कालाष्टमी: Difference between revisions

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Latest revision as of 12:14, 21 March 2014

कालाष्टमी
अन्य नाम 'कालभैरव जयन्ती', 'भैरवाष्टमी', 'भैरव जयंती' 'भैरव अष्टमी'
उद्देश्य शास्त्रों के अनुसार इस दिन कालभैरव का दर्शन एवं पूजन मनवांछित फल प्रदान करता है।
प्रारम्भ पौराणिक काल
तिथि प्रत्येक माह में कृष्ण पक्ष की अष्टमी
धार्मिक मान्यता हिन्दू मान्यता के अनुसार इस दिन प्रात:काल पवित्र नदी या सरोवर में स्नान करके पितरों का श्राद्धतर्पण करके भैरव जी की पूजा व व्रत करने से समस्त विघ्न समाप्त हो जाते हैं तथा दीर्घायु प्राप्त होती है।
संबंधित लेख शिव
अन्य जानकारी यह ध्यान में रखना चाहिए कि 'कालाष्टमी' का व्रत सप्तमी तिथि के दिन भी हो सकता है। धार्मिक मूल ग्रन्थ के अनुसार जिस दिन अष्टमी तिथि रात्रि के दौरान प्रबल होती है, उस दिन व्रतराज 'कालाष्टमी' का व्रत किया जाना चाहिए।

कालाष्टमी अथवा काला अष्टमी का हिन्दू धर्म में बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रत्येक माह में कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि के दौरान इसे मनाया जाता है। 'कालभैरव' के भक्त वर्ष की सभी 'कालाष्टमी' के दिन उनकी पूजा और उनके लिए उपवास करते हैं। सबसे मुख्य 'कालाष्टमी', जिसे 'कालभैरव जयन्ती' के नाम से जाना जाता है, उत्तरी भारतीय पूर्णीमांत पंचांग के अनुसार मार्गशीर्ष के महीने में पड़ती है, जबकि दक्षिणी भारतीय अमांत पंचांग के अनुसार कार्तिक माह में पड़ती है। हालाँकि दोनों पंचांग में 'कालभैरव जयन्ती' एक ही दिन देखी जाती है। माना जाता है कि इसी दिन भगवान शिव 'भैरव' के रूप में प्रकट हुए थे। 'कालभैरव जयन्ती' को 'भैरव अष्टमी' या 'भैरवाष्टमी' के नाम से भी जाना जाता है।[1]

व्रत विधि

भगवान भोलेनाथ के भैरव रूप के स्मरण मात्र से ही सभी प्रकार के पाप और कष्ट दूर हो जाते हैं। भैरव की पूजा व उपासना से मनोवांछित फल मिलता है। अत: भैरव जी की पूजा-अर्चना करने तथा कालाष्टमी के दिन व्रत एवं षोड्षोपचार पूजन करना अत्यंत शुभ एवं फलदायक माना गया है। शास्त्रों के अनुसार इस दिन कालभैरव का दर्शन एवं पूजन मनवांछित फल प्रदान करता है।

भगवान शिव के भैरव रूप की उपासना करने वाले भक्तों को भैरवनाथ की षोड्षोपचार सहित पूजा करनी चाहिए और उन्हें अर्ध्य देना चाहिए। रात्रि के समय जागरण करके शिवशंकर एवं पार्वती की कथा एवं भजन कीर्तन करना चाहिए। भैरव कथा का श्रवण और मनन करना चाहिए। मध्य रात्रि होने पर शंख, नगाड़ा, घंटा आदि बजाकर भैरव जी की आरती करनी चाहिए। भगवान भैरवनाथ का वाहन 'श्वान' (कुत्ता) है। अत: इस दिन प्रभु की प्रसन्नता हेतु कुत्ते को भोजन कराना चाहिए। हिन्दू मान्यता के अनुसार इस दिन प्रात:काल पवित्र नदी या सरोवर में स्नान करके पितरों का श्राद्धतर्पण करके भैरव जी की पूजा व व्रत करने से समस्त विघ्न समाप्त हो जाते हैं तथा दीर्घायु प्राप्त होती है। भैरव जी की पूजा व भक्ति करने से भूत, पिशाच एवं काल भी दूर रहते हैं। व्यक्ति को कोई रोग आदि स्पर्श नहीं कर पाते। शुद्ध मन एवं आचरण से ये जो भी कार्य करते हैं, उनमें इन्हें सफलता मिलती है।[2]

माहात्म्य

कालाष्टमी के दिन काल भैरव के साथ-साथ इस दिन देवी कालिका की पूजा-अर्चना एवं व्रत का भी विधान है। काली देवी की उपासना करने वालों को अर्धरात्रि के बाद माँ की उसी प्रकार से पूजा करनी चाहिए, जिस प्रकार दुर्गापूजा में सप्तमी तिथि को देवी कालरात्रि की पूजा का विधान है। भैरव की पूजा-अर्चना करने से परिवार में सुख-शांति, समृद्धि के साथ-साथ स्वास्थ्य की रक्षा भी होती है। भैरव तंत्रोक्त, बटुक भैरव कवच, काल भैरव स्तोत्र, बटुक भैरव ब्रह्म कवच आदि का नियमित पाठ करने से अनेक समस्याओं का निदान होता है। कालभैरव अष्टमी पर भैरव के दर्शन करने से अशुभ कर्मों से मुक्ति मिल जाती है। भैरव उपासना के द्वारा क्रूर ग्रहों के प्रभाव से छुटकारा मिलता है।

कथा

भैरवाष्टमी या कालाष्टमी की कथा के अनुसार एक समय श्रीहरि विष्णु और ब्रह्मा के मध्य विवाद उत्पन्न हुआ कि उनमें से श्रेष्ठ कौन है। यह विवाद इस हद तक बढ़ गया कि समाधान के लिए भगवान शिव एक सभा का आयोजन करते हैं। इस सभा में महत्त्वपूर्ण ज्ञानी, ऋषि-मुनि, सिद्ध संत आदि उपस्थित थे। सभा में लिए गये एक निर्णय को भगवान विष्णु तो स्वीकार कर लेते हैं, किंतु ब्रह्मा जी इस निर्णय से संतुष्ट नहीं होते। वे महादेव का अपमान करने लगते हैं। शांतचित शिव यह अपमान सहन न कर सके और ब्रह्मा द्वारा अपमानित किये जाने पर उन्होंने रौद्र रुप धारण कर लिया। भगवान शंकर प्रलय के रूप में नज़र आने लगे और उनका रौद्र रुप देखकर तीनों लोक भयभीत हो गए। भगवान शिव के इसी रूद्र रूप से भगवान भैरव प्रकट हुए।[2]

भैरव जी श्वान पर सवार थे, उनके हाथ में दंड था। हाथ में दण्ड होने के कारण वे 'दण्डाधिपति' कहे गये। भैरव जी का रूप अत्यंत भयंकर था। उनके रूप को देखकर ब्रह्मा जी को अपनी ग़लती का एहसास हुआ। वह भगवान भोलेनाथ एवं भैरव की वंदना करने लगे। भैरव जी ब्रह्मा एवं अन्य देवताओं और साधुओं द्वारा वंदना करने पर शांत हो जाते हैं।

स्मरणीय तथ्य

यह ध्यान में रखना चाहिए कि 'कालाष्टमी' का व्रत सप्तमी तिथि के दिन भी हो सकता है। धार्मिक मूल ग्रन्थ के अनुसार जिस दिन अष्टमी तिथि रात्रि के दौरान प्रबल होती है, उस दिन व्रतराज 'कालाष्टमी' का व्रत किया जाना चाहिए। इसके अनुसार ही कालाष्टमी के लिए व्रत के दिन का चयन करने के लिए द्रिक पंचांग सुनिश्चित करता है कि प्रदोष के बाद कम से कम एक घटी के लिए अष्टमी को प्रबल होना चाहिए। अन्यथा कालाष्टमी पिछले दिन चली जाती है, जब रात्रि के दौरान अष्टमी तिथि के और अधिक प्रबल होने की सम्भावना होती है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 मासिक कालाष्टमी (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 21 दिसम्बर, 2013।
  2. 2.0 2.1 कालाष्टमी (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 28 अक्टूबर, 2012।

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