लाला लाजपत राय: Difference between revisions

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==जीवन परिचय==
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लाला लाजपत राय का जन्म [[पंजाब]] के मोगा ज़िले में हुआ था। 28 फ़रवरी सन 1865 को मुंशी जी की पत्नी ने एक बालक को जन्म दिया। बालक ने अपनी किलकारियों से चारों ओर खुशियां ही खुशियां बिखेर दीं। बालक के जन्म की खबर पूरे गांव में फैल गई। बालक के मुखमंडल को देखकर गांव के लोग खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। माता-पिता बड़े लाड़-प्यार से अपने बालक का लालन-पालन करते रहे। वे प्यार से अपने बच्चे को लाजपत राय कहकर बुलाते थे। लाजपत राय के पिता जी वैश्य थे, किंतु उनकी माती जी सिक्ख परिवार से थीं। दोनों के धार्मिक विचार भिन्न-भिन्न थे। वे एक साधारण, महिला थीं। वे एक हिन्दू नारी की तरह अपने पति की सेवा करती थीं।<ref>{{cite web|url=http://pustak.org/bs/home.php?bookid=3988|title=लाला लाजपतराय|accessmonthday=1अगस्त|accessyear=2010|authorlink=विनोद तिवारी|format=एच टी एम एल |publisher=मनोज पब्लिकेशन|language=हिंदी}}</ref>
लाला लाजपत राय का जन्म [[पंजाब]] के मोगा ज़िले में हुआ था। 28 फ़रवरी सन 1865 को मुंशी जी की पत्नी ने एक बालक को जन्म दिया। बालक ने अपनी किलकारियों से चारों ओर खुशियां ही खुशियां बिखेर दीं। बालक के जन्म की खबर पूरे गांव में फैल गई। बालक के मुखमंडल को देखकर गांव के लोग खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। माता-पिता बड़े लाड़-प्यार से अपने बालक का लालन-पालन करते रहे। वे प्यार से अपने बच्चे को लाजपत राय कहकर बुलाते थे। लाजपत राय के पिता जी वैश्य थे, किंतु उनकी माती जी सिक्ख परिवार से थीं। दोनों के धार्मिक विचार भिन्न-भिन्न थे। वे एक साधारण, महिला थीं। वे एक हिन्दू नारी की तरह अपने पति की सेवा करती थीं।<ref>{{cite web|url=http://pustak.org/bs/home.php?bookid=3988|title=लाला लाजपतराय|accessmonthday=1अगस्त|accessyear=2010|authorlink=विनोद तिवारी|format=एच.टी.एम.एल |publisher=मनोज पब्लिकेशन|language=हिंदी}}</ref>
स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने क़ानून की उपाधि प्राप्त करने के लिए 1880 में [[लाहौर]] के 'राजकीय कॉलेज' में प्रवेश ले लिया। इस दौरान वे [[आर्य समाज]] के आंदोलन में शामिल हो गए। लालाजी ने क़ानूनी शिक्षा पूरी करने के बाद जगरांव में वकालत शुरू कर दी। इसके बाद उन्होंने [[हरियाणा]] के [[रोहतक हरियाणा|रोहतक]] और [[हिसार]] शहरों में वकालत की।
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1912 में उन्होंने एक 'अछूत कांफ्रेस' आयोजित की थी जिसका उद्देश्य हरिजनों के उद्धार के लिये ठोस कार्य करना था।
1912 में उन्होंने एक 'अछूत कांफ्रेस' आयोजित की थी जिसका उद्देश्य हरिजनों के उद्धार के लिये ठोस कार्य करना था।
==लेखक के रूप में==
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बंगाल की खाड़ी में हज़ारों मील दूर मांडले जेल में लाला लाजपत राय का किसी से संबंध या संपर्क नहीं था। अपने समय का उपयोग उन्होंने महान अशोक, श्रीकृष्ण<ref>{{cite web|url=http://pustak.org/bs/home.php?bookid=3530|title=योगिराज श्रीकृष्ण|accessmonthday=[[3 अगस्त]]|accessyear=2010|authorlink=लाला लाजपतराय|format=एच टी एम एल |publisher=आर्य प्रकाशन मंडल|language=हिंदी}}</ref> और उनकी शिक्षा, छत्रपति शिवाजी जैसी पुस्तकें लिखने में किया। जब वे जेल से लौटे तो विकट समस्याएं सामने थीं। 1914 में विश्वयुद्ध छिड़ गया था और विदेशी सरकार ने भारतीय सैनिकों की भर्ती शुरू कर दी।
बंगाल की खाड़ी में हज़ारों मील दूर मांडले जेल में लाला लाजपत राय का किसी से संबंध या संपर्क नहीं था। अपने समय का उपयोग उन्होंने महान अशोक, श्रीकृष्ण<ref>{{cite web|url=http://pustak.org/bs/home.php?bookid=3530|title=योगिराज श्रीकृष्ण|accessmonthday=[[3 अगस्त]]|accessyear=2010|authorlink=लाला लाजपतराय|format=एच.टी.एम.एल |publisher=आर्य प्रकाशन मंडल|language=हिंदी}}</ref> और उनकी शिक्षा, छत्रपति शिवाजी जैसी पुस्तकें लिखने में किया। जब वे जेल से लौटे तो विकट समस्याएं सामने थीं। 1914 में विश्वयुद्ध छिड़ गया था और विदेशी सरकार ने भारतीय सैनिकों की भर्ती शुरू कर दी।


==नायक==
==नायक==

Revision as of 09:54, 16 November 2010

thumb|250px|लाला लाजपत राय
Lala Lajpat Rai
पंजाब केसरी लाला लाजपत राय
जन्म -1865, मृत्यु -1928

आजीवन ब्रिटिश राजशक्ति का सामना करते हुए अपने प्राणों की परवाह न करने वाले लाला लाजपतराय 'पंजाब केसरी' कहे जाते हैं। लाला लाजपत राय भारत के एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी थे। ये भारतीय 'राष्ट्रीय कांग्रेस' के 'गरम दल' के प्रमुख नेता थे। वह पूरे पंजाब के प्रतिनिधि थे। उनकी देशसेवा विख्यात है।

जीवन परिचय

लाला लाजपत राय का जन्म पंजाब के मोगा ज़िले में हुआ था। 28 फ़रवरी सन 1865 को मुंशी जी की पत्नी ने एक बालक को जन्म दिया। बालक ने अपनी किलकारियों से चारों ओर खुशियां ही खुशियां बिखेर दीं। बालक के जन्म की खबर पूरे गांव में फैल गई। बालक के मुखमंडल को देखकर गांव के लोग खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। माता-पिता बड़े लाड़-प्यार से अपने बालक का लालन-पालन करते रहे। वे प्यार से अपने बच्चे को लाजपत राय कहकर बुलाते थे। लाजपत राय के पिता जी वैश्य थे, किंतु उनकी माती जी सिक्ख परिवार से थीं। दोनों के धार्मिक विचार भिन्न-भिन्न थे। वे एक साधारण, महिला थीं। वे एक हिन्दू नारी की तरह अपने पति की सेवा करती थीं।[1] स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने क़ानून की उपाधि प्राप्त करने के लिए 1880 में लाहौर के 'राजकीय कॉलेज' में प्रवेश ले लिया। इस दौरान वे आर्य समाज के आंदोलन में शामिल हो गए। लालाजी ने क़ानूनी शिक्षा पूरी करने के बाद जगरांव में वकालत शुरू कर दी। इसके बाद उन्होंने हरियाणा के रोहतक और हिसार शहरों में वकालत की।

लाल-बाल-पाल

लाला लाजपत राय, बालगंगाधर तिलक और बिपिनचंद्र पाल को 'लाल-बाल-पाल' के नाम से जाना जाता है। इन नेताओं ने सबसे पहले भारत की पूर्ण स्वतन्त्रता की मांग उठाई।

स्वामी दयानन्द का प्रभाव

लाला लाजपत राय स्वामी दयानन्द से काफ़ी प्रभावित थे। पंजाब के 'दयानन्द एंग्लो वैदिक कालेज' की स्थापना के लिए भी आपने अथक प्रयास किये थे। स्वामी दयानन्द सरस्वती के साथ मिलकर इन्होंने आर्य समाज को पंजाब में लोकप्रिय बनाया। आर्य समाज के सक्रिय कार्यकर्ता होने के नाते उन्होंने 'दयानंद कॉलेज' के लिए कोष इकट्ठा करने का काम भी किया। डी.ए.वी. कॉलेज पहले लाहौर में स्थापित किया। लाला हंसराज के साथ 'दयानन्द एंग्लो वैदिक विद्यालयों (डी.ए.वी.) का प्रसार किया। [[चित्र:Lal-Bal-Pal.jpg|thumb|250px|लाला लाजपत राय, बालगंगाधर तिलक और बिपिनचंद्र पाल
Lala Lajpat, Bal Gangadhar Tilak and Bipinchandra Pal]]

कांग्रेस के कार्यकर्ता

हिसार में लालाजी ने कांग्रेस की बैठकों में भी भाग लेना शुरू कर दिया और धीरे-धीरे कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता बन गए।

  • 1892 में वे लाहौर चले गए। उनके हृदय में राष्ट्रीय भावना भी बचपन से ही अंकुरित हो उठी थी।
  • 1888 के कांग्रेस के 'प्रयाग सम्मेलन' में वे मात्र 23 वर्ष की आयु में शामिल हुए थे। कांग्रेस के 'लाहौर अधिवेशन' को सफल बनाने में आपका ही हाथ था।
  • वे स्वभाव से ही मानव सेवी थे। 1897 और 1899 के देशव्यापी अकाल के समय वे पीड़ितों की सेवा में जी जान से जुटे रहे। जब देश के कई हिस्सों में अकाल पड़ा तो लालाजी राहत कार्यों में सबसे अग्रिम मोर्चे पर दिखाई दिए। देश में आए भूकंप, अकाल के समय ब्रिटिश शासन ने कुछ नहीं किया। लाला जी ने स्थानीय लोगों के साथ मिलकर अनेक स्थानों पर अकाल में शिविर लगाकर लोगों की सेवा की।
  • लाला लाजपतराय के व्यक्तित्व के बारे में तत्कालीन मशहूर अंग्रेज़ लेखक विन्सन ने लिखा था-"लाजपतराय के सादगी और उदारता भरे जीवन की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। उन्होंने अशिक्षित गरीबों और असहायों की बड़ी सेवा की थी-इस क्षेत्र में अंग्रेज़ी सरकार बिल्कुल ध्यान नहीं देती थी।"
  • 1901-08 की अवधि में उन्हें फिर भूकम्प एवं अकाल पीड़ितों की मदद के लिए सामने आना पड़ा।
  • वे हिसार नगर निगम के सदस्य चुने गए और बाद में सचिव भी चुन लिए गए।

स्वदेशी आन्दोलन

उन्होंने देशभर में स्वदेशी वस्तुएँ अपनाने के लिए अभियान चलाया। अंग्रेज़ों ने जब 1905 में बंगाल का विभाजन कर दिया तो लालाजी ने सुरेंद्रनाथ बनर्जी और विपिनचंद्र पाल जैसे आंदोलनकारियों से हाथ मिला लिया और अंग्रेज़ों के इस फैसले का जमकर विरोध किया। 3 मई 1907 को ब्रितानिया हुकूमत ने उन्हें रावलपिंडी में गिरफ्तार कर लिया। रिहा होने के बाद भी लालाजी आजादी के लिए लगातार संघर्ष करते रहे।

निर्वासन

गोपालकृष्ण गोखले के साथ एक प्रतिनिधिमंडल में लाला जी इंग्लैंड गए। वहां से जापान जाने में अपने देश का हित देखा तो चले गए। लाला जी कहीं भारतीय सैनिकों की भर्ती में व्यवधान न खड़ा कर दें, इसलिए सरकार ने उनको भारत आने की अनुमति नहीं दी।

1907 में उन्हें 6 माह का निर्वासन सहना पड़ा था। वे कई बार इंग्लैंड गए जहाँ उन्होंने भारत की स्थिति में सुधार के लिए अंग्रेज़ों से विचार-विमर्श किया। प्रथम विश्व युद्ध के समय लाला जी ने अमेरिका जाकर वहाँ के जनमत को अपने अनुकूल बनाने का भी सराहनीय प्रयास किया था। लालाजी ने अमेरिका पहुँचकर वहाँ के न्यूयॉर्क शहर में अक्टूबर 1917 में 'इंडियन होम रूल लीग ऑफ अमेरिका' नाम से एक संगठन की स्थापना की। उन्होंने 'तरुण भारत' नामक एक देशप्रेम तथा नवजागृति से परिपूर्ण पुस्तक लिखी थी, जिसे ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था। अमेरिका में उन्होंने 'इंण्डियन होमरूल लीग' की स्थापना की और 'यंग इंण्डिया' नामक मासिक पत्र भी निकाला। इसी दौरान उन्होंने 'भारत का इंग्लैंड पर ऋण', 'भारत के लिए आत्मनिर्णय' आदि पुस्तकें लिखी, जो यूरोप की प्रमुख भाषाओं में अनूदित हो चुकी हैं। लालाजी परदेश में रहकर भी अपने देश और देशवासियों के उत्थान के लिए काम करते रहे।

फिर वह अमेरिका चले गए। वहां भारतीय स्वतंत्रता के लिए अमेरिकी सरकार और जनता की सहानुभूति पाने के लिए प्रयत्न किए। अपने चार वर्ष के प्रवास काल में उन्होंने 'इंडियन इन्फार्मेशन' और 'इंडियन होम रूल' दो संस्थाएं सक्रियता से चलाई। लाला लाजपतराय ने जागरूकता और स्वतंत्रता के प्रयास किए। । 'लोक सेवक मंडल' स्थापित करने के साथ वह राजनीति में आए।

हरिजन उद्धार

1912 में उन्होंने एक 'अछूत कांफ्रेस' आयोजित की थी जिसका उद्देश्य हरिजनों के उद्धार के लिये ठोस कार्य करना था।

लेखक के रूप में

बंगाल की खाड़ी में हज़ारों मील दूर मांडले जेल में लाला लाजपत राय का किसी से संबंध या संपर्क नहीं था। अपने समय का उपयोग उन्होंने महान अशोक, श्रीकृष्ण[2] और उनकी शिक्षा, छत्रपति शिवाजी जैसी पुस्तकें लिखने में किया। जब वे जेल से लौटे तो विकट समस्याएं सामने थीं। 1914 में विश्वयुद्ध छिड़ गया था और विदेशी सरकार ने भारतीय सैनिकों की भर्ती शुरू कर दी।

नायक

लालाजी ने अमेरिका पहुँचकर वहाँ के न्यूयॉर्क शहर में अक्टूबर 1917 में इंडियन होम रूल लीग ऑफ अमेरिका नाम से एक संगठन की स्थापना की। 20 फ़रवरी 1920 को जब भारत लौटे तो उस समय तक वे देशवासियों के लिए एक नायक बन चुके थे।

असहयोग आंदोलन में

लालाजी ने 1920 में कलकत्ता में कांग्रेस के एक विशेष सत्र में भाग लिया। वे गांधी जी द्वारा अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ शुरू किए गए असहयोग आंदोलन में कूद पड़े जो सैद्धांतिक तौर पर रॉलेक्ट एक्ट के विरोध में चलाया जा रहा था। सन 1920 में उन्होंने पंजाब में असहयोग आन्दोलन का नेतृत्व किया, जिसके कारण 1921 में आपको जेल हुई। इसके बाद लाला जी ने 'लोक सेवक संघ' की स्थापना की। लाला लाजपतराय के नेतृत्व में यह आंदोलन पंजाब में जंगल में आग की तरह फैल गया और जल्द ही वे 'पंजाब का शेर या पंजाब केसरी' जैसे नामों से पुकारे जाने लगे।

साइमन कमीशन

30 अक्टूबर, 1928 में उन्होंने लाहौर में 'साइमन कमीशन' के विरुद्ध आन्दोलन का भी नेतृत्व किया था और अंग्रेज़ों का दमन सहते हुए लाठी प्रहार से घायल हुए थे। इसी आघात के कारण उसी वर्ष उनका देहान्त हो गया। लालाजी ने अपना सर्वोच्च बलिदान साइमन कमीशन के समय दिया। इस घटना के सत्रह दिन बाद यानि 17 नवंबर 1928 को लाला जी ने आख़िरी सांस ली थी...

तीन फ़रवरी 1928 को कमीशन भारत पहुँचा जिसके विरोध में पूरे देश में आग भड़क उठी। लाहौर में 30 अक्टूबर 1928 को एक बड़ी घटना घटी जब लाला लाजपतराय के नेतृत्व में साइमन का विरोध कर रहे युवाओं को बेरहमी से पीटा गया। पुलिस ने लाला लाजपतराय की छाती पर निर्ममता से लाठियाँ बरसाईं। वे बुरी तरह घायल हो गए, इस समय अपने अंतिम भाषण में उन्होंने कहा,

मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक चोट ब्रिटिश साम्राज्य के क़फन की कील बनेगी।

और इस चोट ने कितने ही ऊधमसिंह और भगतसिंह तैयार कर दिए, जिनके प्रयत्नों से हमें आज़ादी मिली।

निधन

17 नवंबर 1928 को इन चोटों की वजह से उनका देहान्त हो गया।

देश भक्तों की प्रतिज्ञा

लाला जी की मृत्यु से सारा देश उत्तेजित हो उठा और चंद्रशेखर आज़ाद, भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव व अन्य क्रांतिकारियों ने लालाजी की मौत का बदला लेने का निर्णय किया । इन जाँबाज देशभक्तों ने लालाजी की मौत के ठीक एक महीने बाद अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली और 17 दिसंबर 1928 को ब्रिटिश पुलिस के अफसर सांडर्स को गोली से उड़ा दिया। लालाजी की मौत के बदले सांडर्स की हत्या के मामले में ही राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह को फाँसी की सजा सुनाई गई।

श्रद्धांजलि

"भारत के आकाश पर जब तक सूर्य का प्रकाश रहेगा, लालाजी जैसे व्यक्तियों की मृत्यु नहीं होगी। वे अमर रहेंगे।" - महात्मा गाँधी


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. लाला लाजपतराय (हिंदी) (एच.टी.एम.एल) मनोज पब्लिकेशन। अभिगमन तिथि: 1अगस्त, 2010।
  2. योगिराज श्रीकृष्ण (हिंदी) (एच.टी.एम.एल) आर्य प्रकाशन मंडल। अभिगमन तिथि: 3 अगस्त, 2010।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख

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