अजा एकादशी: Difference between revisions

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==व्रत और विधि==
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यह व्रत भाद्रपद के [[कृष्ण]] पक्ष की एकादशी को किया जाता है। यह एकादशी का व्रत समस्त पापों और कष्टों को नष्ट करके हर प्रकार की सुख-समृद्धि प्रदान करता है। इस व्रत को करने से पूर्वजन्म की बाधाएं दूर हो जाती हैं। इस एकादशी को 'जया', '[[कामिका एकादशी|कामिका]]' तथा अजा एकादशी कहते हैं। आज भगवान [[विष्णु]] के उपेन्द्र स्वरूप की पूजा-अराधना की जाती है तथा रात्रि जागरण किया जाता है।
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'''अजा एकादशी''' या 'कामिका एकादशी' का व्रत [[भाद्रपद]] के [[कृष्ण पक्ष]] की [[एकादशी]] को किया जाता है। इस एकादशी के दिन किया जाने वाला व्रत समस्त पापों और कष्टों को नष्ट करके हर प्रकार की सुख-समृद्धि प्रदान करता है। अजा एकादशी के व्रत को करने से पूर्वजन्म की बाधाएँ दूर हो जाती हैं। इस एकादशी को 'जया एकादशी' तथा 'कामिका एकादशी' भी कहते हैं। इस एकादशी के दिन [[विष्णु|भगवान विष्णु]] के 'उपेन्द्र' स्वरूप की [[पूजा]] अराधना की जाती है तथा रात्रि जागरण किया जाता है। इस पवित्र एकादशी के फल लोक और परलोक दोनों में उत्तम कहे गये है। अजा एकादशी व्रत करने से व्यक्ति को हज़ार गौदान करने के समान फल प्राप्त होते हैं। व्यक्ति द्वारा जाने-अनजाने में किए गये सभी पाप समाप्त होते है और जीवन में सुख-समृ्द्धि दोनों उसे प्राप्ति होती हैं।
==कथा==
==कथा==
एक बार राजा [[हरिश्चन्द्र]] ने अपना सारा राज्य दान में दे दिया। राजा ने जिस व्यक्ति को अपना राज्य दान में दिया था उसकी आकृति महर्षि [[विश्वामित्र]] से मिलती-जुलती थी। अगले दिन महर्षि उनके दरबार में पहुंचे। तब सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र ने स्वप्न में दिया अपना सारा राज्य उन्हें सौंप दिया। जब राजा दरबार से चलने लगे तभी विश्वामित्र ने राजा से पांच सौ स्वर्ण मुद्राएं मांगी।
एक बार [[हरिश्चन्द्र|राजा हरिश्चन्द्र]] ने स्वप्न देखा कि उन्होंने अपना सारा राज्य दान में दे दिया है। राजा ने स्वप्न में जिस व्यक्ति को अपना राज्य दान में दिया था, उसकी आकृति [[विश्वामित्र|महर्षि विश्वामित्र]] से मिलती-जुलती थी। अगले दिन महर्षि उनके दरबार में पहुँचे। तब सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र ने स्वप्न में दिया अपना सारा राज्य उन्हें सौंप दिया। जब राजा दरबार से चलने लगे, तभी विश्वामित्र ने राजा से पाँच सौ स्वर्ण मुद्राएँ मांगी। राजा ने कहा- "हे ऋषिवर! आप पाँच सौ क्या, जितनी चाहें मुद्राएँ ले सकते हैं।" विश्वामित्र ने कहा- "तुम भूल रहे हो राजन, राज्य के साथ राजकोष तो आप पहले ही दान कर चुके हैं। क्या दान की हुई वस्तु दक्षिणा में देना चाहते हो।"
 
राजा ने कहा- 'हे ॠषिवर! आप पांच सौ क्या, जितनी चाहें मुद्राएं ले सकते हैं।' विश्वामित्र ने कहा-'तुम भूल रहे हो राजन, राज्य के साथ राजकोष तो आप पहले ही दान कर चुके हैं। क्या दान की हुई वस्तु दक्षिणा में देना चाहते हो।'
 
तब राजा को भूल का एहसास हुआ। फिर उन्होंने पत्नी तथा पुत्र को बेचकर स्वर्ण मुद्राएं जुटाईं तो सही परन्तु वे भी पूरी न हो सकीं। तब मुद्राएं पूरी करने के लिए उन्होंने स्वयं को बेच दिया। राजा हरिश्चन्द्र ने जिसके पास स्वयं को बेचा वह जाति से डोम था। वह श्मशान का स्वामी होने के नाते, मृतकों के संबंधियों से 'कर' लेकर उन्हें शवदाह की स्वीकृति देता था।
 
उसने राजा हरिश्चन्द्र को इस कार्य के लिए तैनात कर दिया। उनका कार्य था जो भी व्यक्ति अपने संबंधी का शव लेकर अंतिम संस्कार के लिए श्मशान में आए, हरिश्चन्द्र उससे 'कर' वसूल करके अंतिम संस्कार के लिए श्मशान में आए, हरिश्चन्द्र उससे 'कर' वसूल करके अंतिम संस्कार की स्वीकृति दें, अन्यथा संस्कार न करने दिया जाए। राजा हरिश्चन्द्र इसे अपना कर्तव्य समझकर विधिवत पालन करने लगे।
 
राजा हरिश्चन्द्र को अनेक बार अपनी परीक्षा देनी पड़ी। एक दिन राजा हरिश्चन्द्र का एकादशी का व्रत था। राजा हरिश्चन्द्र अर्द्धरात्रि में श्मशान में पहरा दे रहे थे। तभी वहां एक स्त्री अपने पुत्र का दाह संस्कार करने के लिए आई। वह इतनी निर्धन थी कि उसके पास शव को ढकने के लिए कफन तक न था। शव को ढकने के लिए उसने अपनी आधी साड़ी फाड़कर कफन बनाया था। राजा हरिश्चन्द्र ने उससे कर मांगा। परन्तु उस अवला के पास कफन तक के लिए तो पैसा था नहीं, फिर भला 'कर' अदा करने के लिए धन कहां से आता?
कर्तव्यनिष्ठ महाराज ने उसे शवदाह की आज्ञा नहीं दी। बेचारी स्त्री बिलख कर रोने लगी। एक तो पुत्र की मृत्यु का शोक, ऊपर से अंतिम संस्कार न होने पर शव की दुर्गति होने की आशंका।
 
उसी समय आकाश में घने काले-काले बादल मंडराने लगे। पानी बरसने लगा। बिजली चमकने लगी। बिजली के प्रकाश में राजा ने जब उस स्त्री को देखा, तो वह चौंक उठे। वह उनकी पत्नी तारामती थी और मृतक बालक था उनका इकलौता पुत्र रोहिताश्व। जिसका सांप के काटने से असमय ही देहान्त हो गया था।
 
पत्नी तथा पुत्र की इस दीन दशा को देखकर महाराज विचलित हो उठे। उस दिन एकादशी थी और महाराज ने सारा दिन उपवास रखा था। दूसरे परिवार की यह दुर्दशा देखकर उनकी आंखों में आंसू आ गए। वह भरे हुए नेत्रों से आकाश की ओर देखने लगे। मानो कह रहे हों- 'हे ईश्वर! अभी और क्या-क्या दिखाओगे?'


परन्तु यह तो उनके परिक्षा की घड़ी थी। उन्होंने भारी मन से अनजान बनकर उस स्त्री से कहा- 'देवी! जिस सत्य की रक्षा के लिए हम लोगों ने राजभवन का त्याग किया, स्वयं को बेचा, उस सत्य की रक्षा के लिए अगर मैं इस कष्ट की घड़ी में न रह पाया तो कर्तव्यच्युत होऊंगा। यद्यपि इस समय तुम्हारी दशा अत्यन्त दयनीय है तथापि तुम मेरी सहायता करके मेरी तपस्या की रक्षा करो। 'कर' लिए बिना मैं तुम्हें पुत्र के अंतिम संस्कार की अनुमति नहीं दे सकता।'
तब राजा हरिश्चन्द्र को भूल का एहसास हुआ। फिर उन्होंने पत्नी तथा पुत्र को बेचकर स्वर्ण मुद्राएँ जुटाईं तो सही, परन्तु वे भी पूरी न हो सकीं। तब मुद्राएँ पूरी करने के लिए उन्होंने स्वयं को बेच दिया। राजा हरिश्चन्द्र ने जिसके पास स्वयं को बेचा था, वह जाति से डोम था। वह श्मशान का स्वामी होने के नाते मृतकों के संबंधियों से 'कर' लेकर उन्हें शवदाह की स्वीकृति देता था। उस डोम ने राजा हरिश्चन्द्र को इस कार्य के लिए तैनात कर दिया। उनका कार्य था, जो भी व्यक्ति अपने संबंधी का शव लेकर '[[अंतिम संस्कार]]' के लिए श्मशान में आए, हरिश्चन्द्र उससे 'कर' वसूल करके उसे अंतिम संस्कार की स्वीकृति दें, अन्यथा संस्कार न करने दिया जाए। राजा हरिश्चन्द्र इसे अपना कर्तव्य समझकर विधिवत पालन करने लगे।


रानी ने सुनकर अपना धैर्य नहीं खोया और जैसे ही शरीर पर लिपटी हुई आधी साड़ी में से आधी फाड़कर 'कर' के रूप में देने के लिए हरिश्चन्द्र की ओर बढ़ाई तो तत्काल प्रभु प्रकट होकर बोले- 'हरिश्चन्द्र! तुमने सत्य को जीवन में धारण करने का उच्चतम आदर्श स्थापित करके आचरण की सिद्धि का परिचय दिया है। तुम्हारी कर्त्तव्यनिष्ठा धन्य है, तुम इतिहास में अमर रहोगे।'
राजा हरिश्चन्द्र को अनेक बार अपनी परीक्षा देनी पड़ी। एक दिन राजा हरिश्चन्द्र का [[एकादशी]] का व्रत था। हरिश्चन्द्र अर्द्धरात्रि में श्मशान में पहरा दे रहे थे। तभी वहाँ एक स्त्री अपने पुत्र का दाह संस्कार करने के लिए आई। वह इतनी निर्धन थी कि उसके पास शव को ढकने के लिए कफ़न तक न था। शव को ढकने के लिए उसने अपनी आधी साड़ी फाड़कर कफ़न बनाया था। राजा हरिश्चन्द्र ने उससे कर माँगा। परन्तु उस अवला के पास कफ़न तक के लिए तो पैसा था नहीं, फिर भला 'कर' अदा करने के लिए धन कहाँ से आता? कर्तव्यनिष्ठ महाराज ने उसे शवदाह की आज्ञा नहीं दी। बेचारी स्त्री बिलख कर रोने लगी। एक तो पुत्र की मृत्यु का शोक, ऊपर से 'अंतिम संस्कार' न होने पर शव की दुर्गति होने की आशंका। उसी समय आकाश में घने काले-काले बादल मंडराने लगे। पानी बरसने लगा। बिजली चमकने लगी। बिजली के प्रकाश में राजा ने जब उस स्त्री को देखा, तो वह चौंक उठे। वह उनकी पत्नी तारामती थी और मृतक बालक था, उनका इकलौता पुत्र रोहिताश्व, जिसका [[सांप]] के काटने से असमय ही देहान्त हो गया था।


राजा हरिश्चन्द्र ने प्रभु को प्रणाम करके आशीर्वाद मांगते हुए कहा- 'भगवन! यदि आप वास्तव में मेरी कर्त्तव्यनिष्ठा और सत्याचरण से प्रसन्न हैं तो इस दुखिया स्त्री के पुत्र को जीवन दान दीजिए।'
पत्नी तथा पुत्र की इस दीन दशा को देखकर महाराज विचलित हो उठे। उस दिन एकादशी थी और महाराज ने सारा दिन उपवास रखा था। दूसरे परिवार की यह दुर्दशा देखकर उनकी [[आँख|आँखों]] में आँसू आ गए। वह भरे हुए नेत्रों से आकाश की ओर देखने लगे। मानो कह रहे हों- "हे ईश्वर! अभी और क्या-क्या दिखाओगे?" परन्तु यह तो उनके परिक्षा की घड़ी थी। उन्होंने भारी मन से अनजान बनकर उस स्त्री से कहा- "देवी! जिस सत्य की रक्षा के लिए हम लोगों ने राजभवन का त्याग किया, स्वयं को बेचा, उस सत्य की रक्षा के लिए अगर मैं इस कष्ट की घड़ी में न रह पाया तो कर्तव्यच्युत होऊँगा। यद्यपि इस समय तुम्हारी दशा अत्यन्त दयनीय है तथापि तुम मेरी सहायता करके मेरी तपस्या की रक्षा करो। 'कर' लिए बिना मैं तुम्हें पुत्र के अंतिम संस्कार की अनुमति नहीं दे सकता।" रानी ने सुनकर अपना धैर्य नहीं खोया और जैसे ही शरीर पर लिपटी हुई आधी साड़ी में से आधी फाड़कर 'कर' के रूप में देने के लिए हरिश्चन्द्र की ओर बढ़ाई तो तत्काल प्रभु प्रकट होकर बोले- "हरिश्चन्द्र! तुमने सत्य को जीवन में धारण करने का उच्चतम आदर्श स्थापित करके आचरण की सिद्धि का परिचय दिया है। तुम्हारी कर्त्तव्यनिष्ठा धन्य है, तुम [[इतिहास]] में अमर रहोगे।" राजा हरिश्चन्द्र ने प्रभु को प्रणाम करके आशीर्वाद मांगते हुए कहा- "भगवन! यदि आप वास्तव में मेरी कर्त्तव्यनिष्ठा और सत्याचरण से प्रसन्न हैं तो इस दुखिया स्त्री के पुत्र को जीवन दान दीजिए।" और फिर देखते ही देखते ईश्वर की कृपा से रोहिताश्व जीवित हो उठा। भगवान के आदेश से [[विश्वामित्र]] ने भी उनका सारा राज्य वापस लौटा दिया।"
==व्रत की विधि==
'अजा एकादशी' का व्रत करने के लिए उपरोक्त बातों का ध्यान रखने के बाद व्यक्ति को [[एकादशी]] तिथि के दिन शीघ्र उठना चाहिए। उठने के बाद नित्यक्रिया से मुक्त होने के बाद सारे घर की सफाई करनी चाहिए और इसके बाद [[तिल]] और [[मिट्टी]] के लेप का प्रयोग करते हुए, कुशा से [[स्नान]] करना चाहिए। स्नान आदि कार्य करने के बाद [[विष्णु|भगवान विष्णु]] की [[पूजा]] करनी चाहिए। भगवान श्रीविष्णु का पूजन करने के लिये एक शुद्ध स्थान पर धान्य रखने चाहिए। धान्यों के ऊपर कुम्भ स्थापित किया जाता है। कुम्भ को [[लाल रंग]] के वस्त्र से सजाया जाता है और स्थापना करने के बाद कुम्भ की [[पूजा]] की जाती है। इसके पश्चात् कुम्भ के ऊपर विष्णु जी की प्रतिमा या तस्वीर लगाई जाती है। अब इस प्रतिमा के सामने व्रत का संकल्प लिया जाता है। बिना संकल्प के व्रत करने से व्रत के पूर्ण फल नहीं मिलते हैं। संकल्प लेने के बाद भगवान की पूजा [[धूप]], [[दीपक]] और [[पुष्प]] से की जाती है।
==स्मरणीय तथ्य==
'अजा एकादशी' का व्रत करने के लिये [[दशमी]] तिथि को व्रत करने वाले व्यक्ति को व्रत संबन्धी कई बातों का ध्यान रखना चाहिए।<ref>{{cite web |url=http://www.myguru.in/Vrat_PoojanVidhi-%E0%A4%85%E0%A4%9C%E0%A4%BE-%E0%A4%8F%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%B6%E0%A5%80-Aja-Ekadasi.htm|title=अजा एकादशी|accessmonthday=26 अगस्त|accessyear= 2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref> इस दिन व्यक्ति को निम्न वस्तुओं का त्याग करना चाहिए-


और फिर देखते ही देखते ईश्वर की कृपा से रोहिताश्व जीवित हो उठा। भगवान के आदेश से विश्वामित्र जी ने भी उनका सारा राज्य वापस लौटा दिया।
#व्रत की [[दशमी|दशमी तिथि]] के दिन व्यक्ति को मांस कदापि नहीं खाना चाहिए।
#दशमी तिथि की रात्रि में मसूर की दाल खाने से बचना चाहिए। इससे व्रत के शुभ फलों में कमी होती है।
#[[चना|चने]] नहीं खाने चाहिए।
#करोदों का भोजन नहीं करना चाहिए।
#शाक आदि भोजन करने से भी व्रत के पुण्य फलों में कमी होती है।
#इस दिन [[शहद]] का सेवन करने से एकादशी व्रत के फल कम होते हैं।
#व्रत के दिन और व्रत से पहले के दिन की रात्रि में कभी भी मांग कर भोजन नहीं करना चाहिए।
#इसके अतिरिक्त इस दिन दूसरी बार भोजन करना सही नहीं होता है।
#व्रत के दिन और [[दशमी]] तिथि के दिन पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
#व्रत की अवधि में व्यक्ति को जुआ नहीं खेलना चाहिए।
#एकादशी व्रत हो या अन्य कोई व्रत, व्यक्ति को दिन समयावधि में शयन नहीं करना चाहिए।
#दशमी तिथि के दिन पान नहीं खाना चाहिए।
#दातुन नहीं करना चाहिए। किसी पेड़ को काटना नहीं चाहिए।
#दूसरे की निन्दा करने से बचना चाहिए।
#झूठ का त्याग करना चाहिए।


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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==संबंधित लेख==
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Latest revision as of 05:26, 6 September 2018

अजा एकादशी
अन्य नाम जया एकादशी', 'कामिका एकादशी'
अनुयायी हिन्दू अनुयायी
तिथि भाद्रपद मास, कृष्ण पक्ष की एकादशी
धार्मिक मान्यता अजा एकादशी व्रत करने से पूर्वजन्म की बाधाएँ दूर हो जाती हैं। व्यक्ति को सुख-समृद्धि के साथ ही हज़ार गौदान करने के समान फल मिलता है।
संबंधित लेख विष्णु, एकादशी, भाद्रपद मास, हरिश्चन्द्र
अन्य जानकारी अजा एकादशी के दिन भगवान विष्णु के 'उपेन्द्र' स्वरूप की पूजा-अराधना की जाती है तथा रात्रि जागरण किया जाता है।

अजा एकादशी या 'कामिका एकादशी' का व्रत भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की एकादशी को किया जाता है। इस एकादशी के दिन किया जाने वाला व्रत समस्त पापों और कष्टों को नष्ट करके हर प्रकार की सुख-समृद्धि प्रदान करता है। अजा एकादशी के व्रत को करने से पूर्वजन्म की बाधाएँ दूर हो जाती हैं। इस एकादशी को 'जया एकादशी' तथा 'कामिका एकादशी' भी कहते हैं। इस एकादशी के दिन भगवान विष्णु के 'उपेन्द्र' स्वरूप की पूजा अराधना की जाती है तथा रात्रि जागरण किया जाता है। इस पवित्र एकादशी के फल लोक और परलोक दोनों में उत्तम कहे गये है। अजा एकादशी व्रत करने से व्यक्ति को हज़ार गौदान करने के समान फल प्राप्त होते हैं। व्यक्ति द्वारा जाने-अनजाने में किए गये सभी पाप समाप्त होते है और जीवन में सुख-समृ्द्धि दोनों उसे प्राप्ति होती हैं।

कथा

एक बार राजा हरिश्चन्द्र ने स्वप्न देखा कि उन्होंने अपना सारा राज्य दान में दे दिया है। राजा ने स्वप्न में जिस व्यक्ति को अपना राज्य दान में दिया था, उसकी आकृति महर्षि विश्वामित्र से मिलती-जुलती थी। अगले दिन महर्षि उनके दरबार में पहुँचे। तब सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र ने स्वप्न में दिया अपना सारा राज्य उन्हें सौंप दिया। जब राजा दरबार से चलने लगे, तभी विश्वामित्र ने राजा से पाँच सौ स्वर्ण मुद्राएँ मांगी। राजा ने कहा- "हे ऋषिवर! आप पाँच सौ क्या, जितनी चाहें मुद्राएँ ले सकते हैं।" विश्वामित्र ने कहा- "तुम भूल रहे हो राजन, राज्य के साथ राजकोष तो आप पहले ही दान कर चुके हैं। क्या दान की हुई वस्तु दक्षिणा में देना चाहते हो।"

तब राजा हरिश्चन्द्र को भूल का एहसास हुआ। फिर उन्होंने पत्नी तथा पुत्र को बेचकर स्वर्ण मुद्राएँ जुटाईं तो सही, परन्तु वे भी पूरी न हो सकीं। तब मुद्राएँ पूरी करने के लिए उन्होंने स्वयं को बेच दिया। राजा हरिश्चन्द्र ने जिसके पास स्वयं को बेचा था, वह जाति से डोम था। वह श्मशान का स्वामी होने के नाते मृतकों के संबंधियों से 'कर' लेकर उन्हें शवदाह की स्वीकृति देता था। उस डोम ने राजा हरिश्चन्द्र को इस कार्य के लिए तैनात कर दिया। उनका कार्य था, जो भी व्यक्ति अपने संबंधी का शव लेकर 'अंतिम संस्कार' के लिए श्मशान में आए, हरिश्चन्द्र उससे 'कर' वसूल करके उसे अंतिम संस्कार की स्वीकृति दें, अन्यथा संस्कार न करने दिया जाए। राजा हरिश्चन्द्र इसे अपना कर्तव्य समझकर विधिवत पालन करने लगे।

राजा हरिश्चन्द्र को अनेक बार अपनी परीक्षा देनी पड़ी। एक दिन राजा हरिश्चन्द्र का एकादशी का व्रत था। हरिश्चन्द्र अर्द्धरात्रि में श्मशान में पहरा दे रहे थे। तभी वहाँ एक स्त्री अपने पुत्र का दाह संस्कार करने के लिए आई। वह इतनी निर्धन थी कि उसके पास शव को ढकने के लिए कफ़न तक न था। शव को ढकने के लिए उसने अपनी आधी साड़ी फाड़कर कफ़न बनाया था। राजा हरिश्चन्द्र ने उससे कर माँगा। परन्तु उस अवला के पास कफ़न तक के लिए तो पैसा था नहीं, फिर भला 'कर' अदा करने के लिए धन कहाँ से आता? कर्तव्यनिष्ठ महाराज ने उसे शवदाह की आज्ञा नहीं दी। बेचारी स्त्री बिलख कर रोने लगी। एक तो पुत्र की मृत्यु का शोक, ऊपर से 'अंतिम संस्कार' न होने पर शव की दुर्गति होने की आशंका। उसी समय आकाश में घने काले-काले बादल मंडराने लगे। पानी बरसने लगा। बिजली चमकने लगी। बिजली के प्रकाश में राजा ने जब उस स्त्री को देखा, तो वह चौंक उठे। वह उनकी पत्नी तारामती थी और मृतक बालक था, उनका इकलौता पुत्र रोहिताश्व, जिसका सांप के काटने से असमय ही देहान्त हो गया था।

पत्नी तथा पुत्र की इस दीन दशा को देखकर महाराज विचलित हो उठे। उस दिन एकादशी थी और महाराज ने सारा दिन उपवास रखा था। दूसरे परिवार की यह दुर्दशा देखकर उनकी आँखों में आँसू आ गए। वह भरे हुए नेत्रों से आकाश की ओर देखने लगे। मानो कह रहे हों- "हे ईश्वर! अभी और क्या-क्या दिखाओगे?" परन्तु यह तो उनके परिक्षा की घड़ी थी। उन्होंने भारी मन से अनजान बनकर उस स्त्री से कहा- "देवी! जिस सत्य की रक्षा के लिए हम लोगों ने राजभवन का त्याग किया, स्वयं को बेचा, उस सत्य की रक्षा के लिए अगर मैं इस कष्ट की घड़ी में न रह पाया तो कर्तव्यच्युत होऊँगा। यद्यपि इस समय तुम्हारी दशा अत्यन्त दयनीय है तथापि तुम मेरी सहायता करके मेरी तपस्या की रक्षा करो। 'कर' लिए बिना मैं तुम्हें पुत्र के अंतिम संस्कार की अनुमति नहीं दे सकता।" रानी ने सुनकर अपना धैर्य नहीं खोया और जैसे ही शरीर पर लिपटी हुई आधी साड़ी में से आधी फाड़कर 'कर' के रूप में देने के लिए हरिश्चन्द्र की ओर बढ़ाई तो तत्काल प्रभु प्रकट होकर बोले- "हरिश्चन्द्र! तुमने सत्य को जीवन में धारण करने का उच्चतम आदर्श स्थापित करके आचरण की सिद्धि का परिचय दिया है। तुम्हारी कर्त्तव्यनिष्ठा धन्य है, तुम इतिहास में अमर रहोगे।" राजा हरिश्चन्द्र ने प्रभु को प्रणाम करके आशीर्वाद मांगते हुए कहा- "भगवन! यदि आप वास्तव में मेरी कर्त्तव्यनिष्ठा और सत्याचरण से प्रसन्न हैं तो इस दुखिया स्त्री के पुत्र को जीवन दान दीजिए।" और फिर देखते ही देखते ईश्वर की कृपा से रोहिताश्व जीवित हो उठा। भगवान के आदेश से विश्वामित्र ने भी उनका सारा राज्य वापस लौटा दिया।"

व्रत की विधि

'अजा एकादशी' का व्रत करने के लिए उपरोक्त बातों का ध्यान रखने के बाद व्यक्ति को एकादशी तिथि के दिन शीघ्र उठना चाहिए। उठने के बाद नित्यक्रिया से मुक्त होने के बाद सारे घर की सफाई करनी चाहिए और इसके बाद तिल और मिट्टी के लेप का प्रयोग करते हुए, कुशा से स्नान करना चाहिए। स्नान आदि कार्य करने के बाद भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिए। भगवान श्रीविष्णु का पूजन करने के लिये एक शुद्ध स्थान पर धान्य रखने चाहिए। धान्यों के ऊपर कुम्भ स्थापित किया जाता है। कुम्भ को लाल रंग के वस्त्र से सजाया जाता है और स्थापना करने के बाद कुम्भ की पूजा की जाती है। इसके पश्चात् कुम्भ के ऊपर विष्णु जी की प्रतिमा या तस्वीर लगाई जाती है। अब इस प्रतिमा के सामने व्रत का संकल्प लिया जाता है। बिना संकल्प के व्रत करने से व्रत के पूर्ण फल नहीं मिलते हैं। संकल्प लेने के बाद भगवान की पूजा धूप, दीपक और पुष्प से की जाती है।

स्मरणीय तथ्य

'अजा एकादशी' का व्रत करने के लिये दशमी तिथि को व्रत करने वाले व्यक्ति को व्रत संबन्धी कई बातों का ध्यान रखना चाहिए।[1] इस दिन व्यक्ति को निम्न वस्तुओं का त्याग करना चाहिए-

  1. व्रत की दशमी तिथि के दिन व्यक्ति को मांस कदापि नहीं खाना चाहिए।
  2. दशमी तिथि की रात्रि में मसूर की दाल खाने से बचना चाहिए। इससे व्रत के शुभ फलों में कमी होती है।
  3. चने नहीं खाने चाहिए।
  4. करोदों का भोजन नहीं करना चाहिए।
  5. शाक आदि भोजन करने से भी व्रत के पुण्य फलों में कमी होती है।
  6. इस दिन शहद का सेवन करने से एकादशी व्रत के फल कम होते हैं।
  7. व्रत के दिन और व्रत से पहले के दिन की रात्रि में कभी भी मांग कर भोजन नहीं करना चाहिए।
  8. इसके अतिरिक्त इस दिन दूसरी बार भोजन करना सही नहीं होता है।
  9. व्रत के दिन और दशमी तिथि के दिन पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
  10. व्रत की अवधि में व्यक्ति को जुआ नहीं खेलना चाहिए।
  11. एकादशी व्रत हो या अन्य कोई व्रत, व्यक्ति को दिन समयावधि में शयन नहीं करना चाहिए।
  12. दशमी तिथि के दिन पान नहीं खाना चाहिए।
  13. दातुन नहीं करना चाहिए। किसी पेड़ को काटना नहीं चाहिए।
  14. दूसरे की निन्दा करने से बचना चाहिए।
  15. झूठ का त्याग करना चाहिए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अजा एकादशी (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 26 अगस्त, 2013।

संबंधित लेख

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