौदहवें वर्ष में किया था। इससे यह निश्चित होता है कि जेतवन का निर्माण इसी वर्ष (514-513 ई. वर्ष पूर्व) में हुआ होगा। उल्लेखनीय है कि जेतवन के निर्माण के पश्चात् अनाथपिण्डक ने तथागत को निमंत्रित किया था।
 
 
 
====पुब्बाराम ====
 
जेतवन के पश्चात दूसरा महत्त्वपूर्ण स्थान पुब्बाराम (पूर्वाराम) था। इसका निर्माण नगर के एक प्रमुख धनिक सेठ मिगार (मृगधर) की पुत्रवधू विशाखा ने कराया था। यह नगर के पूर्वी द्वार के पास स्थित था।<ref>धम्मपदटीका, भाग 1, पृष्ठ 384; अंगुत्तरनिकाय, प्रथम भाग (हिन्दी अनुवाद, भदंत आनंद कौसल्यायन, महाबोधि सभा, कलकत्ता 1957, पृष्ठ 212 मेमायर्स आदि दि आर्कियोलाजिक सर्वे आफ इंडिया भाग 50, पृष्ठ 25</ref> संभवत: इसीलिए इसका नाम पूर्वाराम पड़ा। इसके निर्माण तथा समर्पण में लगभग 27 करोड़ मुद्राओं का व्यय करना पड़ा था। यह लकड़ी (रुक्ख) तथा पत्थर द्वारा निर्मित था, जिसमें दो मंजिलें थीं।<ref>राहुल सांकृत्यायन, पुरातत्व निबंधावली, पृष्ठ 79</ref> पूर्वाराम विहार की आधुनिक स्थिति सहत-महेत के पास उनके पूर्व का हनुमनवा स्थान है।
 
====नगर का वर्णन====
 
इसके अतिरिक्त बौद्ध साहित्य में मल्लिकाराम का निर्माण प्रसेनजित की महारानी मल्लिका द्वारा किया गया था। यह एक परिब्राजकाराम था; जहाँ विभिन्न सम्प्रदायों के मध्य शास्त्रार्थ होता था। तीर्थकाराम एक बड़ा आराम था जिसमें 700 से 3000 तक परिब्राजक निवास कर सकते थे। इस नगर की परिखा, प्राकार एवं नगर द्वार के विषय में प्राचीन ग्रंथों में उल्लेख मिलते हैं। उस समय भवन निर्माण में मुख्यत: लकड़ी का उपयोग होता था। नगर के चारों ओर मिट्टी के प्राकार बने थे। नगर के द्वार एवं राजमार्ग पर्याप्त चौड़े थे। संयुक्त-निकाय में उल्लेख है कि यहाँ के नागरिक हाथी (हत्थिखंडम् भारोहेय्य) राजमार्गों पर निकलते थे।<ref>मज्झिमनिकाय, भाग 2, पृष्ठ 22</ref> श्रावस्ती में मूख्यत: चार दरवाजे थे, जिनमें तीन तो उत्तर-पूर्व एवं दक्षिण दरवाजों के नाम से प्रसिद्ध थे। इनमें से जेतवन से नगर में आने का प्रवेश द्वार दक्षिण द्वार था। पूर्वाराम पूर्व दरवाजे के सामने था। इनके अतिरिक्त पश्चिम दरवाजे का होना भी स्वाभाविक है तथापि इसका वर्णन त्रिपिटक या अट्ठकथा में नहीं मिलता। उल्लेखनीय है इन प्रवेश-द्वारों के अतिरिक्त उत्खनन से कई अन्य प्रवेश द्वारों का भी पता चला है लेकिन ये दरवाजे वास्तविक नहीं थे। बल्कि समय-समय पर प्राकारों के बिर जाने के कारण सुविधानुसार प्रयोग में लाए गए स्थानापन्न दरवाजे थे।<ref>देखें, आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-08, पृष्ठ 84</ref>
 
[[चित्र:Shobhnath-Temple.jpg|शोभनाथ मन्दिर, श्रावस्ती|left|250px|thumb]]
 
==अन्य प्रसिद्ध स्थान==
 
इस नगर के अन्य प्रसिद्ध स्थानों में पूर्वाराम और मल्लिकाराम उल्लेखनीय हैं। पूर्वाराम का निर्माण नगर के धनिक सेठ मृगधर की पुत्रवधु विशाखा के द्वारा कराया गया था। यह नगर के पूर्वी दरवाजे के पास बना था। संभवत: इसीलिये इसका नाम पूर्वाराम (अर्थात पूरबी मठ) पड़ा। यह दो मंज़िला भवन था, जिसमें मज़बूती लाने के लिये पत्थरों की चुनाई की गई थी। लगता है कि मल्लिकाराम इससे बड़ा विश्राम-भवन था, जिसमें ऊपर और नीचे कई कमरे थे। इसका निर्माण श्रावस्ती की मल्लिका नाम की साम्राज्ञी के द्वारा कराया गया था। नगरों में आने वाले बौद्ध परिब्राजक, निर्ग्रन्थ, [[जैन]] साधु-संन्यासी और नाना धर्मों के अनुयायियों के विश्राम तथा भोजन-वस्त्र की पूरी सुख-सुविधा थी। गौतम बुद्ध के प्रिय शिष्य [[आनन्द]], सारिपुत्र, मौद्गल्यायन तथा [[महाकाच्यायन|महाकाश्यप]] आदि ने भी वहाँ के नागरिकों को अपने सदुपदेशों से प्रभावित किया था। उनकी अस्थियों के ऊपर यहाँ स्तूप बने हुये थे। अशोक धर्म-यात्रा के प्रसंग में श्रावस्ती आया हुआ था। उसने इन स्तूपों पर भी पूजा चढ़ाई थी।<ref name= "उत्तर प्रदेश"/>
 
==जैन धर्म==
 
[[चित्र:Jetavana-Sravasti-1.jpg|thumb|250px|जेतवन, श्रावस्ती<br />Jetavana, Sravasti]]
 
इस नगर में [[जैन]] मतावलंबी भी रहते थे। इस धर्म के प्रवर्तक [[महावीर]] स्वामी वहाँ कई बार आ चुके थे। नागरिकों ने उनका दिल खोल कर स्वागत किया और अनेक उनके अनुयायी बन गये। वहाँ पर ब्राह्मण मतावलंबी भी मौजूद थे। [[वेद|वेदों]] का पाठ और यज्ञों का अनुष्ठान आदि इस नगर में चलता रहता था। मल्लिकाराम में सैकड़ों ब्राह्मण साधु धार्मिक विषयों पर वादविवाद में संलग्न रहा करते थे। विशेषता यह थी कि वहाँ के विभिन्न धर्मानुयायियों में किसी तरह के सांप्रदायिक झगड़े नहीं थे।
 
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लगता है कि जैसे-जैसे कोसल-साम्राज्य का अध:पतन होने लगा, वैसे-वैसे श्रावस्ती की भी समृद्धि घटने लगी। जिस समय चीनी यात्री [[फ़ाह्यान|फाहियान]] वहाँ पहुँचा, उस समय वहाँ के नागरिकों की संख्या पहले की समता में कम रह गई थी। अब कुल मिला कर केवल दो सौ परिवार ही वहाँ रह गये थे। पूर्वाराम, मल्लिकाराम और जेतवन के मठ खंडहर को प्राप्त होने लगे थे। उनकी दशा को देखकर वह दुखी हो गया। उसने लिखा है कि श्रावस्ती में जो नागरिक रह गये थे, वे बड़े ही अतिथि-परायण और दानी थे। [[हुएन-सांग|हुयेनसांग]] के आगमन के समय यह नगर उजड़ चुका था। चारों ओर खंडहर ही दिखाई दे रहे थे। वह लिखता है कि यह नगर समृद्धिकाल में तीन मील के घेरे में बसा हुआ था। आज भी अगर आप को गोंडा ज़िले में स्थित सहेट-महेट जाने का अवसर मिले, तो वहाँ श्रावस्ती के विशाल खंडहरों को देख कर इसके पूर्वकालीन ऐश्वर्य का अनुमान आप लगा सकते हैं।
 
==जैन ग्रंथों में वर्णित श्रावस्ती==
 
बौद्ध मतावलंबियों की भाँति जैन धर्मानुयायी भी इस नगर को इस प्रमुख धार्मिक स्थान मानते थे। वे इसे चंद्रपुरी या चंद्रिकापुरी के नाम से अभिहित करते थे। [[जैन धर्म]] के प्रचार कंद्र के रूप में भी यह विख्यात था। श्रावस्ती जैन धर्म के तीसरे तीर्थंकर संभवनाथ<ref>जैन हरिवंशपुराण, पृष्ठ 717</ref> व आठवें तीर्थंकर चंद्रप्रभानाथ<ref>एस. स्टीवेंसन, हार्ट आफ जैनिज्म, (दिल्ली, 1970) पृष्ठ 42</ref> की जन्मस्थली थी। [[महावीर]] ने भी यहाँ एक वर्षावास व्यतीत किया था।<ref>सी. जे. शाह, जैनिज्म इन नार्थ इंडिया, पृष्ठ 26</ref> जैन साहित्य में सावत्थि अथवा सावत्थिपुर के प्रचुर उल्लेख मिलते हैं। तृतीय तीर्थंकर संभवनाथ के गर्भ, जनम, तप और केवल ज्ञान कल्याणक यहीं संपन्न हुए थे। एक मत के मतानुसार श्रीवास्त द्वारा इस नगर की स्थापना की गई और इन्हीं के नाम पर इसका श्रावस्ती नाम पड़ा।<ref>कोशल, रिसर्च आफ दि इंडियन रिसर्च सोसायटी आफ अवध, भाग 3, पृष्ठ 23</ref> श्रावस्ती के महाश्रेष्ठि नंदिनीप्रिय, नागदत्त आदि से जैन धरृम के अध्ययनार्थ श्रावस्ती में लोग दूर-दूर से आते थे। इसमें कश्यप के पुत्र कपिल एवं जैन विद्वान केशी के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।<ref>तत्रैव, पृष्ठ 24</ref>
 
जैन ग्रंथ भगवती सूत्र (320 ई.पू. से 600 ई. से मध्य) के अनुसार श्रावस्ती नगर आर्थिक क्षेत्र में भौतिक समृद्धि के चरमोत्कर्ष पर थी। यहाँ के व्यापारियों में शंख और मक्खलि मुख्य थे जिन्होंने यहाँ के नागरिकों के भौतिक समृद्धि के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था।<ref>योगेन्द्र चंद्र शिकदार, स्टडीज इन भगवती सूत्राज, (रिसर्च इंस्टीट्यूट आफ प्राकृत जैनोलाजी एंड अहिंसा, मुजफ्फरपुर, 1964), पृष्ठ 307</ref>
 
 
 
इस नगर में एक बहुत ही धनी श्रेष्ठि मिगार था जो जैन धर्म का प्रबल समर्थक था जबकि उसकी पुत्रवधू विशाखा बौद्ध धर्म की अनुयायी थी।<ref>के.सी.जैन, लार्ड महावीर एंड हिज टाइंस, पृष्ठ 63</ref> भगवती मूत्र से पता चलता है कि आजीवक संप्रदाय का प्रधान मक्खलिपुत्र गोशाल महावीर का शिष्य था। जैने स्रोतों से पता चलता है कि कालांतर में श्रावस्ती आजीवक संप्रदाय का एक प्रमुख केंद्र बन गया। हरमन जैकोबी<ref>हरमन याकोबी, से.बु.ई. (जैन सूत्राज), मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 1964, पुनर्मुद्रित), भाग 45, पृष्ठ 30</ref> और बी.एम. बरुआ<ref>बेनी माधव बरुआ, एक हिस्ट्री आफ बुद्धिस्टिक इंडियन फिलासफी, पृष्ठ 300</ref> का मत है कि कुछ दिनों तक महावीर, मक्खलिपुत्र गोशाल के शिष्य थे। मक्खलिपुत्र गोशाल का जन्म श्रावस्ती में हुआ था। गोशाल महावीर से उम्र में बड़ा था। बाद में सिद्धांतीय मतभेदों के कारण गोशाल ने महावीर का साथ छोड़ दिया और आजीवक संप्रदाय के प्रमुख के रूप में श्रावस्ती में 16 वर्ष व्यतीत किए।<ref>के.सी. जैन, लार्ड महावीर एंड हिज टाइंस, पृष्ठ 165</ref>
 
====संभवनाथ का मंदिर====
 
ईसा के पूर्व ही यहाँ संभवनाथ का एक मंदिर निर्मित हुआ था। फाह्यान ने जब श्रावस्ती की यात्रा की थी उस समय इस मंदिर का अवशेष मात्र शेष था। इस स्थल पर उत्खनन से एक नवीन जैन-मंदिर (शोभनाथ) के अवशेष मिले हैं, जिसकी ऊपरी बनावट से यह मध्य युग का प्रतीत होता था। साथ ही बहुत सी जैन प्रतिमाएँ भी मिली हैं।<ref>जर्नल ऑफ़ दि रायल एशियाटिक सोसायटी, 1908, पृष्ठ 102</ref> यह नगर अधिक समय तक श्वेतांबर जैन श्रमणों की केंद्र-स्थली था, किन्तु बाद में यह दिगंबर संप्रदाय का केंद्र बन गया।<ref>वृहत्कथाकोश (ए. एन. उपाध्याय द्वारा संपादित), पृष्ठ8, 348</ref>
 
====फाह्यान का इतिवृत्त====
 
फाह्यान साकेत से दक्षिण दिशा की ओर आठ योजन चलकर कोशल<ref>इस नाम के दो भारतीय राज्य थे- उत्तरी एवं दक्षिणी कोशल। यह उत्तरी कोशल था जो कि आधुनिक अवध का एक भाग था। </ref> जनपद के नगर श्रावस्ती<ref>इसका आधुनिक समीकरण सहेत-महेत हैं; द्रष्टव्य, जेम्स लेग्गे, दि ट्रैवेल्स् आफ फाह्यान, (ओरियंटल पब्लिशर्स, दिल्ली, 1972), पृष्ठ 56</ref> में पहुँचा था। फाह्यान लिखता है कि नगर में अधिवासियों की संख्या कम है और वे बिखरे हुए हैं। उसकी यात्रा के दौरान यहाँ पर सब मिलाकर केवल दो सौ परिवार ही रह गए थे। वह आगे लिखता है कि इस नगर में प्राचीन काल में राजा प्रसेनजित<ref>यह राजा गौतम बुद्ध का समकालीन था। </ref> राज्य करते थे। यहाँ पर महा प्रजापति का प्राचीन विहार विद्यमान है। नगर के दक्षिणी द्वार के बाहर 1200 क़दम की दूरी पर वह स्थान है जहाँ वैश्याधिपति अनाथपिंडक (सुदत्त) ने एक विहार बनवाया था। जेवतन विहार से उत्तर-पश्चिम चार ली की दूरी पर ‘चक्षुकरणी’ नामक एक वन है, जहाँ जन्मांध लोगों को श्री बुद्धदेव की कृपा से ज्योति प्राप्त हुई थी। जेतवन संघाराम के श्रमण भोजनांतर प्राय: इस वन में बैठकर ध्यान लगाया करते थे। फाह्यान के अनुसार जेतवन विहार के पूर्वोत्तर 6.7 ली की दूरी पर माता विशाखा द्वारा निर्मित एक विहार था।<ref>जेम्स लेग्गे, दि ट्रेवल्स आफ फाह्यान, पृष्ठ 59</ref>
 
 
 
फाह्यान पुन: लिखता है कि जेतवन विहार के प्रत्येक कमरे में, जहाँ कि भिक्षु रहते है, दो-दो दरवाजे हैं; एक उत्तर और दूसरा पूर्व की ओर। वाटिका उस स्थान पर बनी है जिसे सुदत्त ने सोने की मुहरें बिछाकर खरीदा था। बुद्धदेव इस स्थान पर बहुत समय तक रहे और उन्होंने लोगों को धर्मोपदेश दिया। बुद्ध ने जहाँ चक्रमण किया, जिस स्थान पर बैठे, सर्वत्र स्तूप बने हैं, और उनके अलग-अलग नाम है। यहीं पर सुंदरी ने एक मनुष्य का वध करके श्री बुद्धदेव पर दोषारोपण किया था।<ref>जेम्स लेग्गे, दि ट्रैवेल्स आफ फाह्यान, पृष्ठ 60</ref> फाह्यान आगे उस स्थान को इंगित करता है जहाँ पर श्री बुद्धदेव और विधर्मियों के बीच शास्त्रार्थ हुआ था। यहाँ एक 60 फुट ऊँचा विहार बना हुआ था।
 
====ह्वेनसाँग का इतिवृत्त====
 
[[चित्र:Anathapindika-Stupa.jpg|अनाथपिण्डिक स्तूप, श्रावस्ती|250px|thumb]]
 
ह्वेनसाँग लिखता है कि विशोका ज़िले से 500 ली (100 मील) उत्तर-पूर्व श्रावस्ती देश स्थित था। यह देश 6000 ली परिधि में फैला हुआ था। इस समय यह नगर पूर्णत: विनष्ट एवं जनशून्य हो गया था। जिससे इसकी सीमा निर्धारित करना कठिन है। नगर के दीवारों की परिधि नगभग 20 ली में फैली थी।<ref>थामस् वाटर्स, आन् युवान् व्चाँग्स् टैवेल्स इन इंडिया (पुनर्मुद्रित, मुंशीराम मनोहरलाल, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1961), भाग 1, पृष्ठ 377</ref> यहाँ की जलवायु अनुकूल थी और अन्नादि की उपज अच्दी होती थी। प्रकृति उत्तम और स्वाभावानुकूल थी तथा मनुष्य शुद्ध आचरण वाले व धर्मिष्ठ थे। यहाँ कई सौ संघाराम थे, जिनमें से अधिकांशत: विनष्ट हो गए हैं। इसके अतिरिक्त 100 देव मंदिर भी हैं, जिसमें असंख्य धर्मावलंबी उपासना करते थे। ह्वेनसाँग के अनुसार राजधानी के पूर्व थोड़ी दूरी पर एक छोटा-सा स्तूप है जो प्रसेनजित द्वारा भगवान बुद्ध के लिए बनवाया गया था। इसके पार्श्व में एक अन्य स्तूप है। यह उसी स्थान पर बना है जहाँ [[अंगुलिमाल]] ने नास्तिकता का परित्याग कर बौद्ध धर्म को अंगीकृत किया था।<ref>सेमुअल बील, जाइनीज् एकाउंट्स आफ इंडिया, भाग 3 (कलकत्ता, 1958), पृष्ठ 260</ref> नगर से 5-6 ली दक्षिण जेतवन है जहाँ सुदत्त (अनाथपिंडाद)<ref>सुदत्त का नाम अनाथपिंडाद भी लिखा है, अर्थात् अनाथ और दीन पुरुषों का मित्र।</ref> द्वारा भगवान बुद्ध के लिए विहार एवं मंदिर बनवाए गए थे। प्राचीन काल में यहाँ एक [[संघाराम]] भी था जो ह्वेनसाँग के समय में पूर्णत: नष्ट हो गया था।<ref>थामस् वाटर्स, आन युवान च्वाँग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 1, पृष्ठ 382</ref>
 
 
 
ह्वेनसाँग के अनुसार जेतवन मठ के पूर्वी प्रदेश-द्वार पर दो 70 फुट ऊँचे प्रस्तर स्तंभ थे। इन स्तंभों का निर्माण अशोक ने करवाया था। बाएँ खंभे में विजय प्रतीक स्वरूप चक्र तथा दाएँ खम्भे पर बैल की आकृति बनी हुई थी।<ref>तत्रैव, पृष्ठ 383</ref> ह्वेनसाँग आगे लिखता है कि अनाथपिंडाद विहार के उत्तर-पूर्व एक स्तूप है, वह यह वह स्थान है जहाँ भगवान बुद्ध ने एक रोगी भिक्षु को स्नान कराकर रोग-निवृत्त किया था।<ref>तत्रैव, पृष्ठ 387</ref> स्तूप के निकट ही एक कूप है जिसमें से तथागत अपनी आवश्यकता के लिए जल लिया करते थे। इसके समीप अशोक निर्मित एक स्तूप है, जिसमें बुद्ध के अस्थि अवशेष रखे गए थे। इसके अतिरिक्त यहाँ पर कई ऐसे स्थल हैं जहाँ पर बुद्धदेव के टहलने और धर्मोपदेश करने के स्थानों पर स्तूप बने हुए हैं।
 
 
 
ह्वेनसाँग पुन: लिखता है कि जेतवन मठ के 60-70 क़दम की दूरी पर 60 फुट ऊँचा एक विहार है जिसमें पूर्वाभिमुख बैठी हुई भगवान् बुद्ध की एक मूर्ति है। भगवान बुद्ध ने यहाँ पर विरोधियों से शास्त्रार्थ किया था। इस विहार के 5-6 ली पूर्व दिशा में एक स्तूप है जहाँ सारिपुत्र ने तीर्थकों से शास्त्रार्थ किया था।<ref>तत्रैव, पृष्ठ 394</ref> इस स्तूप के पार्श्व में एक मंदिर है जिसके सामने एक बुद्ध स्तूप है। जेतवन विहार के 3-4 ली उत्तर-पूर्व आप्तनेत्रवन नामक एक जंगल था। इस स्थल पर तथागत भगवान तपस्या करने के लिए आए थे। इसके स्मृतिस्वरूप श्रद्धालुओं ने यहाँ शिलालेखों एवं स्तूपों का निर्माण करवाया था।<ref>थामस वाटर्स, आन युवॉन च्वाँग्स ट्रैवेल्स इन इंडिया, भाग 1, पृष्ठ 397</ref> नगर के दक्षिण एक स्तूप है, यह वन स्थान है जहाँ बुद्ध ज्ञान प्राप्त करके अपने पिता से मिले थे। नगर के उत्तर में भी एक स्तूप है जहाँ बुद्ध के स्मृति अवशेष संगृहीत हैं। ये दोनों स्तूप सम्राट अशोक द्वारा बनवाए गए थे।<ref>तत्रैव, पृष्ठ 400</ref>
 
==पुरातत्त्व में श्रावस्ती==
 
श्रावस्ती के प्राचीन इतिहास को प्रकाश में लाने के लिए प्रथम प्रयास जनरल [[कनिंघम]] ने किया। उन्होंने सन 1863 ई. में उत्खनन प्रारंभ करके लगभग एक वर्ष के कार्य में जेतवन का थोड़ा भाग साफ कराया। इसमें उनको एक बोधिसत्व की 7 फुट 4 इंच ऊँची प्रतिमा प्राप्त हुई जिस पर अंकित लेख से इसका श्रावस्ती विहार में स्थापित होना ज्ञात होता है। यह मूर्ति भिक्षुबल द्वारा कोसंबकुट्टी के विहार में स्थापित की गई थी। इस प्रतिमा के अधिष्ठान पर अंकित लेख में तिथि नष्ट हो गई है, परंतु लिपिशास्त्र के आधार पर यह लेख कुषाण-काल का प्रतीत होता है।<ref>उल्लेखनीय है कि इसी प्रकार की बोधिसत्त्व की एक और लेखयुक्त प्रतिमा सारनाथ से मिली है जो इसी भिक्षु बल द्वारा कनिष्क के राज्यकाल के तृतीय वर्ष में स्थापित की गई थी। अत: यह प्रतिमा प्रारंभिक कुषाणकाल की प्रतीत होती है।  देखें, ब्लाक, जर्नल ऑफ़ दि रायल एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल, भाग 67 (1898), प्लेट 1, पृष्ठ 274 और आगे (प्लेट के साथ)। एपिग्राफिया इंडिका, भाग 8 (1905-06), पृष्ठ 179 और आगे (प्लेट के साथ)।</ref> कनिंघम ने इस आधार पर सहेत के क्षेत्र को जेतवन और महेत के क्षेत्र को श्रावस्ती से समीकृत किया था।<ref>ए. कनिंघम, आर्कियोलाजिकल सर्वे रिपोटर्स भाग 1, पृष्ठ 377 और आगे।</ref> कनिंघम के अनुकरण पर डब्ल्यू. सी. बेनेट ने पक्की कुटी टीले की कुछ खुदाई करवाई थी।<ref>बेनेट के उत्खनन के लिए द्रष्टव्य, गजेटियरऑफ़ दि प्राविंसऑफ़ अवध (इलाहाबाद, 1878), पृष्ठ 286</ref> चीनी यात्रियों के यात्रा विवरणों के आधार पर इस टीले का समीकरण कनिंघम ने अंगुलिमाल स्तूप<ref>पूर्ववर्ती लेखक इसे अंगुलिमालिय स्तूप कहते हैं, जबकि इसका सही प्राकृत रूप अंगुलिमाल होना चाहिए।  देखें, जातक, (फाउसबोल संस्करण), भाग 5, पृष्ठ 466</ref> से किया था।
 
 
 
सन् 1876 ई. में कनिंघम ने इन स्थानों की खुदाई पुन: आरंभ करवाई, जिसमें 16 इमारतों की नीवें प्रकाश में आईं। इनमें अधिकांश स्तूप और परवर्ती काल के मंदिर थे।<ref>ए. कनिंघम, आर्कियोलाजिकल सर्वे रिपोटर्स, भाग 11, पृष्ठ 78</ref> इस बार उनको यहाँ से सिक्के और मृण्मूर्तियाँ भी मिलीं। उत्खनन से यह निश्चित हुआ कि जिस स्थान पर बोधिसत्व की विशाल मूर्ति मिली थी, वहाँ कोशंब-कुट्टी नामक विहार था। उसी के उत्तर में गंधकुटी अथवा मुख्य विहार था।
 
====डब्ल्यू. होवी का उत्खनन====
 
[[चित्र:Jetavana-Vihara-Sravasti.jpg|जेतवन विहार के अवशेष, श्रावस्ती|250px|thumb]]
 
कनिंघम के सहेत में उत्खनन के समय (1875-76) डब्ल्यू. होवी ने महेत में खुदाई की। इसमें उन्हें महेत के पश्चिम में स्थित शोभनाथ जैन मंदिर के खंडहरों में कुछ मूर्तियाँ मिली।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वेऑफ़ इंडिया, (वार्षिक रिपोर्ट), 1907-08, पृष्ठ 83</ref> श्री होवी ने इस क्षेत्र का गहन अन्वेषण 15 दिसम्बर 1884 से 15 मई 1885 तक किया तथा इसे क्षेत्र में बड़ी संख्या में स्मारकों का पता लगाया। अपनी रिपोर्ट में<ref>जर्नलऑफ़ एशियाटिक सोसायटीऑफ़ बंगाल (1892), प्लेट 1, अतिरिक्त संख्या (भाग 61</ref> होवी ने कुछ स्मारकों का समीकरण चीनी यात्रियों द्वारा वर्णित स्मारकों से करने का प्रयास किया, पंरतु अधिकांश स्मारकों के विषय में प्रर्याप्त प्रमाण का अभाव है। होवी द्वारा उत्खनित वस्तुओं में कुछ निम्नलिखित हैं<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वेऑफ़ इंडिया, (वार्षिक रिपोर्ट), 1907-8, पृष्ठ 131-132</ref>-
 
*संवत् 1176 (1119 ई.) का एक शिलालेख।<ref>इस शिलालेख पर 18 पंक्तियों में देवनागरी लिपि एवं संस्कृत भाषा में एक लेख खुदा हुआ है। लेख भगवान् बुद्ध की वंदना से प्रांरभ होता है, जिसे छोड़कर शेष संपूर्ण लेख छंदों में हैं। </ref>
 
*गुप्तलिपि में अभिलिखित एक लाल रंग का बलुए पत्थर का टुकड़ा।
 
*जैन तीर्थंकरों की मूर्तियों पर अंकित दो अभिलेखों के छ: टुकड़े।
 
*एक प्राचीन दावात।
 
*एक अग्निमुख नाग की काँसे की प्रतिमा
 
*कच्ची मिट्टी की दस मुहरें। ये सभी बौद्ध धर्म संबंधित हैं।
 
*कच्ची मिट्टी की 500 मुहरें।
 
*कर्नेकी (संभवत: कनिष्क) की एक तांबे की मुद्रा।
 
==== जे.पी.एच.फोगल तथा श्री दयाराम साहनी का उत्खनन====
 
होवी के उत्खनन के 23 वर्ष उपरांत फरवरी-अप्रैल 1908 ई. में जे.पी.एच.फोगल तथा री दयाराम साहनी ने उत्खनन किया। फोगल ने महेत के प्राचीर की दीवारों और उसके प्रवेश-द्वारों की खोज की तथा उसके विस्तार को निरूपित किया। महेत के प्रमुख टीलों में उन्होंने पक्की कुटी, कच्ची कुटी और शोभनाथ मंदिर की खोज की। कच्ची कुटी में विशेष रूप से मिट्टी की मूर्तियाँ, खिलौने आदि मिले, जिनका कलात्मक एवं ऐतिहासिक दोनों महत्व है। शोभनाथ मंदिर से अनेक जैन मूर्तियाँ भी प्राप्त हुईं। सहेत के क्षेत्र से भी अनेक विहारों, स्तूपों और मंदिरों की रूपरेखा स्पष्ट की गई और बुद्ध तथा बोधिसत्व की मूर्तियाँ, सिक्के, मृण्मूर्तियाँ व मुहरें निकाली गईं।<ref>विस्तार के लिए द्रष्टव्य, आर्कियोलाजिकल सर्वेऑफ़ इंडिया (एनुअल रिपोर्ट), 1907-08, पृष्ठ 117</ref> इन वस्तुओं में सबसे महत्त्वपूर्ण [[कन्नौज]] के राजा गोविदचंद्र का एक दानपत्र है। इसी लेख के आधार पर विद्वानों ने सहेत को जेतवन से और महेत को श्रावस्ती से समीकृत किया है।
 
 
 
सन 1910-11 ई. में विख्यात पुरातत्त्ववेत्ता सर जान मार्शल की अध्यक्षता में दयाराम साहनी ने इस क्षेत्र की पुन: खुदाई की। इनका मुख्य कार्यस्थल जेतवन टीला था। उस उत्खनन में कुछ अभिलेख, मूर्तियाँ, बड़ी मात्रा में मुद्राएँ तथा लेखयुक्त मुहरें, साँचे, मृण्मूर्तियाँ, मृण्भांड और ईंटें आदि मिली हैं।<ref>मेमायर्स ऑफ़ दि आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया, संख्या 50, पृष्ठ 3</ref> यद्यपि कनिंघम और होवी के उत्खननों में महेत और श्रावस्ती के समीकरण में कोई संदेह नहीं रह जाता फिर भी विंसेंट स्मिथ ने 1898 में एक लेख प्रकाशित करके कनिंघम के इस समीकरण पर आपत्ति प्रस्तुत की।<ref>वी.ए. स्मिथ, कौशांबी एंड श्रावस्ती, जर्नल आफ दि रायल एशियाटिक सोसाइटी (1898) पृष्ठ 527</ref> स्मिथ के तर्क का अनुमान चीनी यात्रियों के यात्रा-विवरणों पर आधारित था। उन्होंने श्रावस्ती को [[नेपाल]] की तराई में बालापुर, कामदी और इंतावा गाँवों के मध्य में स्थित बतलाया है।
 
 
 
====स्मिथ के अनुसार====
 
स्मिथ ने अपने एक परवर्ती लेख में बोधिसत्व के प्राप्ति-स्थान के संदर्भ में आपत्ति की जिस पर कनिंघम का सिद्धांत आधारित था। स्मिथ का यह अनुमान तर्कसंगत नहीं प्रतीत होता, क्योंकि पर्याप्त साहित्यिक और पुरातात्त्विक प्रमाणों ने श्रावस्ती का सहेत-महेत से समीकरण प्रमाणित कर दिया है। अधिक संभव है कि स्मिथ द्वारा अन्वेषित बालापुर के भग्नावशेष सेतव्य के हों। साहित्यक प्रमाणों से भी इस बात की पुष्टि होती है। पालि साहित्य<ref>सुत्तनिपात (सारनाथ संस्करण), पृष्ठ 212-13; जी.पी. मललसेकर, डिक्शनरी आफ पालि प्रापर नेम्स, भाग दो, (लंदन 1960), पृष्ठ 1126</ref> में सेतव्य को श्रावस्ती और राजगृह के मार्ग के बीच में स्थित कहा गया है। इस प्रकार सेतव्य, संभवत: श्रावस्ती और कपिलवस्तु के बीच कहीं स्थित रही होगी। अत: स्मिथ का यह कथन कि सेतव्या ही श्रावस्ती थी, उचित नहीं प्रतीत होता।
 
==सहेत का उत्खनन==
 
‘सहेत’ जो कि प्राचीन जेतवन विहार था, एक अत्यंत प्राचीन और महत्त्वपूर्ण स्थल था। यह संपूर्ण क्षेत्र 457.2 X 152.4 मीटर विस्तृत क्षेत्र में फैला था। यह टीला मैदान से 16 फुट ऊँचाई पर स्थित था। इस पुरातात्त्विक स्थल पर बड़ी संख्या में छोटे-छोटे टीले मिले हैं। इन टीलों में 20 का उत्खनन कनिंघम ने करवाया था। श्री होवी ने भी सहेत का उत्खनन करवाया था, लेकिन किसी भी भवन का पूर्ण उत्खनन न होने से तत्कालीन इतिहास पर प्रकाश नहीं पड़ता।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया (वार्षिक रिपोर्ट 1907-8), पृष्ठ 117</ref> विभिन्न उत्खननों से सहेत का जेतवन से समीकरण निर्विवाद रूप से सिद्ध होता है। बौद्ध-स्थल होने के कारण यहाँ विशेष रूप से मंदिर, स्तूप और विहार मिलते हैं। इनमें से कुछ प्रमुख पुरातात्विक स्थल निम्नलिखित हैं-
 
==== मंदिर और मठ स्थल 19 ====
 
इसकी खोज सर्वप्रथम श्री होवी ने की थी।<ref>जर्नल आफ दि एशियाटिक सोसायटी आफ बंगाल, भाग 1, अतिरिक्त् संख्या 1892, प्लेट 5 </ref> उन्होंने सतह से 3 फुट नीचे इस भवन के चारों तरफ खुदाई करवाई जिससे इस मंदिर के दो बार निर्मित होने की पुष्टि होती है। निर्माण संरचना से यह भवन 10वीं शताब्दी का प्रतीत होता है, परंतु कालांतर में फोगल की अध्यक्षता में इस क्षेत्र का पुन: उत्खनन प्रारंभ हुआ, जिससे यह ज्ञात हुआ कि यह जेतवन में स्थित एक विशाल भवन था, जिसका प्रवेश-द्वार पूर्व की ओर था। इस मठ में एक मंदिर भी था। आँगनयुक्त इस मठ में बौद्ध भिक्षुओं के निवास के लिए 24 कमरे बने हुए थे।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-8, पृष्ठ 119 </ref> इस संरचना का निर्माण तीन बार इसी नींव पर हुआ था। प्रारंभिक भवन का निर्माण, जिसकी दीवार पर स्पष्ट हैं, छठी शताब्दी में हुआ था और मध्यवर्ती भवन का निर्माण-गुप्त काल में हुआ था। इसका काल-निर्धारण दीवारों की निर्माण-पद्धति एवं एक कमरे से प्राप्त पकाई मिट्टी की मुहर से संभव हुआ। इस मुहर में बुद्ध को धर्मचक्र-प्रवर्तन मुद्रा में अंकित दिखाया गया है और नीचे गुप्त-लिपि में तीन पंक्तियाँ अंकित हैं। परवर्ती भवन इसी नींव पर 10वीं शताब्दी में निर्मित हुआ था। श्री होवी के उत्खनन से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है।
 
;अन्य उत्खनित वस्तु
 
अन्य उत्खनित वस्तुओं में बुद्ध प्रतिमाओं की संख्या अधिक है। इनमें से एक प्रतिमा अविलोकितेश्वर व मैत्रेय के साथ भूमि स्पर्श मुद्रा में है। एक अन्य मूर्ति में भगवान् बुद्ध एक बंदर से कटोरा ग्रहण कर रहे हैं। यह दृश्य वैशाली की उस घटना का विवरण प्रस्तुत करता है। जिसमें बुद्ध एक बंदर से शहद ग्रहण करते हुए प्रदर्शित किए गए हैं। ये दोनों मूर्तियाँ 9वीं-10वीं शताब्दी की हैं।
 
;नवीनतम संरचना
 
इस स्थान पर नवीनतम संरचना 11वीं-12वीं शताब्दी में हुई, जो चौकोर है। इसका एक भाग 35.90 मीटर विस्तृत है। इसके आंतरिक भाग के बीच में एक खुला आँगन था, जिसके चारों ओर कक्ष बने हुए थे। कक्ष और आँगन के मध्य गलियारा भी था। इसमें बने कमरे छोटे आकार के हैं। एक कमरे में पश्चिमी दीदीवार ओर एक ईंट का बना 1.20 मीटर का चबूतरा था। यहीं एक कमरे से कन्नौज के शासक गोविंद्रचन्द्र गहड़वाल का लिखित ताम्रपत्र मिला है।<ref>देबला मित्रा, बुद्धिस्ट मानुमेंट्स (कलकत्ता, प्रथम संस्करण, 1971), पृष्ठ 77 </ref> इन महत्त्वपूर्ण सूचनाओं से जेतवन की सहेत से समानता निश्चित हो जाती है। साथ ही इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ बौद्ध धर्म का प्रभाव 12वीं शताब्दी तक स्थाई रहा।
 
;स्तूप
 
मठ के समीपवर्ती पूर्व और उत्तर-पूर्व कई स्तूपों का निर्माण हुआ, जिनमें आठ स्तूप मुख्य है। इनमें से एक स्तूप का नवीनीकरण दयाराम साहनी द्वारा किया गया यहाँ से 5वीं शताब्दी की एक लिपियुक्त मुहर मिली है जिस पर बुद्धदेव का नाम अंकित है। इन स्तूपों के उत्तर-पश्चिम एक अष्टभुजीय कुआँ स्थित था, जो आज भी वर्तमान है।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-8, पृष्ठ 120 </ref>
 
====मंदिर स्थल 11 और 12====
 
ये दोनों भवन एक समान थे। इनका प्रवेश-द्वार उत्तराभिमुख था। प्रत्येक मंदिर एक केंद्रीय कक्ष से युक्त था जो अंदर से 2.10 मीटर (7 फुट) चौकोर क्षेत्र में विस्तृत था। इस कक्ष में एक 6 इंच ऊँचा ईंटों का चबूतरा था। मंदिर के दोनों किनारे के कक्ष अपेक्षाकृत बड़े थे, जिनकी भीतरी लंबाई-चौड़ाई 10 फुट X 9 फुट थी। केंद्रीय कक्ष की बनावट से ऐसा प्रतीत होता है कि उसमें बुद्ध प्रतिमा स्थापित रही होगी और किनारे के कमरों में अन्य देवताओं की प्रतिमाएँ स्थापित रही होंगी। कनिंघम का मत है कि मध्य का कमरा बुद्ध प्रतिमा से युक्त रहा होगा और किनारे के कमरे बौद्ध-भिक्षुओं के आवासगृह रहे होंगे।<ref>तत्रैव, 1907-8, पृष्ठ 121</ref>
 
मंदिर स्थल 6 और 7 : अष्टभुजीय कुएँ के उत्तर दो मंदिरों के अवशेष मिले है। इनमें से मंदिर स्थल 6 का प्रवेश-द्वार उत्तर की ओर है, जबकि मंदिर स्थल 7 का प्रवेश-द्वार पूर्व की तरफ है। मंदिर स्थल-अपेक्षाकृत बड़ा है जो कि एक 3.60 मीटर वर्गाकार कमरे से युक्त् था। इस मंदिर में प्रयुक्त ईंटें बड़े आकार की हैं, जिससे संभावना है कि यह मंदिर जेतवन के प्राचीन मंदिरों में से एक था।
 
====स्तूप स्थल 17 और 18====
 
पूर्व उल्लिखित मंदिर के पूर्व में दो स्तूप थे जिन्हें स्तूप 17 और 18 नाम दिया गया है। स्तूप स्थल 17 का मूल वर्गाकार है, उसके ऊपर वृत्ताकार अंड है। इसका व्यास 6.70 मीटर था। यह भाग बाद में जोड़ा गया प्रतीत होता है। प्रारंभिक अधिष्ठान 60 सेन्टीमीटर ऊँचा था, जो कुषाणकालीन (प्रथम शती ई.) है। स्तूप का अधोभाग कंकरीट फर्श के सतह से नीचे खुला नहीं था, लेकिन इस सरंचना की गहराई को ज्ञात करने के लिए स्तूप को शीर्ष पर खोल दिया गया तथा परवर्ती स्तर की सतह से लगभग 2.10 मीटर नीचे मध्यभाग में एक दंड गाड़ दिया गया। इस स्तूप के गर्भ में एक धातु-पात्र मिला है, जिसमें सोने के तार, मनके एवं स्फटिकतुल्य वस्तुएँ थीं।<ref>देबला मित्रा, बुद्धिस्ट मानुमेंट्स (कलकत्ता, प्रथम संस्करण, 1971 ई.) पृष्ठ 78</ref> ये सभी वस्तुएँ तथा सतह के नीचे की संरचना कुषाणकालीन (प्रथम शती ई.) है।
 
====स्तूप स्थल 18====
 
इसका समीपवर्ती स्तूप स्थल 18 अपेक्षाकृत छोटा है। इसके अंड का व्यास 4.20 मीटर (14 फुट) है। उत्खनन में इस स्तूप के गर्भ से भी एक अभिलिखित मिट्टी का कटोरा मिला है, जिसमें हड्डियों के टुकड़े, पत्थर के मनके एवं मोतियाँ थीं। कटोर पर कुषाण-लिपि में ‘भदंत बुद्धदेव’ लिखा ह। इस स्तूप का निर्माण भी कुषाण-काल में हुआ था, इस मंदिर सम्मुख दो चबूतरों के अवशेष भी मिलें हैं। इन चबूतरों (चंक्रम) का निर्माण उसी स्थान पर किया गया है जहाँ बुद्ध टहलते थे।
 
 
 
====स्तूप स्थल 5====
 
जेतवन विहार में स्थित यह एक महत्त्वपूर्ण स्तूप था, जो 9.10 मीटर ऊँचा शंक्वाकार टीले से ढका था। इसका उत्खनन सर्वप्रथम कनिंघम ने करवाया था।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे रिपोर्ट, भाग 11, पृष्ठ 88</ref> इस स्तूप के ऊपर का भाग गोलार्द्धीय स्तूप की भाँति था, जिसकी नीचे एक चौकोर कक्ष था। यह संरचना ठोस ईंटों से निर्मित थी। इसकी प्रत्येक भुजा की लंबाई 7.50 मीटर थी। स्तूप की सफाई करते समय इसके तल में दो चबूतरों का पता चला। निचला चबूतरा 24.90 X 21.30 मीटर चौड़ा था। एक अन्य परवर्ती चबूतरे के अवशेष भी मिले हैं जो 17.80 X 15 मीटर चौड़ा था। इसमें प्रयुक्त ईंटें 11 X 7<sup>1/2</sup> X 2 इंच आकार की हैं।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-8, पृष्ठ 122</ref> निरीक्षण करने पर पता चला कि इसकी पूर्वी दीवार में प्रवेश-द्वार के चिन्ह थे, जिससे यह निश्चित हो गया कि वास्तव में यह एक प्रदक्षिणा पथयुक्त स्तूप था, किंतु बाद में इसे पूजागृह (मंदिर) बना दिया गया तथा कालांतर में इसके प्रवेश द्वार को बंद करके इसे स्तूप रूप में परिवर्तित कर दिया गया।<ref>देबला मित्रा, बुद्धिस्ट मानुमेंट्स, पृष्ठ 78</ref> प्रारंभिक प्रदक्षिणा पथ युक्त स्तूप कुषाणकालीन प्रतीत होता है। जेतवन में यह सबसे लंबा स्तूप है। उत्खनन में यहाँ से कुछ मिट्टी की मुहरें भी मिली हैं, जो बुद्ध के जीवनकालीन चिन्हों से युक्त है। स्तूप के ऊपरी भाग से प्राप्त वस्तुएँ 8 वीं-10वीं शताब्दी की हैं, जो परवर्ती स्तूप निर्माण का काल-क्रम निश्चित करती हैं।
 
====मंदिर और मठ स्थल 1====
 
इस मंदिर की अंशत: खुदाई कनिंघम ने करवाई थी। इस मठ के अवशेष अब भी द्रष्टव्य हैं। इसकी पूर्व से पश्चिम लंबाई 150 फुट तथा चौड़ाई 142 <sup>½</sup> फुट है। जेतवन में स्थित यह एक बड़ा विहार है। जो उत्तर किनारे पर स्थित है। पूर्वाभिमुख इस मठ में एक मंदिर और और मंडपयुक्त आँगन भी था। सामान्य योजना के आधार पर निर्मित इस मठ के मध्य में आँगन में एक कुएँ के अवशेष भी मिले है। पूर्वी पंक्ति का कंद्रीय कक्ष अन्य सभी कक्षों में बड़ा था। ऐसा प्रतीत होता है कि इसकी छत महाकक्ष (हाल) के मध्य स्थित चार स्तंभों पर आधारित थी। इन स्तंभों के आधार पर प्रयुक्त ईंटों के केवल अवशेष मात्र ही द्रष्टव्य हैं। बरामदे में प्रयुक्त खंभे संभवत: लकड़ी के बने थे। आँगन और कक्षों की फर्श में कंकरीट का प्रयोग मिलता है।
 
 
 
इस मठ में मंदिर और मंडप बने होने के कारण यह मठ संख्या 19 से भिन्न था। मंदिर मे प्रयुक्त ईंटें कई आकार की है।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया, वार्षिक रिपोर्ट, 1907-08, पृष्ठ 125</ref> यथा-13 इंच X 7इंच X 2 <sup>½</sup> इंच, 10 इंच X 10 इंच X 2 <sup>½</sup> इंच X 9 इंच X 7 <sup>½</sup> इंच X 1 <sup>¾</sup> इंच। मंडप स्थल के बाहरी भाग में एक ढलावदार बरामदा बना था। उपासना स्थल को जाने वाले पथ एवं मंडप के मध्य यह बरामदा अंतराक्षेप स्वरूप स्थित था।
 
==== मंदिर स्थल 2 ====
 
मंदिर स्थल 3 से 61 मीटर उत्तर में यह मंदिर स्थित था। इसका उत्खनन सर्वप्रथम कनिंघम ने करवाया और स्थिति के आधार पर इसे गंधकुटी से समीकृत किया।<ref>कनिंघम, आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, भाग 11, पृष्ठ 84</ref> कनिंघम के पश्चात श्री होवी ने इस स्थल का उत्खनन किया। होवी ने सर्वप्रथम प्रवेश-कक्ष का पता लगाया और मंदिर के चारों तरफ के कंकरीट, फर्श और चहारदीवारी को स्पष्ट किया। इस चहारदीवारी की लंबाई पूर्व से पश्चिम 115 फुट तथा चौड़ाई एवं मोटाई क्रमश: 39 फुट और 8 फुट थी। दक्षिण और पश्चिमी तरफ से कंकरीट फर्श को हटाने पर होवी को नीचे अधिष्ठान के अवशेष मिले। इस अधिष्ठान की लंबाई एवं चौड़ाई क्रमश: 75 फुट एवं 57 फुट थी। अधिष्ठान के पूर्वी किनारे पर 15 फुट 6 इंच गहरा एवं 12 फुट चौड़ा एक प्रक्षेपण है, जो दो कक्षों में विभाजित है। ये कक्ष आपस में संबंधित नहीं हैं, अधिक संभव है कि ये सीढ़ियों से युक्त रहे हों। इस अधिष्ठान की वर्तमान ऊँचाई 7 फुट से अधिक नहीं है।
 
;गंधकुटी
 
फोगल ने कनिंघम के मत का खंडन करते हुए इस स्थान को गंधकुटी से समीकृत करने में आपत्ति की है। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि यदि उन दिनों बुद्ध के जीवन से संबंधित स्थलों पर गंधकुटी का निर्माण होता था, तो क्या कारण है कि उत्खनन में किसी भी स्थल से इसके अवशेष नहीं मिलते? साथ ही गंधकुटी से संबंधित स्थापत्य-कला का भी कोई उदाहरण ज्ञात नहीं हो पाया है।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-08, पृष्ठ 123-124 </ref> भरहुत स्तूप<ref>बरुआ, भरहुत, भाग 2, पृष्ठ 31; रीज डेविड्स बुद्धिस्ट इंडिया, चित्र संख्या-23 </ref> में चित्रित गंधकुटी के अग्र उत्सेध का ही चित्रण किया गया है। जिससे इस भवन की निर्माण योजना एवं रूपाँकन के संदर्भ में निष्कर्ष निकालना कठिन है। अत: हमें केवल पालि साहित्य में वर्णित उद्धरणों पर ही विश्वास करना चाहिए। गन्धकुटी के सन्दर्भ में एच.सी.नार्मन<ref> आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-08, पृष्ठ 124 </ref> ने एक निबंध प्रकाशित कर तीन मुख्य बातों पर जो दिया है-
 
*यह बुद्ध का व्यक्तिगत निवास-स्थान था।
 
*यह स्मारकों के मध्य में स्थित होता था।<ref>जातकों में भी गंधकुटी को मध्य में स्थित बतलाया गया है- ‘सो मज्झे गंधकुटी कारेसि’, जातक, खंड 1, पृष्ठ 92</ref> इस पर चढ़ने के लिए एक सीढ़ी बनी होती थी।
 
*इस मंदिर में पुष्पों का संग्रह होता था, जो अपने सुगंध के नामानुरूप थी।
 
उपर्युक्त मत पर विचार करने से गंधकुटी का स्मारकों के मध्य स्थित होना निश्चित हो जाता है जबकि यह उत्खनित स्थल मध्य में स्थित नहीं था।<ref>भारतवर्ष में किसी भी बुद्धकालीन स्थल से इस प्रकार के भवन मध्य में नहीं मिलते। भवन संख्या 1 को संभवत: इस वर्णन के आधार पर गंधकुटी से समीकृत किया जा सकता है। </ref> जहाँ तक काल का प्रश्न है यह मंदिर गुप्त काल से पूर्ववर्ती नहीं है। अत: उपर्युक्त आधार पर मंदिर स्थल 2 का गंधकुटी से समीकरण उचित नहीं प्रतीत होता।
 
====मंदिर स्थल 3====
 
इस मंदिर का भी उत्खनन सर्वप्रथम कनिंघम ने ही किया था। पूर्वाभिमुख यह मंदिर बोधिवृक्ष से 76.20 मीटर दूरी पर स्थित है। यह वहीं स्थित है जहाँ अनाथपिंडक ने कोसंबकुट्टी का निर्माण कराया था। कनिंघम ने भी इसकी पहचान कोसंबकुट्टी से की है।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-08, पृष्ठ 122</ref> इस कोसम्बकुट्टी का उपयोग बुद्ध के व्यक्तिगत कार्यों के लिये किया जाता था।<ref>कोसंबकुट्टी का वर्णन साहित्य में भी मिलता है, देखें, सुमंगलविलासिनी, भाग 2, पृष्ठ 407</ref> उत्खनन में यहाँ से बोधिसत्व की एक प्रतिमा भी मिली जिस पर प्रथम शताब्दी ई. की लिपि में लेख अंकित है। विश्वास किया जाता है। कि यह प्रतिमा कोसंबकुट्टी में बल नामक भिक्षु द्वारा कुषाण काल में स्थापित की गई थी।
 
;मंदिर स्थल 3 का परिमाण
 
इस मंदिर का परिमाण 5.75 X 5.45 मीटर क्षेत्र में था। इस परिमाण के अंदर तहखाना, मंदिर की दीवारें और मंडप स्थित थे। मंदिर की भीतरी परिधि 2.45 मीटर चौकोर थी और इसकी दीवारें 1.20 मीटर मोटी थीं। इस मंदिर के दक्षिण-पूर्व और उत्तर-पूर्व में ठोस ईंटों के बने दो चबूतरे (चंक्रम) थे। इस पर चढ़ने के लिए बीच से सीढ़ियाँ बनी थीं। दक्षिण-पूर्व वाला चबूतरा 10 फुट चोड़ा और 4 फुट ऊँचा था। पूर्व की ओर इसकी लंबाई 53 फुट थी। उत्तर-पूर्व वाले चबूतरे की लंबाई पश्चिम से पूर्व 61 फुट और चौड़ाई 5 फुट थी। मंदिर के अत्यंत समीप स्थित होने के कारण अभिलेख में वर्णित चंक्रम से इसकी समता स्थापित की जा सकती है।<ref>एम. वेंकटरम्मैया, श्रावस्ती, पृष्ठ 18</ref> एक अन्य चंक्रम अवशेष बोधगया के महाबेधि मंदिर से मिले थे। बोधगया से प्राप्त चंक्रम छायादार थी।
 
;मंदिर स्थल 3 का उत्खनन
 
उत्खनन से प्राप्त बौद्ध-प्रतिमा पर अंकित कुषाण लिपि में<ref>एपिग्राफिया एंडिका, भाग 8 पृष्ठ 180-181</ref> चंक्रम का वर्णन है जिसकी खोज कनिंघम ने की थी, परंतु यह निश्चित नहीं कि यह तथागत के टहलने के लिए बना वास्तविक कोसंबकुट्टी का चंक्रम था। कोशंबकुट्टी नामक यह भवन श्रावस्ती के दो प्रमुख भवनों में एक था। यह प्राय: असंभव प्रतीत होता है कि इन भवनों के विनाश के पश्चात् बुद्ध की उपासना स्थल के लिए किसी और स्थान का चुनाव किया गया हो। अत: पालि-साहित्य में वर्णित कोशंबकुट्टी तथा उत्खनन में प्राप्त इस स्थल के समीकरण में किसी प्रकार का संशय नहीं रह जाता।
 
==महेत का उत्खनन==
 
महेत का समीकरण प्राचीन श्रावस्ती से किया गया है। कनिंघम ने इसकी परिधि का विस्तार 17300 फुट निर्धारित किया है।<ref>ए. कनिंघम , ऐंश्येंट ज्योग्राफी आफ इंडिया, पृष्ठ 346</ref> फोगल ने श्रावस्ती नगर का घेरा 17250 फुट तथा संपूर्ण क्षेत्रफल 40.773 एकड़ निश्चित किया है। इस नगर में ईसा पूर्व छठी शताब्दी से लेकर 12 वीं शताब्दी के बीच निरंतर परिवर्तन होते रहे। चीनी चात्रियों ने इस नगर को परित्यक्त एवं निर्जन पाया। कोशल राज्य के पतन के पश्चात इस नगर का क्रमश: ह्रास होता गया। अत: श्रावस्ती नगर के विस्तार का कभी मौक़ा नहीं मिल पाया। इस नगर का पूर्ण विनाश 12 वीं शताब्दी ई. में [[मुसलमान|मुसलमानों]] द्वारा किया गया। इस प्रकार फोगल द्वारा उल्लिखित वर्तमान महेत का 17250 फुट का घेरा श्रावस्ती की प्राचीन सीमा से बढ़ा हुआ नहीं प्रतीत होता।
 
====विस्तार और विन्यास====
 
विस्तार और विन्यास की दृष्टि से महेत प्राचीन नगर का एक प्रमुख स्थल था। नगर का बाहरी विस्तार मिट्टी की प्राचीरों से परिवेष्टित था। प्राचीरों की ऊँचाई एक समान नहीं है। पश्चिम ओर की प्राचीरें 35 से 40 फुट ऊँची है, जबकि दक्षिण और पूर्व की प्राचीरों की ऊँचाई 25 फुट से 30 फुट है।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-08, पृष्ठ 84</ref> उन्नीसवीं शताब्दी संपूर्ण क्षेत्र वनों से आच्छादित था। प्राचीरों के बीच-बीच में खुला भाग था, जिन्हें लोग दरवाजा कहते थे।<ref>ऐसा प्रतीत होता है कि चार दरवाजों (पूर्व, पश्चिम, उत्तर दक्षिण) को छोड़कर प्रवेश के लिए प्रयुक्त होने वाले ये वास्तविक दरवाजे नहीं थे। वरन समय-समय पर नागरिकों द्वारा सुविधानुसार बनाए गए स्थानापन्न दरवाजे थे। </ref> इस तरह के दरवाजों की संख्या अट्ठाइस है, जिसमें फोगल ने ग्यारह को ही दरवाजा माना है। जिनमें से उत्तर और पूर्व की ओर एक-एक, दक्षिण की ओर चार और पश्चिम की ओर पाँच दरवाजे हैं।
 
 
 
उपर्युक्त दरवाजों में से कुछ का नामकरण उसकी स्थिति के आधार पर किया गया है। उदाहरणार्थ- एक दरवाजा पिपरहवा के नाम से जाना जाता है। इसका नामकरण प्राचीर के आस-पास एक विशेष प्रकार के वृक्ष (पीपल) के उगने के कारण हुआ था। अन्य मुख्य दरवाजों में गंगापुर, बंकी, गेलही, नौसहरा, काँदभारी एवं बाजार दरवाजे हैं।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-08, पृष्ठ 85-90</ref> उत्खनन में इस स्थल से कच्ची कुटी, पक्की कुटी एवं शोभनाथ मंदिर के अवशेष मिले हैं। इन स्थलों से प्राप्त वस्तुओं में मृण्मूतियाँ, मृण्भांड, मुहरें, प्रतिमाएँ एवं लोहे के उपकरण भी हैं।
 
 
 
====कच्ची कुटी====
 
कच्ची कुटी का उत्खनन सर्वप्रथम होवी ने किया था। तत्पश्चात फोगल ने इस खंडहर से विभिन्न काल की संरचनाओं का पता लगाया। उत्खनन के समय फोगल को टीले के ऊपरी हिस्से में आधुनिक काल का एक ईंटों का मंदिर मिला था। जिसकी उत्तरी और पश्चिमी दीवारे अब भी विद्यमान हैं। अन्य दोनों किनारे (पूर्वी औ उत्तरी) कच्ची चिनाई से पुनर्निर्मित हैं, जिसका निर्माण वहाँ निवास करने वाले किसी महात्मा ने करवाया था। इसी महात्मा ने पूर्ववर्ती चिनाई को खुदवाकर मंदिर का भी निर्माण करवाया था। इस वर्तमान मंदिर का प्रवेश-द्वार पूर्व तरफ से है। पूर्ववर्ती मंदिर का वास्तविक द्वार पश्चिम तरफ से था, जिसे यहाँ निवास करने वाले किसी साधु ने एक बड़े पत्थर से बंद कर दिया था। यह पत्थर (3 फुट 6 इंच X 1 फुट 6 इंच X 7 ½ फुट) एक मूर्ति की पीठिका प्रतीत होती है। संभव है यह पीठिका एवं मूर्ति पहले इसी मंदिर में स्थापित रही हों।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-08, पृष्ठ 91</ref>
 
 
 
;कच्ची कुटी का उत्खनन
 
 
 
उत्खनन में फोगल को यहाँ से कुछ पत्थर के टुकड़े मिले थे, जो निश्चित रूप से किसी प्रतिमा के खंडित अंश हैं। यद्यपि ये टुकड़े इतने छोटे हैं कि इनको मिलाकर किसी प्रतिमा का प्रारूप तैयार करना कठिन है; फिर भी यह तो लगभग निश्चित है कि परवर्ती काल में निर्मित यह मंदिर जिसके खंडहर अभी भी वर्तमान हैं, एक प्रस्तर प्रतिमा से युक्त रहा होगा।
 
;अधिष्ठान
 
इस मंदिर का अधिष्ठान (नींव) अत्यंत प्राचीन है, जिसका विस्तार पूर्व से पश्चिम 105 फुट तथा उत्तर से दक्षिण 72 फुट था। मंदिर में पहुँचने के लिए पश्चिम तरफ से 45 फुट लंबी और 14 फुट 5 इंच चौड़ी सीढ़ियाँ बनी थीं।<ref>तत्रैव, पृष्ठ 92</ref> मंदिर के आयताकार अधिष्ठान (नींव) का प्रत्येक किनारा 18 फुट से 19 फुट के प्रक्षेपण से युक्त था। इसका उत्तरी-पूर्वी किनारा पुनर्निर्मित है। 14 फुट ऊँची उत्तरी दीवारें अभी भी सुरक्षित हैं। इस दीवार का ऊपरी भाग अनलंकृत ईंटों से निर्मित भित्तिस्तंभ की पंक्तियों से सुसज्जित है, जिनमें 11 इंच विस्तृत निमग्नफलक आपस में 3 फुट 10 इंच की दूरी पर बने हैं।
 
 
 
इसमें प्रयुक्त ईंटें भिन्न आकारों की हैं। सबसे निचली परतों में डिनेटेड ईंटों का प्रयोग मिलता है। इसके ऊपर की परतों में गोलाकार ईंटों का प्रयोग मिलता है। कार्निश के नीचे 6 से 8 फुट की दूरी पर वीप-होल्स की कतारें भी मिली हैं।
 
 
 
श्री होवी ने कच्ची कुटी के उत्खनन में दक्षिण और उत्तरी ओर की दीवारों के नींच की खुदाई करके दो कक्षों का पता लगाया।<ref>होवी ने इन दोनों कक्षों को ‘ए’ और ‘बी’ नामों से अभिहित किया है। </ref> ये दोनों कक्ष आकार में आयताकार थे जो ऊँची ईंटों की दीवारों से परिवेष्टित थें निर्माण संरचना के आधार पर फोगल ने इन कक्षों को आवास-गृह नहीं माना है। कच्ची कुटी से नौशहरा और काँदभारी दरवाजों की ओर दो रास्ते जाते थे।
 
उत्खनन में यहाँ से फोगल को 356 मृण्मूर्तियाँ एवं कुछ प्रस्तर प्रतिमाएँ मिली थी।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-08, पृष्ठ 95</ref> इसमें से अधिकांश मूर्तियाँ खंडित हैं अन्य वस्तुओं में मिट्टी की मुहरें, मृण्भांड एवं लोहे के उपकरण उल्लेखनीय हैं।
 
 
 
====शोभनाथ का मंदिर====
 
शोभनाथ का मंदिर महेत के पश्चिम में स्थित है। इस मंदिर का शोभनाथ नाम तीसवें [[तीर्थंकर]] संभवनाथ के नाम पर पड़ा। विश्वास किया जाता है कि जैनियों के तीसरे तीर्थकर संभवनाथ का जन्म श्रावस्ती में ही हुआ था।<ref>देखें; व्यूहलर और बर्गेस ‘दि इंडियन सेक्ट जैनाज, (लंदन 1903) पृष्ठ 67 </ref> श्री होवी ने सर्वप्रथम यहाँ 1824-25 और 1875-76 में सीमित उत्खनन करवाया था लेकिन उत्खनन से प्राप्त विवरण अत्यंत संक्षिप्त एवं संदिग्ध है।
 
;शोभनाथ के मंदिर का उत्खनन
 
उत्खनन से पता चलता है कि इस मंदिर का पूर्वी किनारा पूर्व से पश्चिम 59 फुट व उत्तर से दक्षिण 49 फुट हे। यह खंडित ईंटों से निर्मित एक दीवार (8 ½ फुट X 1 फुट) से घिरा है। एक पूरी ईंट की नाम 12 इंच X 7 इंच X 2 इंच है। चिनाई में काफ़ी संख्या में छोटी नक्कशीदार ईंटे प्रयुक्त हुई थीं। संभवत: ये नक़्क़ाशीदार ईंटें किसी पुरानी संरचना से ली गई थीं।
 
  
आँगन को घेरने वाली दीवार की ऊँचाई को बाहर की तरफ 4 फुट 6 इंच तथा अंदर फर्श की तरह से 2 से 3 फुट की ऊँचाई तक ही सीमित रखा गया है। आँगन में पूर्व की तरफ से सीढ़ियों के माध्यम से प्रवेश किया जा सकता है। जिनकी लंबाई 23 फुट 6 इंच तथा चौड़ाई 12 फुट 6 इंच है तथा जो नीचे की तरफ घुमावदार बनाई गई हैं। उल्लेखनीय है कि इस तरह की नक़्क़ाशीदार ईंटें अन्य खंडहरों से भी मिली हैं। उत्खनन से यह ज्ञात होता है कि ये सीढ़ियाँ बाहरी आँगन में बनी हुई हैं जो 50 फुट चौड़ा तथा अंदर के आँगन के फर्श की तरह से 5 फुट नीचे है। इस निचली सतह से यह शीघ्रता से अनुमान नहीं लगाना चाहिए कि बाहरी आँगन जिसकी अंशत: खुदाई हुई थी, पूर्ववर्ती काल से सम्बन्धित है। इसके विपरीत यह एक प्राभाविक रूप से परवर्ती परिवर्धन है क्योंकि इसकी दीवारों का निर्माण अंदर के आँगन की दीवारों पर किया गया है। सतह में अंतर संभवत: इस परिस्थिति के कारण होता है क्योंकि अंदर का पश्चिमी आँगन, पहले के अवशेषों पर निर्मित है, लेकिन इस तथ्य की पुष्टि अभी उत्खनन से नहीं हो सकी है।
 
  
शोभनाथ मंदिर का ऊपरी भाग एक गुम्बदाकार इमारत है, जो प्रत्यक्ष रूप में पठान युग के मुसलमानी मक़बरा जैसी प्रतीत होती है। यह मंदिर सन 1885 में पूर्व सुरक्षित था लेकिन श्री होवी के उत्खनन के समय से तथा उसके कारण वह आंशिक रूप से जीर्ण-शीर्ण हो गया है।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इंडिया, वार्षिक रिपोर्ट, 1907-08, पृष्ठ 114</ref>
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<div align="center">'''[[श्रावस्ती का परिचय|आगे जाएँ »]]'''</div>
 
 
====पक्की कुटी====
 
‘महेत’ में स्थित पक्की कुटी एक महत्त्वपूर्ण स्थल है जो कच्ची कुटी से उत्तर-पश्चिम में स्थित है। इसका आधुनिक नाम यहाँ निवास करने वाले किसी फ़कीर (साधु) के निवास-स्थान के कारण पड़ा। [[कनिंघम]] ने इसे चीनी यात्रियों के अंगुलिमाल स्तूप से समीकृत किया है। इस खंडहर की आंशिक खुदाई श्री होवी ने की थी। कालांतर में फोगल ने इस क्षेत्र का उत्खनन करवाया जिससे ज्ञात हुआ कि इसका आकार चतुष्कोणीय था। इसका उत्तर से दक्षिण विस्तार 120 फुट तथा पूर्व से पश्चिम 77 फुट 8 इंच था। इस कुटी के पूर्वी किनारे का उत्खनन अभी नहीं हो पाया है। संभव है कि इस भवन का विस्तार और आगे तक रहा हो।
 
 
 
इस कुटी की आंतरिक संरचना में अनियमित ढंग की दीवारें तथा आयताकार एवं वर्गाकार कक्ष मिले हैं। इन कक्षों में दरवाजों एवं खिड़कियों का अभाव इस तथ्य का साक्षी है कि इस संरचना का प्रयोग आवासगृह के रूप में नहीं हो होता था। वस्तुत: यह एक स्तूप था। उत्खनन में इस स्थल से कोई भी ऐसी वस्तु नहीं मिली है, जिससे इसकी बुद्धकालीन विहार की सूचना को प्रश्रय मिले।
 
 
 
टीले के केंद्र में वक्राकार दीवारें भी मिली हैं। श्री होवी ने उत्खनन करते समय इस कुटी के मध्य भाग में दक्षिण से उत्तर की ओर एक सुरंग बना दी ताकि [[वर्षा]] से इस टीले की रक्षा हो सके। होवी की भूमि की सतह पर विभाजक दीवारों के भी अवशेष मिले हैं।
 
 
 
उत्खनन में पक्की कुटी से ऐसी कोई वस्तु नहीं मिली, जिससे उसकी धार्मिकता प्रामाणित हो सके। चीनी यात्रियों के यात्रा विवरणों में उल्लिखत प्राचीन न्यायालय कक्ष की संरचना को होवी पक्की कुटी से समीकृत करते हैं। होवी इस संरचना को परवर्ती काल की पुनर्निर्मित संरचना मानते हैं।<ref>देबला मित्रा, बुद्धिस्ट मानुमेंट्स, पृष्ठ 78</ref>
 
====स्तूप ‘ए’====
 
इस स्तूप को श्री होवी ने [[ह्वेनसांग]] द्वारा वर्णित अंगुलिमाल स्तूप से समीकृत किया है। यह पक्की कुटी से पूर्व में और कच्ची कुटी से उत्तर-पूर्व में स्थित था। होवी ने 9 फुट की परिधि में 30 इंच तक नीचे खुदाई की और पाया कि इसका आंतरिक भाग ठोस है। स्तूप के ऊपर का अंड 20 फुट परिधि में विस्तृत था। इसमें प्रयुक्त ईंटें कई आकार की हैं। सबसे बड़ी ईंटें 12 ½ इंच X 9 इंच X 2 ½ इंच आकार की हैं। इस स्तूप के बाहरी स्थल का उत्खनन फोगल ने 8 फुट नीचे तक करवाया था। इसका निचला अधिष्ठान एक आयताकार चबूतरे (72 फुट X 45 फुट) से युक्त था, जिसके पूर्व में सीढ़ियाँ थीं। ये सीढ़ियाँ 22 फुट लंबी और 14 फुट चौड़ी थीं, जो कच्ची कुटी और शोभनाथ मंदिर में प्रयुक्त सीढ़ियों के सदृश थीं। उत्तरी ओर का चबूतरा सुरक्षित था जिसकी ऊँचाई 4 फुट थी। यहाँ से प्राप्त अधिकांश ईंटें खंडित हैं। वैसे सामान्यतया ईंटों की माप 12 ½ इंच X 9 इंच X 2 ½ इंच है। चिनाई में नक़्क़ाशीदार ईंटों का सर्वथा अभाव मिलता हैं।<ref>आर्कियोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया एनुअल रिपोर्टस, 1907-08, पृष्ठ 110</ref>
 
; स्तूप ‘ए’ का उत्खनन
 
कच्ची कुटी के द्वार से स्तूप की दिशा में फोगल ने 6 ½ फुट विस्तृत एक [[खत्ती]] खुदवाई थी। यहाँ से उन्हें एक निचली संरचना के अवशेष मिले थे। इस संरचना में प्रयुक्त ईंटों को चार परतों का भी पता चलता है। उत्खनन में बड़ी संख्या में छोटे मृण्भांड एवं कुछ मृण्मूर्तियाँ भी मिली हैं।
 
 
 
{{seealso|खत्ती}}
 
 
 
;स्तूप ‘ए’ का वैज्ञानिक उत्खनन
 
श्रावस्ती का वैज्ञानिक उत्खनन 1959-60 ई. में श्री कृष्ण कुमार सिनहा द्वारा किया गया, <ref>कृष्ण कुमार सिनहा, एक्सकैवेशंस ऐट श्रावस्ती, (वाराणसी, 1967</ref> जिससे यहाँ की दुर्ग संरचना तथा सुरक्षात्मक दीवार के काल-क्रम पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ा है। इनके उत्खनन से ज्ञात हुआ कि श्रावस्ती का विकास तीन कालों में हुआ था। इन कालों में यहाँ से प्राप्त वस्तुओं तथा निर्माण प्रक्रिया में अंतर दृष्टिगत होता है।
 
;प्रथम काल
 
प्रथम काल में नगर की बाहरी दीवारों का निर्माण नहीं हुआ था। उल्लेखनीय है परवर्ती काल में बाहरी दीवारें मिलती हैं। इस काल के मृण्भांड विकसित परंपरा में मिलते हैं। यहाँ से उत्तरी कृष्ण परिमार्जित मृण्भांड बड़ी संख्या से प्राप्त हुए हैं। यहाँ से प्राप्त कुछ मृण्भांड 600 ई. पू. के एथेनियन कलशों के समान हैं।<ref>रोचक हैं कि इस तरह के मृण्भांड भारत के अन्य स्थलों से नहीं मिले हैं। </ref> इस प्रकार के मृण्भांडों को विस्तार [[भारत]]-[[पाकिस्तान]] उपमहाद्वीपीय क्षेत्र में मिलता है। इसके अतिरिक्त शीशे की पारभाषी चूड़ियाँ भी मिली हैं। [[धातु]] के रूप में इस समय मुख्यत: [[ताँबा|ताँबे]] का ही प्रयोग किया जाता था, तथापि [[लोहा|लोहे]] का प्रचलन भी हो चुका था। ताँबे का प्रयोग मुख्य रूप से गृहस्थी के सामानों एवम आभूषणों के रूप में किया जाता था।<ref>कृष्ण कुमार सिनहा, एक्सकैवेशंस ऐट श्रावस्ती, पृष्ठ 9</ref>
 
;द्वितीय काल
 
यद्यपि प्रथम काल के अंत तथा द्वितीय काल के प्रारंभ में समय की दृष्टि से कोई विशेष अंतर नहीं है तथापि दोनों की निर्मित वस्तुओं में पर्याप्त भिन्नता दिखाई देती है। द्वितीय काल में लोहे का उपयोग प्रचुरता से मिलता है। साथ ही अस्थिनिर्मित वाणाग्र भी बड़ी संख्या में मिले हैं। इस काल की मुख्य विशेषता दुर्ग-संरचना है। मुख्य प्राचीरों के परवर्ती कालों में विस्तृत रूप से समान अंतराल पर बने दुर्ग एवम इनकी दीवारें नगर के विकास-क्रम को सिद्ध करती है। श्रावस्ती की नगरीय दीवारों की संरचना की तुलना [[कौटिल्य]] के [[अर्थशास्त्र]] में उल्लिखित दुर्ग-संरचना से की जा सकती हैं।<ref>अर्थशास्त्र (आर. शामशास्त्री संस्करण), मैसूर 1919, अध्याय 2</ref>
 
 
 
श्रावस्ती के इस सीमित क्षेत्र के उत्खनन से सुरक्षा प्राचीरों पर पूर्णत: प्रकाश नहीं पड़ता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इन रक्षा-प्राचीरों का निर्माण हिन्द-[[यवन]] राजाओं के आक्रमण के सुरक्षार्थ किया गया था। यह घटना [[मौर्यवंश]] के पतन के पश्चात स्थानीय राज्यों के अभ्युदय के समकालिक है। द्वितीय काल में निर्मित मकानों में मिट्टी के गारे से युक्त पकी ईंटों का प्रयोग मिलता है। इस काल की निर्माण संरचना की तीन अवस्थाएँ दृष्टिगत होती हैं। श्री सिनहा<ref>कृष्ण कुमार सिनहा, एक्सकैवेशन्स ऐट श्रावस्ती, (वाराणसी, 1967), पृष्ठ 12 </ref> ने इन तीनों प्रावस्थाओं का काल-क्रम निम्नलिखित रूप से निर्धारित किया है-
 
#प्रारम्भिक प्रावस्था – 275 ई. पू. से 200 ई. पू.
 
#मध्यवर्ती प्रावस्था – 200 ई. पू. से 125 ई. पू.
 
#परवर्ती प्रावस्था – 125 ई. पू. से 50 ई. पू.।
 
;तृतीय काल
 
उत्खनन से तृतीय काल के अवशेष अत्यंत सीमित क्षेत्र से मिले हैं, इससे यह प्रतीत होता है कि इस समय यह नगर विनष्ट हो चुका था। उत्खनन से परवर्ती काल में निर्मित कुछ संरचनाओं का भी पता चला है।<ref name= "उत्तर प्रदेश"/>
 
  
 
==वीथिका==
 
==वीथिका==
 
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चित्र:Gandhakuti-Jetavana-Vihara-2.jpg|गंधकुटी जेतवन विहार के भिक्षु, श्रावस्ती
 
 
चित्र:Anandabodhi-Tree.jpg|आनन्दबोधी, श्रावस्ती
 
चित्र:Anandabodhi-Tree.jpg|आनन्दबोधी, श्रावस्ती
 
चित्र:Jetavan-Monastery-1.jpg|जेतवन मठ, श्रावस्ती
 
चित्र:Jetavan-Monastery-1.jpg|जेतवन मठ, श्रावस्ती
चित्र:Jetavan-Monastery-3.jpg|जेतवन मठ, श्रावस्ती
 
चित्र:Jetavan-Monastery-Temple-2.jpg|जेतवन मठ, श्रावस्ती
 
 
चित्र:Jetavan-Monastery-4.jpg|जेतवन मठ, श्रावस्ती
 
चित्र:Jetavan-Monastery-4.jpg|जेतवन मठ, श्रावस्ती
 
चित्र:Jetavan-Monastery-5.jpg|जेतवन मठ, श्रावस्ती
 
चित्र:Jetavan-Monastery-5.jpg|जेतवन मठ, श्रावस्ती
चित्र:Jetavan-Monastery-6.jpg|जेतवन मठ, श्रावस्ती
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चित्र:Jetavan-Monastery.jpg|जेतवन मठ, श्रावस्ती
 
 
 
 
 
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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<references/>
 
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*ऐतिहासिक स्थानावली | विजयेन्द्र कुमार माथुर |  वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग | मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार
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==बाहरी कड़ियाँ==
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*[http://www.bharatonline.com/uttar-pradesh/travel/shravasti/index.html श्रावस्ती]
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*[http://www.indianholiday.com/uttar-pradesh/cities-in-uttar-pradesh/tours-to-shravasti/ श्रावस्ती भ्रमण]
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*[http://www.jainteerth.com/teerth/Shravasti.asp श्री श्रावस्ती, यू.पी.]
 +
*[http://www.shunya.net/Pictures/NorthIndia/Shravasti/Shravasti.htm Sravasti, Uttar Pradesh, India]
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*[http://books.google.com/books?id=dQbgqRKok98C&printsec=frontcover#v=onepage&q&f=false The ancient geography of India, Volume 1 (By Sir Alexander Cunningham)], [http://www.archive.org/stream/cu31924023029485#page/n9/mode/2up ऑन लाइन पढ़िये और सुनिये ]
 
==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{बौद्ध धर्म}}{{उत्तर प्रदेश के पर्यटन स्थल}}{{उत्तर प्रदेश के ऐतिहासिक स्थान}}
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{{उत्तर प्रदेश के ऐतिहासिक स्थान}}{{उत्तर प्रदेश के नगर}}{{उत्तर प्रदेश के पर्यटन स्थल}}
 
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Latest revision as of 07:57, 7 November 2017

shravasti vishay soochi
shravasti
vivaran bharat ke uttar pradesh rajy ke goanda-baharaich ziloan ki sima par shravasti zile mean yah bauddh evan jain tirth sthan sthit hai.
rajy uttar pradesh
zila shravasti
nirman kal prachin kal se hi ramayan, mahabharat, jain, bauddh adi anek ullekh
bhaugolik sthiti uttar- 27.517073°; poorv- 82.050619°
marg sthiti shravasti balaramapur se 17 ki.mi., lakhanoo se 176 ki.mi., kanapur se 249 ki.mi., ilahabad se 262 ki.mi., dilli se 562 ki.mi. ki doori par hai.
prasiddhi puravashesh. aitihasik evan pauranik sthal.
kab jaean aktoobar se march
kaise pahuanchean havaee jahaz, rel, bas adi se pahuancha ja sakata hai.
havaee adda lakhanoo havaee adda
relave steshan balaramapur relave steshan
bas adda mega tarminas goanda, shravasti shahar se 50 kilomitar ki doori par hai
yatayat taiksi aur bas
kya dekhean puravashesh
chitr:Map-icon.gif googal manachitr
sanbandhit lekh jetavan, shobhanath mandir, kaushal mahajanapad adi bhasha hindi, aangrezi aur urdoo
any janakari 'shravasti' n keval bauddh aur jain dharmoan ka ek mahattvapoorn keandr tha apitu yah brahman dharm evan ved vidya ka bhi ek mahattvapoorn keandr tha.
bahari k diyaan adhikarik vebasait

shravasti bharat ke uttar pradesh rajy ke goanda-baharaich ziloan ki sima par sthit yah jain aur bauddh ka tirth sthan hai. goanda - balaramapur se 12 mil pashchim mean adhunik 'sahet-mahet' gaanv hi shravasti hai. pahale yah kaushal desh ki doosari rajadhani thi. aisi pauranik manyata hai ki bhagavan ram ke putr lav kush ne ise apani rajadhani banaya tha. shravasti bauddh jain donoan ka tirth sthan hai, tathagat (buddh) shravasti mean rahe the, yahaan ke shreshthi 'anathapiandak' ne bhagavan buddh ke liye 'jetavan vihar' banavaya tha, ajakal yahaan bauddh dharmashala, math aur mandir hai.

parichay

  1. REDIRECTsaancha:mukhy

mana gaya hai ki shravasti ke sthan par aj adhunik 'sahet-mahet' gram hai, jo ek-doosare se lagabhag dedh pharlaang ke aantar par sthit haian. yah buddhakalin nagar tha, jisake bhagnavashesh uttar pradesh rajy ke, baharaich evan goanda zile ki sima par, rapti nadi ke dakshini kinare par phaile hue haian. anushrutiyoan ke anusar sooryavanshi raja shravast ke nam par is nagari ka namakaran kar shravasti nam ki sanjna di gayi, tab se ye ilaka shravasti ke nam se jana jata hai. jangaloan ke bich gufa mean rahakar rahagiroan ko lootane ke bad unaki ooangali katakar mala pahanane vale ek durdaant dakoo aangulimal ko rapti nadi ke kinare base isi sthan par bhagavan buddh ne apani ishvariy shaktiyoan ke bal par nastik se astik banakar apana anuyayi banaya tha. ye vahi ilaka hai, jahaan par gautam buddh ne apane jivan kal ke sabase jyada basant bitaye the.

sthiti

  1. REDIRECTsaancha:mukhy

prachin shravasti ke avashesh adhunik ‘sahet’-‘mahet’ namak sthanoan par prapt hue haian.[1] yah nagar 27°51’ uttari akshaansh aur 82°05’ poorvi deshaantar par sthir tha.[2] ‘sahet’ ka samikaran ‘jetavan’ se tatha ‘mahet’ ka prachin 'shravasti nagar' se kiya gaya hai. prachin tila evan bhagnavashesh goanda evan baharaich ziloan ki sima par bikhare p de haian, jahaan balaramapur steshan se pahuancha ja sakata hai. baharaich evan balaramapur se isaki doori kramash: 26 evan 10 mil hai.[3] ajakal ‘sahet’[4] ka bhag baharaich zile mean aur ‘mahet’ goanda zile mean p data hai. balaramapur - baharaich marg par s dak se 800 phut ki doori par ‘sahet’ sthit hai jabaki ‘mahet’ 1/3 mil ki doori par sthit hai.[5] vianseant smith ne sarvapratham shravasti ka samikaran charada se kiya tha jo ‘sahet-mahet’ se 40 mil uttar-pashchim mean sthit hai.[6] lekin jetavan ke utkhanan se goviand chand gah daval ke 1128 ee. ke ek abhilekh ki prapti se isaka samikaran ‘sahet-mahet’ se nishchit ho gaya hai.[7]

namakaran

  1. REDIRECTsaancha:mukhy
  • savatthi, sanskrit shravasti ka pali aur arddhamagadhi roop hai.[8] bauddh granthoan mean is nagar ke nam ki utpatti ke vishay mean ek any ullekh bhi milata hai. inake anusar savatth (shravast) namak ek rrishi yahaan par rahate the, jinaki b di ooanchi pratishtha thi. inhian ke nam ke adhar par is nagar ka nam shravasti p d gaya tha.

[[chitr:Jetavana-Sravasti.jpg|thumb|250px|left|khatti, shravasti]]

  • panini (lagabhag 500 ee.poorv) ne apane prasiddh vyakaran-granth 'ashtadhyayi' mean saf likha hai ki- "sthanoan ke nam vahaan rahane vale kisi vishesh vyakti ke nam ke adhar par p d jate the."
  • mahabharat ke anusar shravasti ke nam ki utpatti ka karan kuchh doosara hi tha. shravast namak ek raja huye jo ki prithu ki chhathian pidhi mean utpann huye the. vahi is nagar ke janmadata the aur unhian ke nam ke adhar par isaka nam shravasti p d gaya tha. puranoan mean shravastak nam ke sthan par shravast nam milata hai. mahabharat mean ullikhit yah parampara uparyukt any paramparaoan se kahian adhik prachin hai. atev usi ko pramanik manana uchit bat hogi. bad mean chal kar kosal ki rajadhani, ayodhya se hatakar shravasti la di gee thi aur yahi nagar kosal ka sabase pramukh nagar ban gaya.
  • brahman sahity, mahakavyoan evan puranoan ke anusar shravasti ka namakaran shravast ya shravastak ke nam ke adhar par hua tha. shravastak yuvanashv ka putr tha aur prithu ki chhathi pidhi mean utpann hua tha.

vikas

  1. REDIRECTsaancha:mukhy

hamare kuchh prachin granthoan ke anusar kosal ka yah pradhan nagar sarvada ramanik, darshaniy, manoram aur dhanadhany se sanpann tha. isamean sabhi tarah ke upakaran maujood the. isako dekhane se lagata tha, mano devapuri alakananda hi sakshat dharatal par utar aee ho. nagar ki s dakean chau di thian aur in par b di savariyaan bhali bhaanti a sakati thian. nagarik shrriangar-premi the. ve hathi, gho de aur palaki par savar hokar rajamargoan par nikala karate the. isamean rajakiy koshthagar[9] bane huye the, jinamean ghi, tel aur khane-pine ki chizean prabhoot matra mean ekatr kar li gee thian.[10] vahaan ke nagarik gautam buddh ke bahut b de bhakt the. 'milindaprashn' namak granth mean chadhav-badhav ke sath kaha gaya hai ki isamean bhikshuoan ki sankhya 5 karo d thi. isake alava vahaan ke tin lakh sattavan hazar grihasth bauddh dharm ko manate the. is nagar mean 'jetavan' nam ka ek udyan tha, jise vahaan ke 'jet' namak rajakumar ne aropit kiya tha. is nagar ka anathapiandak namak seth jo buddh ka priy shishy tha, is udyan ke shantimay vatavaran se b da prabhavit tha. usane ise kharid kar bauddh sangh ko dan kar diya tha.[10] bauddh granthoan mean katha ati hai ki is pooanjipati ne jetavan ko utani mudraoan mean kharida tha


age jaean »

vithika


panne ki pragati avastha
adhar
prarambhik
madhyamik
poornata
shodh

tika tippani aur sandarbh

  1. arkiyolajikal sarve aauf iandiya riportas, bhag 1, prishth 330; evan bhag 11, prishth 78
  2. em. veanktarammaiya, shravasti, arkiyolajikal sarve aauph iandiya, dilli 1981, prishth 1
  3. vimalacharan laha, prachin bharat ka aitihasik bhoogol, uttar pradesh hindi granth akadami, lakhanoo, 1972, prishth 210
  4. jetavan
  5. di memayars aauph d arkiyol aaujikal sarve aauph iandiya, bhag 50, dilli 1935 mean uddhrit vimalacharan laha ka lekh ‘shravasti in iandiyan litarechar’, prishth 1
  6. jarnal aauf d r aauyal eshiyatik sosaiti, 1900, prishth 9
  7. arkiyol aaujikal sarve aauf iandiya enual riportas 1907-08, prishth 131-132; vishuddhanand pathak, histri aauf koshal, motilal banarasidas, varanasi, 1963 ee., prishth 63
  8. sianh, d aau. ashok kumar uttar pradesh ke prachinatam nagar (hindi). bharatadiskavari pustakalay: vani prakashan, nee dilli, 98-124.
  9. kothar
  10. 10.0 10.1 hamare purane nagar |lekhak: d aau. uday narayan ray |prakashak: hindustan ekedemi, ilahabad |prishth sankhya: 43-46 |
  • aitihasik sthanavali | vijayendr kumar mathur | vaijnanik tatha takaniki shabdavali ayog | manav sansadhan vikas mantralay, bharat sarakar

bahari k diyaan

sanbandhit lekh