दुर्गा भाभी द्वारा भगतसिंह की सहायता: Difference between revisions

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==सांडर्स गोलीकाण्ड==
==सांडर्स गोलीकाण्ड==
[[19 दिसम्बर]], [[1928]] का दिन था। [[भगतसिंह]] और [[सुखदेव]] सांडर्स को गोली मारने के दो दिन बाद सीधे [[दुर्गा भाभी]] के घर पहुंचे। भगतसिंह जिस नए रूप में थे, उसमें दुर्गा उन्हें पहचान नहीं पाईं। भगतसिंह ने अपने बाल कटा लिए थे, हालांकि दुर्गा इस बात से खुश नहीं थीं कि स्कॉट बच गया; क्योंकि इससे पहले हुई एक मीटिंग में दुर्गा भाभी ने खुद स्कॉट को मारने का ऑपरेशन अपने हाथ में लेने की गुजारिश की थी, लेकिन बाकी क्रांतिकारियों ने उन्हें रोक लिया था। [[लाला लाजपत राय]] पर हुए लाठीचार्ज और उसके चलते हुई मौत को लेकर उनके दिल में काफ़ी गुस्सा भरा हुआ था। इधर [[लाहौर]] के चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात थी। दुर्गा ने उन्हें [[कोलकाता]] निकलने की सलाह दी। उस वक्त [[कांग्रेस]] का अधिवेशन कोलकाता में चल रहा था और भगवतीचरण बोहरा भी उसमें भाग लेने गए थे।
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==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
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दुर्गा भाभी द्वारा भगतसिंह की सहायता
पूरा नाम दुर्गावती देवी
जन्म 7 अक्टूबर, 1907
जन्म भूमि शहजादपुर, इलाहाबाद, 1999
मृत्यु 15 अक्टूबर, 1999
मृत्यु स्थान गाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश
अभिभावक पिता- पंडित बांके बिहारी
पति/पत्नी भगवतीचरण बोहरा
नागरिकता भारतीय
प्रसिद्धि भारतीय क्रांतिकारी
धर्म हिन्दू
संबंधित लेख भगवतीचरण बोहरा, भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु, चंद्रशेखर आज़ाद
अन्य जानकारी 'असेम्बली बम कांड' के बाद भगतसिंह आदि क्रांतिकारी गिरफ्तार हो गए थे। दुर्गा भाभी ने उन्हें छुड़ाने के लिए वकील को पैसे देने की खातिर अपने सारे गहने बेच दिए। तीन हज़ार रुपए वकील को दिए। फिर महात्मा गाँधी से भी अपील की कि भगतसिंह और बाकी क्रांतिकारियों के लिए कुछ करें।
दुर्गा भाभी विषय सूची

प्रसिद्ध क्रांतिकारी भगवतीचरण बोहरा की पत्नी दुर्गावती देवी क्रांतिकारियों के बीच दुर्गा भाभी के नाम से प्रसिद्द थीं। 'नौजवान भारत सभा' की सक्रिय सदस्या दुर्गा भाभी उस समय चर्चा में आयीं, जब नौजवान सभा ने 16 नवम्बर, 1926 को अमर शहीद करतार सिंह सराभा की शहादत का ग्यारहवीं वर्षगाँठ मनाने का निश्चय किया, जिन्हें मात्र 19 वर्ष की आयु में फाँसी के फंदे पर चढ़ा दिया गया था, क्योंकि उन्होंने 1857 की क्रान्ति की तर्ज पर अंग्रेज़ी सेना के भारतीय सैनिकों में विद्रोह की भावना उत्पन्न करके देश को आज़ाद कराने की योजना बनायी थी और इस हेतु अथक कार्य किये थे। भगतसिंह और दुर्गा भाभी के लिए सराभा सर्वकालीन नायक थे और देश के लिए सब कुछ न्योछावर करने की प्रेरणा उन्हें सराभा से ही मिलती थी।

सांडर्स गोलीकाण्ड

19 दिसम्बर, 1928 का दिन था। भगतसिंह और सुखदेव सांडर्स को गोली मारने के दो दिन बाद सीधे दुर्गा भाभी के घर पहुंचे। भगतसिंह जिस नए रूप में थे, उसमें दुर्गा उन्हें पहचान नहीं पाईं। भगतसिंह ने अपने बाल कटा लिए थे, हालांकि दुर्गा इस बात से खुश नहीं थीं कि स्कॉट बच गया; क्योंकि इससे पहले हुई एक मीटिंग में दुर्गा भाभी ने खुद स्कॉट को मारने का ऑपरेशन अपने हाथ में लेने की गुजारिश की थी, लेकिन बाकी क्रांतिकारियों ने उन्हें रोक लिया था। लाला लाजपत राय पर हुए लाठीचार्ज और उसके चलते हुई मौत को लेकर उनके दिल में काफ़ी गुस्सा भरा हुआ था। इधर लाहौर के चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात थी। दुर्गा ने उन्हें कोलकाता निकलने की सलाह दी। उस वक्त कांग्रेस का अधिवेशन कोलकाता में चल रहा था और भगवतीचरण बोहरा भी उसमें भाग लेने गए थे।

भगतसिंह की सहायता

तीनों अगले दिन लाहौर रेलवे स्टेशन पहुंचे। सूट-बूट और हैट पहने हुए भगतसिंह, उनके साथ उनका सामान उठाए नौकर के रूप में राजगुरु और थोड़ा पीछे अपने बच्चे के साथ आतीं दुर्गा देवी। दो फर्स्ट क्लास कम्पार्टमेंट की टिकटें लेकर भगतसिंह और दुर्गा मियां-बीवी की तरह बैठ गए और नौकर वाले कम्पार्टमेंट में राजगुरु बैठ गए। इसी ट्रेन में एक तीसरे डिब्बे में चंद्रशेखर आज़ाद भी थे, जो तीर्थयात्रियों के ग्रुप में शामिल होकर रामायण की चौपाइयां गाते हुए सफर कर रहे थे। [[चित्र:Durgawati-Devi-2.jpg|thumb|250px|left|दुर्गा भाभी]]


पांच सौ पुलिस वाले ट्रेन और प्लेटफॉर्म पर थे। ऐसे में सभी का बचकर निकलना चमत्कार जैसा था। दुर्गा भाभी की वजह से देश के महान क्रांतिकारियों की जान बच गई थी। ट्रेन सीधे कोलकाता की नहीं ली, क्योंकि सबकी नजर थी। चंद्रशेखर आज़ाद रास्ते में रुक गए। कानपुर से उन्होंने लखनऊ के लिए ट्रेन ली। दुर्गा भाभी ने लखनऊ से भगवतीचरण बोहरा को टेलीग्राम भेजा कि वह आ रही हैं, लेने हावड़ा स्टेशन आ जाएं। वहाँ से उन्होंने हावड़ा स्टेशन की ट्रेन ली। सीआईडी हावड़ा स्टेशन पर तैनात थी, लेकिन वह सीधे लाहौर से आने वाली ट्रेन पर नजर रख रही थी। सब लोग सुरक्षित निकल गए। राजगुरु पहले ही बनारस के लिए निकल चुके थे।


दुर्गा भाभी यानी दुर्गावती देवी मूल रूप से बंगाली थीं। कोलकाता में कुछ दिन रहकर वहाँ के कई क्रांतिकारियों से मुलाकात की। वहाँ से वह फिर बच्चे के साथ लाहौर आ गईं, लेकिन इतने बड़े क्रांतिकारियों को इतना बड़ा खतरा मोल लेकर ब्रिटिश पुलिस की नाक के नीचे से निकाल कर ले जाने का जो काम उन्होंने किया था, उसका उन्हें आज़ादी के बाद भी श्रेय नहीं मिला। उसके बाद असेम्बली बम कांड के बाद भगतसिंह आदि क्रांतिकारी गिरफ्तार हो गए। दुर्गा भाभी ने उन्हें छुड़ाने के लिए वकील को पैसे देने की खातिर अपने सारे गहने बेच दिए। तीन हज़ार रुपए वकील को दिए। फिर महात्मा गाँधी से भी अपील की कि भगतसिंह और बाकी क्रांतिकारियों के लिए कुछ करें।


दुर्गा भाभी की ननद सुशीला देवी भी कम नहीं थीं। उन्होंने अपने विवाह के लिए रखा दस तोला सोना भी क्रांतिकारियों के केस लड़ने के लिए उस वक्त बेच दिया था। सुशीला और दुर्गा ने ही असेम्बली बम कांड के लिए जाते भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त को माथे पर तिलक लगाकर विदा किया था।


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