अकबर का माता-पिता से बिछुड़ना

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अकबर के जन्म के समय की स्थिति सम्भवतः हुमायूँ के जीवन की सर्वाधिक कष्टप्रद स्थिति थी। इस समय उसके पास अपने साथियों को बांटने के लिए एक कस्तूरी के अतिरिक्त कुछ भी न था। अकबर का बचपन माँ-बाप के स्नेह से रहित अस्करी के संरक्षण में माहम अनगा, जौहर शम्सुद्दीन ख़ाँ एवं जीजी अनगा की देख-रेख में कंधार में बीता। हुमायूँ ऐसी स्थिति में नहीं था कि अपने प्रथम पुत्र के जन्मोत्सव को उचित रीति से मना सकता। सारी कठिनाइयों में मालिक के साथ रहने वाला जौहर, अकबर के समय बहुत बूढ़ा होकर मरा। उसने लिखा है-

बादशाह ने इस संस्मरण के लेखक को हुक्म दिया, जो वस्तुएँ तुम्हें मैनें सौंप रखी हैं, उन्हें ले आओ। इस पर मैं जाकर दो सौ शाहरुखदी (रुपया), एक चाँदी का कड़ा और दो दाना कस्तूरी (नाभि) ले आया। पहली दोनों चीज़ों को उनके मालिकों के पास लौटाने के लिए हुक्म दिया। फिर एक चीनी की तस्तरी मंगाई। उसमें कस्तूरी को फोड़कर रख दिया और यह कहते हुए उपस्थित व्यक्तियों में उसे बाँटा: "अपने पुत्र के जन्म दिन के उपलक्ष्य में आप लोगों को भेंट देने के लिए मेरे पास बस यही मौजूद है। मुझे विश्वास है, एक दिन उसकी कीर्ति सारी दुनिया में उसी तरह फैलेगी, जैसे एक स्थान में यह कस्तूरी।"

पिता हुमायूँ की मुश्किलें

अकबर का पिता हुमायूँ मुश्किल से नौ वर्ष ही शासन कर पाया था कि 26 जून, 1539 ई. को गंगा किनारे 'चौसा' (शाहबाद ज़िले) में उसे शेरख़ाँ (शेरशाह) के हाथों करारी हार खानी पड़ी। चौसा अपने ऐतिहासिक युद्ध के लिए आज उतना प्रसिद्ध नहीं है, जितना अपने स्वादिष्ट आमों के लिए। चौसा की हार के बाद कन्नौज में हुमायूँ ने फिर भाग्य-परीक्षा की, लेकिन शेरशाह ने 17 मई, 1740 ई. को अपने से कई गुना अधिक सेना को हरा दिया। हुमायूँ इस बार पश्चिम की ओर भागा। कितने ही समय तक वह राजस्थान के रेगिस्तानों में भटकता रहा, पर कहीं से भी उसे कोई सहायता प्राप्त नहीं हुई। इसी भटकते हुए जीवन में उसका परिचय हमीदा बानो बेगम से हुआ। हमीदा का पिता शेख़ अली अकबर जामी मीर बाबा दोस्त हुमायूँ के छोटे भाई हिन्दाल का गुरु था। हमीदा की सगाई हो चुकी थी, लेकिन चाहे बेतख्त का ही हो, आखिर हुमायूँ बादशाह था। सिंध में पात के मुकाम पर 1541 ई. के अन्त या 1452 ई. के प्रारम्भ में 14 वर्ष की हमीदा का विवाह हुमायूँ से हो गया। अपने पिछले जीवन में यही हमीदा बानो 'मरियम मकानी' के नाम से प्रसिद्ध हुई और अपने बेटे से एक ही साल पहले (29 अगस्त, 1604 ई. में) मरी। उस समय क्या पता था कि हुमायूँ का भाग्य पलटा खायेगा और हमीदा की कोख से अकबर जैसा एक अद्वितीय पुत्र पैदा होगा।

माता-पिता से बिछुड़ना

हुमायूँ अपने खोये हुए राज्य को फिर से प्राप्त करने के लिए संघर्षरत था। तभी वह ईरान के तहमस्प शाह की सहायता प्राप्त करने के ख्याल से कंधार की ओर चला। बड़ी मुश्किल से सेहवान पर उसने सिंध पार किया, फिर बलोचिस्तान के रास्ते क्वेटा के दक्षिण मस्तंग स्थान पर पहुँचा, जो कि कंधार की सीमा पर था। इस समय यहाँ पर उसका छोटा भाई अस्करी अपने भाई काबुल के शासक कामरान की ओर से हुकूमत कर रहा था। हुमायूँ को ख़बर मिली कि अस्करी हमला करके उसको पकड़ना चाहता है। मुकाबला करने के लिए आदमी नहीं थे। जरा-सी भी देर करने से काम बिगड़ने वाला था। उसके पास में घोड़ों की भी कमी थी। उसने तर्दी बेग से माँगा तो उसने देने से इन्कार कर दिया। हुमायूँ, हमीदा बानो को अपने पीछे घोड़े पर बिठाकर पहाड़ों की ओर भागा। उसके जाते देर नहीं लगी कि अस्करी दो हज़ार सवारों के साथ पहुँच गया। हुमायूँ साल भर के शिशु अकबर को ले जाने में असमर्थ हुआ। वह वहीं डेरे में छूट गया। अस्करी ने भतीजे के ऊपर गुस्सा नहीं उतारा और उसे जौहर आदि के हाथ अच्छी तरह से कंधार ले गया। कंधार में अस्करी की पत्नी सुल्तान बेगम वात्सल्य दिखलाने के लिए तैयार थी।

अब अकबर, अस्करी की पत्नी की देखरेख में रहने लगा। ख़ानदानी प्रथा के अनुसार दूधमाताएँ 'अनगा' नियुक्त की गईं। शमशुद्दीन मुहम्मद ने 1540 ई. में कन्नौज के युद्ध में हुमायूँ को डूबने से बचाया था, उसी की बीबी जीजी अनगा को दूध पिलाने का काम सौंपा गया। माहम अनगा दूसरी अनगा थी। यद्यपि उसने दूध शायद ही कभी पिलाया हो, पर वही मुख्य अनगा मानी गई और उसके पुत्र अकबर के दूध भाई (कोका या कोकलताश) अदहम ख़ाँ का पीछे बहुत मान बढ़ा।



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