श्रावण पूर्णिमा: Difference between revisions

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Revision as of 05:38, 6 September 2010

श्रावण मास की पूर्णिमा को श्रावणी पर्व कहा जाता है। इस दिन ब्राह्मण वर्ग अपनी कर्म शुद्धि के लिए उपक्रम करते हैं। प्राचीन काल में आज के दिन ब्राह्मण अपने यजमानों को रक्षा का धागा अर्थात राखी बांधते थे और साधु-संत एक ही जगह पर चार मास रूककर अध्ययन-मनन और पठन-पाठन प्रारम्भ करते थे। ऋषि-मुनि और साधु-संन्यासी तपोवनों से आकर गांवों व नगरों के समीप रहने लगते थे और एक ही स्थान पर चार मास तक रूककर जनता में धर्म का प्रचार (चातुर्मास) करते थे। इस प्रक्रिया को श्रावणी उपक्रम कहा जाता हैं।

कृषि

भारत एक कृषि प्रधान देश है। श्रावण पूर्णिमा आ जाने पर कृषक अपनी अगली फसल के लिए आशाएं संजोता है, क्षत्रिय भी अपनी विजय यात्रा से विरत होते हैं और वैश्य भी अपने व्यापार से आराम पाते हैं। इसलिए जब साधु-संन्यासी वर्षा के कारण अपनी तपोभूमि त्यागकर नगर के समीप चौमासा बिताने आते हैं तो सभी श्रद्धालु जन उनके उपदेश सुनकर अपने समय का सदुपयोग करते हैं।

विशेष महत्व

श्रावणी उपक्रम श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को आरम्भ होता था। श्रावणी के प्रथम दिन अध्ययन का श्री गणेश होता था। श्रावणी कर्म का विशेष महत्व है। इस दिन यज्ञोपवीत के पूजन का भी विधान है। इसी दिन उपनयन संस्कार करके विद्यार्थियों को वेदों का अध्ययन एवं ज्ञानार्जन करने के लिए गुरूकुलों में भेजा जाता था।

विधि

इस दिन ब्राह्मणों को किसी नदी, तालाब के तट पर जाकर शास्त्रों में कथित विधान से श्रावणी कर्म करना चाहिए। पंचगव्य का पान करके शरीर को शुद्ध करके हवन करना 'उपक्रम' है। इसके बाद जल के सामने सूर्य की प्रशंसा करके अरून्धती सहित सातों ऋषियों की अर्चना करके दही व सत्तू की आहुति देनी चाहिए। इसे 'उत्सर्जन' कहते हैं।


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