एकादशी: Difference between revisions

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Revision as of 11:56, 21 September 2010

प्रत्येक मास में दो एकादशी होती हैं। अमावस्या और पूर्णिमा के दस दिन बाद ग्यारहवीं तिथि एकादशी कहलाती है। एकादशी का व्रत पुण्य संचय करने में सहायक होता है। प्रत्येक पक्ष की एकादशी का अपना महत्व है। एकादशी व्रत का अर्थ विस्तार यह भी कहा जाता है कि एक ही दशा में रहते हुए अपने आराध्य का अर्चन-वंदन करने की प्रेरणा देने वाला व्रत ही एकादशी है। इस व्रत में स्वाध्याय की सहज वृत्ति अपनाकर ईश आराधना में लगना और दिन-रात केवल ईश चितंन की स्थिति में रहने का यत्न एकादशी का व्रत करना माना जाता है। स्वर्ण दान, भूमि दान, अन्नदान, गौ दान, कन्यादान आदि करने से जो पुण्य प्राप्त होता है एवं ग्रहण के समय स्नान-दान करने से जो पुण्य प्राप्त होता है, कठिन तपस्या, तीर्थयात्रा एवं अश्वमेधादि यज्ञ करने से जो पुण्य प्राप्त होता है, इन सबसे अधिक पुण्य एकादशी व्रत रखने से प्राप्त होता है।

तथ्य

  • सूर्य से चन्द्र का अन्तर जब 121° से 132° तक होता है, तब शुक्ल पक्ष की एकादशी और 301° से 312° तक कृष्ण एकादशी रहती है।
  • एकादशी को ‘ग्यारस या ग्यास’ भी कहते हैं।
  • एकादशी के स्वामी विश्वेदेवा हैं।
  • एकादशी का विशेष नाम ‘नन्दा’ है।
  • एकादशी सोमवार को होने से 'क्रकच योग' तथा 'दग्ध योग' का निर्माण करती है, जो शुभ कार्यों (व्रत उपवास को छोड़कर) में वर्जित है।
  • रविवार तथा मंगलवार को एकादशी मृत्युदा तथा शुक्रवार को सिद्धिदा होती है।
  • एकादशी की दिशा आग्नेय है।
  • चन्द्रमा की इस ग्यारहवीं कला के अमृत का पान उमा देवी करती है।
  • भविष्य पुराण के अनुसार एकादशी को विश्वेदेवा की पूजा करने से धन-धान्य, सन्तति, वाहन, पशु तथा आवास आदि की प्राप्ति होती है।

एकादश्यां यथोद्दिष्टा विश्वेदेवाः प्रपूजिताः।
प्रजां पशुं धनं धान्यं प्रयच्छन्ति महीं तथा।।

[1]

एकादशी का व्रत

सभी व्रतों में एकादशी का व्रत सबसे प्राचीन माना गया है। एकादशी के स्वामी विश्वेदेवा होने से इसका व्रत एवं पूजन प्रत्येक देवता के उपासक को अभीष्ट फल देता है। यह पूजन प्रत्येक देवता को प्राप्त होता है, किन्तु पंचागों में कभी-कभी लगातार दो दिन एकादशी व्रत लिखा रहता है। ऐसी स्थिति में प्रथम दिन का व्रत स्मार्तों (सभी गृहस्थों- गणेश, सूर्य, शिव, विष्णु तथा दुर्गा की पूजा करने वालों) के लिये करना चाहिये तथा दूसरे दिन का व्रत वैष्णवों को अपने सम्प्रदाय के अनुसार करना चाहिये। वैष्णव वह होता है, जो केवल विष्णु का उपासक होता है तथा पंच संस्कारों से संस्कारित होकर जिसने वैष्णव गुरु से दीक्षा ली हो, तप्त मुद्रा धारण की हो। जब पंचागं में ‘एकादशीव्रतं सर्वेषां’ लिखा हो तब यह व्रत सभी के लिये करणीय होता है।

पद्म पुराण के अनुसार

देवाधिदेव महादेव ने नारद को उपदेश देते हुए कहा- 'एकादशी महान पुण्य देने वाली है। श्रेष्ठ मुनियों को भी इसका अनुष्ठान करना चाहिए।' विशेष नक्षत्रों के योग से यह तिथि जया, विजया, जयन्ती तथा पापनाशिनी नाम से जानी जाती है। शुक्ल पक्ष की एकादशी यदि पुनर्वसु नक्षत्र के सुयोग से हो तो 'जया' कहलाती है। उसी प्रकार शुक्ल पक्ष की ही द्वादशी को श्रवण नक्षत्र हो तो 'विजया' कहलाती है और रोहिणी नक्षत्र होने पर तिथि 'जयन्ती' कहलाती है। पुष्य नक्षत्र का सुयोग होने पर 'पापनाशिनी' तिथि बनती है। एकादशी व्रतों का जहाँ ज्योतिष गणना के अनुसार समय-दिन निर्धारित होता है, वहीं उनका नक्षत्र आगे-पीछे आने वाली अन्य तिथियों के साथ संबध व्रत की महत्ता बढ़ाता है।

एकादशियों के नाम

प्रत्येक माह में दो एकादशी आती है। जिनके नाम अलग-अलग है जो इस प्रकार है:-

एकादशी का भोजन

एकादशी के व्रत में अन्न खाने का निषेध है, केवल एक समय फलाहारी भोजन ही किया जाता है। इस व्रत में कोई भी अनाज सामान्य नमक, लाल मिर्च और अन्य मसाले व्रती को नहीं खाने चाहिए। सामान्य नमक की जगह सेंधा नमक और काली मिर्च प्रयोग किए जाते हैं। साथ ही कुटू और सिंघाड़े का आटा, रामदाना, खोए से बनी मिठाईयाँ, दूध-दही और फलों का प्रयोग इस व्रत में किया जाता है और दान भी इन्हीं वस्तुओं का किया जाता है। एकादशी का व्रत करने के पश्चात दूसरे दिन द्वादशी को एक व्यक्ति के भोजन योग्य आटा, दाल, नमक,घी आदि और कुछ धन रखकर सीधे के रूप में दान करने का विधान इस व्रत का अविभाज्य अंग है।

एकादशी का फल

एकादशी व्रत करने वाले के पितृ कुयोनि को त्याग कर स्वर्ग में चले जाते हैं। एकादशी व्रत करने वाले के दस पुरुषा पितृ पक्ष के, दस पुरुषा मातृ पक्ष के और दस पुरुषा पत्नी पक्ष के बैकुण्ठ को जाते हैं। दूध, पुत्र, धन और कीर्ति को बढ़ाने वाला एकादशी का व्रत है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. -भविष्यपुराण, ब्राह्मपर्व, अध्याय 102

बाहरी कड़ियाँ

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