मौनी अमावस्या: Difference between revisions

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माघ मास की अमावस्या को मौनी अमावस्या कहते हैं। इस दिन मौन रहना चाहिए। मुनि शब्द से ही मौनी की उत्पत्ति हुई है। इसलिए इस व्रत को मौन धारण करके समापन करने वाले को मुनि पद की प्राप्ति होती है। इस दिन मौन रहकर [[यमुना नदी|यमुना]] या [[गंगा नदी|गंगा]] स्नान करना चाहिए। यदि यह अमावस्या सोमवार के दिन हो तो इसका महत्त्व और भी अधिक बढ़ जाता है। माघ मास के स्नान का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण पर्व अमावस्या ही है। माघ मास की अमावस्या और पूर्णिमा दोनों ही तिथियां पर्व हैं। इन दिनों में [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] के किसी-न-किसी भाग में [[सूर्य देवता|सूर्य]] या [[चंद्रमा देवता|चंद्रमा]] को ग्रहण हो सकता है। ऐसा विचार कर धर्मज्ञ-मनुष्य प्रत्येक अमावस्या और पूर्णिमा को स्नान दानादि [[पुण्य]] कर्म किया करते हैं।
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==मौनी अमावस्या की कथा==
==मौनी अमावस्या की कथा==
कांचीपुरी में देवस्वामी नामक एक ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम धनवती था। उनके सात पुत्र तथा एक पुत्री थी। पुत्री का नाम गुणवती था। ब्राह्मण ने सातों पुत्रों को विवाह करके बेटी के लिए वर खोजने अपने सबसे बड़े पुत्र को भेजा। उसी दौरान किसी पण्डित ने पुत्री की जन्मकुण्डली देखी और बताया-'[[सप्तपदी]] होते-होते यह कन्या विधवा हो जाएगी।' तब उस ब्राह्मण ने पण्डित से पूछा- 'पुत्री के इस वैधव्य दोष का निवारण कैसे होगा?' पंडित ने बताया-' सोमा का पूजन करने से वैधव्य दोष दूर होगा।' फिर सोमा का परिचय देते हुए उसने बताया-' वह एक धोबिन है। उसका निवास स्थान सिंहल द्वीप है। उसे जैसे-तैसे प्रसन्न करो और गुणवती के विवाह से पूर्व उसे यहाँ बुला लो।' तब देवस्वामी का सबसे छोटा लड़का बहन को अपने साथ लेकर सिहंल द्वीप जाने के लिए सागर तट पर चला गया। सागर पार करने की चिंता में दोनों एक वृक्ष की छाया में बैठ गए। उस पेड़ पर एक घोंसले में गिद्ध का परिवार रहता था। उस समय घोंसले में सिर्फ़ गिद्ध के बच्चे थे। गिद्ध के बच्चे भाई-बहन के क्रिया-कलापों को देख रहे थे। सायंकाल के समय उन बच्चों (गिद्ध के बच्चों) की मां आई तो उन्होंने भोजन नहीं किया। वे मां से बोले- 'नीचे दो प्राणी सुबह से भूखे-प्यासे बैठे हैं। जब तक वे कुछ नहीं खा लेते, तब तक हम भी कुछ नहीं खाएंगे।' तब दया और ममता के वशीभूत गिद्ध माता उनके पास आई और बोली- 'मैंने आपकी इच्छाओं को जान लिया है। इस वन में जो भी फल-फूल कंद-मूल मिलेगा, मैं ले आती हूं। आप भोजन कर लीजिए। मैं प्रात:काल आपको सागर पार कराकर सिंहल द्वीप की सीमा के पास पहुंचा दूंगी।' और वे दोनों भाई-बहन माता की सहायता से सोमा के यहाँ जा पहुंचे। वे नित्य प्रात: उठकर सोमा का घर झाड़कर लीप देते थे।
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एक दिन सोमा ने अपनी बहुओं से पूछा-'हमारे घर कौन बुहारता है, कौन लीपता-पोतता है?' सबने कहा-'हमारे सिवाय और कौन बाहर से इस काम को करने आएगा?' किंतु सोमा को उनकी बातों पर विश्वास नहीं हुआ। एक दिन उसने रहस्य जानना चाहा। वह सारी रात जागी और सबकुछ [[प्रत्यक्ष]] देखकर जान गई। सोमा का उन बहन-भाई से वार्तालाप हुआ। भाई ने सोमा को बहन संबंधी सारी बात बता दी। सोमा ने उनकी श्रम-साधना तथा सेवा से प्रसन्न होकर उचित समय पर उनके घर पहुंचने का वचन देकर कन्या के वैधव्य दोष निवारण का आश्वासन दे दिया। मगर भाई ने उससे अपने साथ चलने का आग्रह किया। आग्रह करने पर सोमा उनके साथ चल दी। चलते समय सोमा ने बहुओं से कहा-'मेरी अनुपस्थिति में यदि किसी का देहान्त हो जाए तो उसके शरीर को नष्ट मत करना। मेरा इन्तजार करना।' और फिर सोमा बहन-भाई के साथ कांचीपुरी पहुंच गई। दूसरे दिन गुणवती के विवाह का कार्यक्रम तय हो गया। सप्तपदी होते ही उसका पति मर गया। सोमा ने तुरन्त अपने संचित पुण्यों का फल गुणवती को प्रदान कर दिया। तुरन्त ही उसका पति जीवित हो उठा। सोमा उन्हें आशीर्वाद देकर अपने घर चली गई। उधर गुणवती को पुण्य-फल देने से सोमा के पुत्र, जामाता तथा पति की मृत्यु हो गई। सोमा ने पुण्य फल संचित करने के लिए मार्ग में अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष की छाया में [[विष्णु|विष्णुजी]] का पूजन करके 108 परिक्रमाएं कीं। इसके पूर्ण होने पर उसके परिवार के मृतक जन जीवित हो उठे। निष्काम भाव से सेवा का फल मधुर होता है, इस व्रत का यही लक्ष्य है।


एक दिन सोमा ने अपनी बहुओं से पूछा-'हमारे घर कौन बुहारता है, कौन लीपता-पोतता है?' सबने कहा-'हमारे सिवाय और कौन बाहर से इस काम को करने आएगा?' किंतु सोमा को उनकी बातों पर विश्वास नहीं हुआ। एक दिन उसने रहस्य जानना चाहा। वह सारी रात जागी और सबकुछ प्रत्यक्ष देखकर जान गई। सोमा का उन बहन-भाई से वार्तालाप हुआ। भाई ने सोमा को बहन संबंधी सारी बात बता दी। सोमा ने उनकी श्रम-साधना तथा सेवा से प्रसन्न होकर उचित समय पर उनके घर पहुंचने का वचन देकर कन्या के वैधव्य दोष निवारण का आश्वासन दे दिया। मगर भाई ने उससे अपने साथ चलने का आग्रह किया। आग्रह करने पर सोमा उनके साथ चल दी। चलते समय सोमा ने बहुओं से कहा-'मेरी अनुपस्थिति में यदि किसी का देहान्त हो जाए तो उसके शरीर को नष्ट मत करना। मेरा इन्तजार करना।' और फिर सोमा बहन-भाई के साथ कांचीपुरी पहुंच गई। दूसरे दिन गुणवती के विवाह का कार्यक्रम तय हो गया। सप्तपदी होते ही उसका पति मर गया। सोमा ने तुरन्त अपने संचित पुण्यों का फल गुणवती को प्रदान कर दिया। तुरन्त ही उसका पति जीवित हो उठा। सोमा उन्हें आशीर्वाद देकर अपने घर चली गई। उधर गुणवती को पुण्य-फल देने से सोमा के पुत्र, जामाता तथा पति की मृत्यु हो गई। सोमा ने पुण्य फल संचित करने के लिए मार्ग मं अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष की छाया में विष्णुजी का पूजन करके 108 परिक्रमाएं कीं। इसके पूर्ण होने पर उसके परिवार के मृतक जन जीवित हो उठे। निष्काम भाव से सेवा का फल मधुर होता है, इस व्रत का यही लक्ष्य है।
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Revision as of 14:13, 21 January 2014

मौनी अमावस्या
अनुयायी हिंदू
उद्देश्य इस व्रत को मौन धारण करके समापन करने वाले को मुनि पद की प्राप्ति होती है
तिथि माघ मास की अमावस्या
उत्सव इस दिन मौन रहकर यमुना या गंगा स्नान करना चाहिए।
अन्य जानकारी इन दिनों में पृथ्वी के किसी-न-किसी भाग में सूर्य या चंद्रमा को ग्रहण हो सकता है।

माघ मास की अमावस्या को मौनी अमावस्या कहते हैं। इस दिन मौन रहना चाहिए। मुनि शब्द से ही मौनी की उत्पत्ति हुई है। इसलिए इस व्रत को मौन धारण करके समापन करने वाले को मुनि पद की प्राप्ति होती है। इस दिन मौन रहकर यमुना या गंगा स्नान करना चाहिए। यदि यह अमावस्या सोमवार के दिन हो तो इसका महत्त्व और भी अधिक बढ़ जाता है। माघ मास के स्नान का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण पर्व अमावस्या ही है। माघ मास की अमावस्या और पूर्णिमा दोनों ही तिथियां पर्व हैं। इन दिनों में पृथ्वी के किसी-न-किसी भाग में सूर्य या चंद्रमा को ग्रहण हो सकता है। ऐसा विचार कर धर्मज्ञ-मनुष्य प्रत्येक अमावस्या और पूर्णिमा को स्नान दानादि पुण्य कर्म किया करते हैं।

मौनी अमावस्या की कथा

कांचीपुरी में देवस्वामी नामक एक ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम धनवती था। उनके सात पुत्र तथा एक पुत्री थी। पुत्री का नाम गुणवती था। ब्राह्मण ने सातों पुत्रों को विवाह करके बेटी के लिए वर खोजने अपने सबसे बड़े पुत्र को भेजा। उसी दौरान किसी पण्डित ने पुत्री की जन्मकुण्डली देखी और बताया-'सप्तपदी होते-होते यह कन्या विधवा हो जाएगी।' तब उस ब्राह्मण ने पण्डित से पूछा- 'पुत्री के इस वैधव्य दोष का निवारण कैसे होगा?' पंडित ने बताया-' सोमा का पूजन करने से वैधव्य दोष दूर होगा।' फिर सोमा का परिचय देते हुए उसने बताया-' वह एक धोबिन है। उसका निवास स्थान सिंहल द्वीप है। उसे जैसे-तैसे प्रसन्न करो और गुणवती के विवाह से पूर्व उसे यहाँ बुला लो।' तब देवस्वामी का सबसे छोटा लड़का बहन को अपने साथ लेकर सिंहल द्वीप जाने के लिए सागर तट पर चला गया। सागर पार करने की चिंता में दोनों एक वृक्ष की छाया में बैठ गए। उस पेड़ पर एक घोंसले में गिद्ध का परिवार रहता था। उस समय घोंसले में सिर्फ़ गिद्ध के बच्चे थे। गिद्ध के बच्चे भाई-बहन के क्रिया-कलापों को देख रहे थे। सायंकाल के समय उन बच्चों (गिद्ध के बच्चों) की मां आई तो उन्होंने भोजन नहीं किया। वे मां से बोले- 'नीचे दो प्राणी सुबह से भूखे-प्यासे बैठे हैं। जब तक वे कुछ नहीं खा लेते, तब तक हम भी कुछ नहीं खाएंगे।' तब दया और ममता के वशीभूत गिद्ध माता उनके पास आई और बोली- 'मैंने आपकी इच्छाओं को जान लिया है। इस वन में जो भी फल-फूल कंद-मूल मिलेगा, मैं ले आती हूं। आप भोजन कर लीजिए। मैं प्रात:काल आपको सागर पार कराकर सिंहल द्वीप की सीमा के पास पहुंचा दूंगी।' और वे दोनों भाई-बहन माता की सहायता से सोमा के यहाँ जा पहुंचे। वे नित्य प्रात: उठकर सोमा का घर झाड़कर लीप देते थे।
एक दिन सोमा ने अपनी बहुओं से पूछा-'हमारे घर कौन बुहारता है, कौन लीपता-पोतता है?' सबने कहा-'हमारे सिवाय और कौन बाहर से इस काम को करने आएगा?' किंतु सोमा को उनकी बातों पर विश्वास नहीं हुआ। एक दिन उसने रहस्य जानना चाहा। वह सारी रात जागी और सबकुछ प्रत्यक्ष देखकर जान गई। सोमा का उन बहन-भाई से वार्तालाप हुआ। भाई ने सोमा को बहन संबंधी सारी बात बता दी। सोमा ने उनकी श्रम-साधना तथा सेवा से प्रसन्न होकर उचित समय पर उनके घर पहुंचने का वचन देकर कन्या के वैधव्य दोष निवारण का आश्वासन दे दिया। मगर भाई ने उससे अपने साथ चलने का आग्रह किया। आग्रह करने पर सोमा उनके साथ चल दी। चलते समय सोमा ने बहुओं से कहा-'मेरी अनुपस्थिति में यदि किसी का देहान्त हो जाए तो उसके शरीर को नष्ट मत करना। मेरा इन्तजार करना।' और फिर सोमा बहन-भाई के साथ कांचीपुरी पहुंच गई। दूसरे दिन गुणवती के विवाह का कार्यक्रम तय हो गया। सप्तपदी होते ही उसका पति मर गया। सोमा ने तुरन्त अपने संचित पुण्यों का फल गुणवती को प्रदान कर दिया। तुरन्त ही उसका पति जीवित हो उठा। सोमा उन्हें आशीर्वाद देकर अपने घर चली गई। उधर गुणवती को पुण्य-फल देने से सोमा के पुत्र, जामाता तथा पति की मृत्यु हो गई। सोमा ने पुण्य फल संचित करने के लिए मार्ग में अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष की छाया में विष्णुजी का पूजन करके 108 परिक्रमाएं कीं। इसके पूर्ण होने पर उसके परिवार के मृतक जन जीवित हो उठे। निष्काम भाव से सेवा का फल मधुर होता है, इस व्रत का यही लक्ष्य है।


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