पौर्णमासी व्रत: Difference between revisions
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'पौर्णमासी' शब्द यों बना है– 'पूर्णों माः' ('मास' का अर्थ है-चन्द्र) पूर्णमाः, तत्र भवा पौर्णमासी (तिथिः) या 'पूर्णो मासों वर्तते अस्यामिति पौर्णमासी। [[भारत]] में धार्मिक व्रतों का सर्वव्यापी प्रचार रहा है। यह हिन्दू धर्म ग्रंथों में उल्लिखित [[हिन्दू धर्म]] का एक [[व्रत]] संस्कार है। | |||
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*[[आषाढ़]] [[पूर्णिमा]] पर यतियों को अपने सिर मुड़ा लेने चाहिए; चातुर्मास्य में ऐसा कभी नहीं करना चाहिए। | *[[आषाढ़]] [[पूर्णिमा]] पर यतियों को अपने सिर मुड़ा लेने चाहिए; चातुर्मास्य में ऐसा कभी नहीं करना चाहिए। | ||
*आषाढ़ से आगे चार या दो मासों तक उन्हें एक स्थान पर ठहराना चाहिए और व्यास पूजा करनी | *आषाढ़ से आगे चार या दो मासों तक उन्हें एक स्थान पर ठहराना चाहिए और व्यास पूजा करनी चाहिए।<ref>पु0 चिन्तामणि 284</ref> | ||
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*पूर्णिमा में यज्ञकार्य, पौष्टिक एवं मांगलिक कृत्य, संग्राम, योग्या (दीक्षान्त समारोह), सम्पूर्ण वास्तुकर्म, [[विवाह]], शिल्पकर्म, आभूषणादि, देव-प्रतिष्ठा कर्म विहित है। | |||
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*पुष्पों, चन्दन लेप, धूप आदि से सभी पूर्णिमाओं का सम्मान करना चाहिए और गृहिणी को केवल एक बार रात्रि में भोजन करना चाहिए, इसे नक्त विधि कहते हैं। | |||
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*श्रावण पूर्णिमा को उपवास, इन्द्रिय निग्रह और प्राणायाम करने चाहिए। इससे सभी पापों से मुक्ति हो जाती है।<ref>हेमाद्रि (व्रत. 2, 244)</ref> | |||
*[[कार्तिक पूर्णिमा]] पर नारी को घर की दीवार पर [[उमा]] एवं [[शिव]] का चित्र बनाना चाहिए; इन दोनों की पूजा गंध आदि से की जानी चाहिए और विशेषतः ईख या ईख के रख से बनी वस्तुओं का अर्पण करना चाहिए; बिना तिल के तेल के प्रयोग के नक्त विधि से भोजन करना चाहिए। | |||
*इस व्रत को सम्पादित करने वाली नारी सौभाग्यशाली होती है।<ref>हेमाद्रि (व्रत. 2|244), विष्णुधर्मोत्तपुराण से उद्धरण</ref> | |||
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Latest revision as of 10:39, 30 January 2015
पौर्णमासी व्रत
| |
अन्य नाम | पूर्णिमा व्रत |
अनुयायी | हिंदू |
उद्देश्य | उपवास, इन्द्रिय निग्रह और प्राणायाम करने से सभी पापों से मुक्ति हो जाती है। |
तिथि | प्रत्येक मास की पूर्णिमा |
धार्मिक मान्यता | कार्तिक पूर्णिमा पर नारी को घर की दीवार पर उमा एवं शिव का चित्र बनाना चाहिए; इन दोनों की पूजा गंध आदि से की जानी चाहिए और विशेषतः ईख या ईख के रख से बनी वस्तुओं का अर्पण करना चाहिए; बिना तिल के तेल के प्रयोग के नक्त विधि से भोजन करना चाहिए। |
संबंधित लेख | पूर्णिमा, अमावस्या |
अन्य जानकारी | पूर्णिमा पंचांग के अनुसार पंद्रहवीं और शुक्ल पक्ष की अन्तिम तिथि है। |
'पौर्णमासी' शब्द यों बना है– 'पूर्णों माः' ('मास' का अर्थ है-चन्द्र) पूर्णमाः, तत्र भवा पौर्णमासी (तिथिः) या 'पूर्णो मासों वर्तते अस्यामिति पौर्णमासी। भारत में धार्मिक व्रतों का सर्वव्यापी प्रचार रहा है। यह हिन्दू धर्म ग्रंथों में उल्लिखित हिन्दू धर्म का एक व्रत संस्कार है।
पौराणिक संदर्भ
- अग्नि पुराण[1]; कृत्यकल्पतरु[2] में पाँच व्रतों का उल्लेख है और हेमाद्रि[3] में लगभग 38 व्रतों का।[4], [5]; [6]
- आषाढ़ पूर्णिमा पर यतियों को अपने सिर मुड़ा लेने चाहिए; चातुर्मास्य में ऐसा कभी नहीं करना चाहिए।
- आषाढ़ से आगे चार या दो मासों तक उन्हें एक स्थान पर ठहराना चाहिए और व्यास पूजा करनी चाहिए।[7]
- श्रावण शुक्ल पूर्णिमा पर उपाकर्म और भाद्रपद पूर्णिमा पर नान्दीमुख पितरों के लिए श्राद्ध करना चाहिए।
- माघ पूर्णिमा को तिल का दान करना चाहिए।
- फाल्गुन में शुक्ल पंचमी से 15 तक आग जलाने वाली लकड़ी को चुराने की छूट बच्चों को रहती है, ऐसी लकड़ी में आग 15वीं तिथि को लगायी जाती है।
- चिन्तामणि[8]; विष्णुधर्मसूत्र[9] ने व्याख्या दी है कि यदि पौष की पूर्णिमा पर पुष्य नक्षत्र हो और कोई व्यक्ति वासुदेव प्रतिमा को घी से नहलाता है और स्वयं श्वेत सरसों का तेल अपने शरीर पर लगाता है और सर्वोषधि एवं सुगन्धित वस्तुओं से युक्त जल से स्नान करता है तथा विष्णु, इन्द्र एवं बृहस्पति के मन्त्रों के साथ प्रतिमा का पूजन करता है, तो वह सुख पाता है।[10]
विशेष बिन्दु
- पूर्णिमा में यज्ञकार्य, पौष्टिक एवं मांगलिक कृत्य, संग्राम, योग्या (दीक्षान्त समारोह), सम्पूर्ण वास्तुकर्म, विवाह, शिल्पकर्म, आभूषणादि, देव-प्रतिष्ठा कर्म विहित है।
- पूर्णिमा तिथि शिव पूजन सहित समस्त धार्मिक कार्यों के लिए उपयुक्त होती है।
- विशेष – पूर्णिमा तिथि राहु ग्रह की जन्म तिथि है।
- यदि पौर्णमासी या अमावास्या विद्ध हो तो वह तिथि जो प्रतिपदा से युक्त हो, मान्य होती है किन्तु वट सावित्री को छोड़कर।[11]; [12]; [13]
- माघ, कार्तिक, ज्येष्ठ एवं आषाढ़ को पूर्णिमाओं के कतिपय दान करने चाहिए।[14]
- पूर्णिमा पंचांग के अनुसार पंद्रहवीं और शुक्ल पक्ष की अन्तिम तिथि है।
- इस दिन चद्रमा आकाश में पूरा होता है।
- पूर्णिमा ही वह तिथि है, जब समुद्रीय ज्वार-भाटा अपने चरम पर होता है।
- अग्नि पुराण[15]; कृत्यकल्पतरु[16] में पाँच व्रतों का उल्लेख है।
- हेमाद्रि[17] में लगभग 38 व्रतों का; स्मृतिकौस्तुभ[18], पुरुषार्थचिन्तामणि[19]; व्रतराज[20] में भी पूर्णमासी व्रतों का उल्लेख है। ।
- पुष्पों, चन्दन लेप, धूप आदि से सभी पूर्णिमाओं का सम्मान करना चाहिए और गृहिणी को केवल एक बार रात्रि में भोजन करना चाहिए, इसे नक्त विधि कहते हैं।
- यदि सभी पूर्णिमाओं पर व्रत न किया जा सके तो कम से कम कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को अवश्य ही किया जाना चाहिए[21];
- श्रावण पूर्णिमा को उपवास, इन्द्रिय निग्रह और प्राणायाम करने चाहिए। इससे सभी पापों से मुक्ति हो जाती है।[22]
- कार्तिक पूर्णिमा पर नारी को घर की दीवार पर उमा एवं शिव का चित्र बनाना चाहिए; इन दोनों की पूजा गंध आदि से की जानी चाहिए और विशेषतः ईख या ईख के रख से बनी वस्तुओं का अर्पण करना चाहिए; बिना तिल के तेल के प्रयोग के नक्त विधि से भोजन करना चाहिए।
- इस व्रत को सम्पादित करने वाली नारी सौभाग्यशाली होती है।[23]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- REDIRECT साँचा:टिप्पणीसूची
संबंधित लेख
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- ↑ अग्नि पुराण (194
- ↑ कृत्यकल्पतरु (व्रत0 374-385
- ↑ हेमाद्रि (व्रतखण्ड 2, 160-245
- ↑ स्मृतिकौस्तुभ (432-439
- ↑ पुरुषार्थचिन्तामणि (211-314
- ↑ व्रतराज (587-645
- ↑ पु0 चिन्तामणि 284
- ↑ पु0 चिन्तामणि 309
- ↑ विष्णुधर्मसूत्र (90|3-5
- ↑ कृत्यरत्नाकर (484
- ↑ कालनिर्णय (300-301)
- ↑ कालतत्त्व विवेचन (59-61)
- ↑ पुरुषार्थचिन्तामण (281)
- ↑ एपिग्रैफिया इण्डिका, जिल्द 7
- ↑ अग्नि पुराण (194)
- ↑ कृत्यकल्पतरु (व्रत. 374-385)
- ↑ हेमाद्रि (व्रत. 2, 160-245)
- ↑ स्मृतिकौस्तुभ(432-439)
- ↑ पुरुषार्थचिन्तामणि (211-314)
- ↑ व्रतराज (587-645)
- ↑ उमा पूजा; हेमाद्रि (व्रत. 2, 243), विष्णुधर्मोत्तरपुराण से उद्धरण
- ↑ हेमाद्रि (व्रत. 2, 244)
- ↑ हेमाद्रि (व्रत. 2|244), विष्णुधर्मोत्तपुराण से उद्धरण