जगत नारायण लाल: Difference between revisions
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जगत नारायण लाल का जन्म [[उत्तर प्रदेश]] के [[गोरखपुर]] नगर में हुआ था। उनके पिता भगवती प्रसाद वहाँ स्टेशन मास्टर थे। जगत नारायण लाल ने [[इलाहाबाद]] से एम.ए. और क़ानून की शिक्षा पूरी की और [[पटना]] को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। उनके ऊपर [[राजेन्द्र प्रसाद|डॉ. राजेन्द्र प्रसाद]], अनुग्रह नारायण सिन्हा और [[मदन मोहन मालवीय|मदन मोहन मालवीय जी]] के विचारों का बड़ा प्रभाव था। राजेन्द्र प्रसाद के कारण वे स्वतंत्रता संग्राम में सम्मिलित हुए और मालवीय जी के कारण हिन्दू महासभा से उनकी निकटता हुई। | जगत नारायण लाल का जन्म [[उत्तर प्रदेश]] के [[गोरखपुर]] नगर में हुआ था। उनके पिता भगवती प्रसाद वहाँ स्टेशन मास्टर थे। जगत नारायण लाल ने [[इलाहाबाद]] से एम.ए. और क़ानून की शिक्षा पूरी की और [[पटना]] को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। उनके ऊपर [[राजेन्द्र प्रसाद|डॉ. राजेन्द्र प्रसाद]], अनुग्रह नारायण सिन्हा और [[मदन मोहन मालवीय|मदन मोहन मालवीय जी]] के विचारों का बड़ा प्रभाव था। राजेन्द्र प्रसाद के कारण वे स्वतंत्रता संग्राम में सम्मिलित हुए और मालवीय जी के कारण हिन्दू महासभा से उनकी निकटता हुई। |
Revision as of 11:39, 16 December 2011
जगत नारायण लाल बिहार के प्रसिद्ध सार्वजनिक कार्यकर्ता थे।
जीवन परिचय
जगत नारायण लाल का जन्म उत्तर प्रदेश के गोरखपुर नगर में हुआ था। उनके पिता भगवती प्रसाद वहाँ स्टेशन मास्टर थे। जगत नारायण लाल ने इलाहाबाद से एम.ए. और क़ानून की शिक्षा पूरी की और पटना को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। उनके ऊपर डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिन्हा और मदन मोहन मालवीय जी के विचारों का बड़ा प्रभाव था। राजेन्द्र प्रसाद के कारण वे स्वतंत्रता संग्राम में सम्मिलित हुए और मालवीय जी के कारण हिन्दू महासभा से उनकी निकटता हुई।
राजनीति सफ़र
1937 के निर्वाचन के बाद जगत नारायण लाल बिहार मंत्रिमण्डल में सभा-सचिव बने। 1940-1942 की लम्बी जेल यात्राओं के बाद 1957 में वे बिहार सरकार में मंत्री बनाए गए। सामाजिक क्षेत्र में काम करने के लिए उन्होंने दोबारा सेवा समिति का गठन किया। 1926 में उन्हें अखिल भारतीय हिन्दू महासभा का महामंत्री चुना गया था।
साम्प्रदायिक सौहार्द
जगत नारायण लाल साम्प्रदायिक सौहार्द के समर्थक थे। छुआ-छूत का निवारण और महिलाओं के उत्थान के कार्यों में भी उनकी रुचि थी। वे प्रबुद्ध प्रवक्ता थे और श्रोताओं को घंटों अपनी वाणी से मुग्ध रख सकते थे। अपने समय में बिहार के राजनीतिक और सामाजिक जीवन में उनका महत्त्वपूर्ण स्थान था। 1966 ई. में उनका देहान्त हो गया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- पुस्तक ‘भारतीय चरित कोश’ पृष्ठ संख्या-292 से
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