पौर्णमासी व्रत: Difference between revisions
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*[[माघ]] पूर्णिमा को तिल का दान करना चाहिए। | *[[माघ]] पूर्णिमा को तिल का दान करना चाहिए। | ||
*[[फाल्गुन | *[[फाल्गुन]] में शुक्ल [[पंचमी]] से 15 तक आग जलाने वाली लकड़ी को चुराने की छूट बच्चों को रहती है, ऐसी लकड़ी में आग 15वीं तिथि को लगायी जाती है। | ||
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Revision as of 09:23, 9 September 2010
- भारत में धार्मिक व्रतों का सर्वव्यापी प्रचार रहा है। यह हिन्दू धर्म ग्रंथों में उल्लखित हिन्दू धर्म का एक व्रत संस्कार है।
- अग्नि पुराण [1]; कृत्यकल्पतरु [2] में पाँच व्रतों का उल्लेख है और हेमाद्रि [3] में लगभग 38 व्रतों का [4], [5]; [6]।
- आषाढ़ पूर्णिमा पर यतियों को अपने सिर मुड़ा लेने चाहिए; चातुर्मास्य में ऐसा कभी नहीं करना चाहिए।
- आषाढ़ से आगे चार या दो मासों तक उन्हें एक स्थान पर ठहराना चाहिए और व्यास पूजा करनी चाहिए [7]।
- श्रावण शुक्ल पूर्णिमा पर उपाकर्म और भाद्रपद पूर्णिमा पर नान्दीमुख पितरों के लिए श्राद्ध करना चाहिए।
- माघ पूर्णिमा को तिल का दान करना चाहिए।
- फाल्गुन में शुक्ल पंचमी से 15 तक आग जलाने वाली लकड़ी को चुराने की छूट बच्चों को रहती है, ऐसी लकड़ी में आग 15वीं तिथि को लगायी जाती है।
- चिन्तामणि [8]; विष्णुधर्मसूत्र [9] ने व्याख्या दी है कि यदि पौष की पूर्णिमा पर पुष्य नक्षत्र हो और कोई व्यक्ति वासुदेव प्रतिमा को घी से नहलाता है और स्वयं श्वेत सरसों का तेल अपने शरीर पर लगाता है और सर्वोषधि एवं सुगन्धित वस्तुओं से युक्त जल से स्नान करता है तथा विष्णु, इन्द्र एवं बृहस्पति के मन्त्रों के साथ प्रतिमा का पूजन करता है, तो वह सुख पाता है [10]।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लिंक
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