रंगभरनी एकादशी: Difference between revisions

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#मान्यता के अनुसार इसी दिन भगवान विष्णु ने सृष्टि की रचना हेतु ब्रह्मा जी एवं आंवले के वृक्ष को जन्म दिया था।
#मान्यता के अनुसार इसी दिन भगवान विष्णु ने सृष्टि की रचना हेतु ब्रह्मा जी एवं आंवले के वृक्ष को जन्म दिया था।
#एक अन्य मान्यतानुसार इसी दिन श्याम बाबा का मस्तक पहली बार श्याम कुंड में प्रकट हुआ था। इसलिए इस दिन लाखों श्याम भक्त श्याम दर्शन हेतु खाटू जाते हैं।
#एक अन्य मान्यतानुसार इसी दिन श्याम बाबा का मस्तक पहली बार श्याम कुंड में प्रकट हुआ था। इसलिए इस दिन लाखों श्याम भक्त श्याम दर्शन हेतु खाटू जाते हैं।

Latest revision as of 07:31, 7 November 2017

रंगभरनी एकादशी
विवरण 'रंगभरनी एकादशी' का हिन्दू धर्म में बड़ा ही महत्त्व है। उत्तर प्रदेश के कई स्थानों पर इसी दिन से 'होली' प्रारम्भ हो जाती है।
अनुयायी समस्त हिन्दू तथा प्रवासी भारतीय
तिथि फाल्गुन, शुक्ल पक्ष की एकादशी
धार्मिक मान्यता माना जाता है कि इसी दिन शिव पार्वती से विवाह के पश्चात् पहली बार अपनी प्रिय नगरी काशी आये थे। रंगभरनी एकादशी का पर्व काशी में माँ पार्वती के प्रथम स्वागत का प्रतिक है।
संबंधित लेख होली, होलिका, होलिका दहन, हिरण्यकशिपु, प्रह्लाद
अन्य जानकारी 'रंगभरी एकादशी' का काशी में विशेष महत्त्व है। इस दिन बाबा विश्वनाथ का विशेष एवं भव्य श्रृंगार होता है, जो प्रतिवर्ष केवल रंगभरी एकादशी, दीपावली, अन्नकूट तथा महाशिवरात्रि पर ही होता है।

रंगभरनी एकादशी प्रत्येक वर्ष फाल्गुन माह में शुक्ल पक्ष की एकादशी को कहा जाता है। इसी दिन 'आमलकी एकादशी' भी मनाई जाती है। यह एकादशी श्री विश्वेश्वर भगवान 'काशीविश्वनाथ' के लिए क्रीड़ा का पर्व है। ऐसा माना जाता है कि इसी दिन भगवान शिव माता पार्वती के साथ काशी पहुँचे थे। इसी कारणवश इस दिन काशी में 'होली' का पर्वकाल प्रारंभ हो जाता है।

महत्त्व

पौराणिक परम्पराओं और मान्यताओं के अनुसार फाल्गुन की शुक्ल पक्ष की एकादशी को बड़ा महत्त्व दिया जाता है। इस एकादशी को 'रंगभरनी एकादशी' एवं 'आमलकी एकादशी' कहते हैं। इस एकादशी की विशेषता के तीन मुख्य कारण हैं[1]-

  1. माना जाता है कि इसी दिन शिव पार्वती से विवाह के पश्चात् पहली बार अपनी प्रिय नगरी काशी आये थे। रंगभरनी एकादशी का पर्व काशी में माँ पार्वती के प्रथम स्वागत का प्रतिक है।
  2. मान्यता के अनुसार इसी दिन भगवान विष्णु ने सृष्टि की रचना हेतु ब्रह्मा जी एवं आंवले के वृक्ष को जन्म दिया था।
  3. एक अन्य मान्यतानुसार इसी दिन श्याम बाबा का मस्तक पहली बार श्याम कुंड में प्रकट हुआ था। इसलिए इस दिन लाखों श्याम भक्त श्याम दर्शन हेतु खाटू जाते हैं।

बाबा विश्वनाथ की यात्रा

'रंगभरी एकादशी' का काशी में विशेष महत्त्व है। इस दिन बाबा विश्वनाथ का विशेष एवं भव्य श्रृंगार होता है, जो प्रतिवर्ष केवल रंगभरी एकादशी, दीपावली, अन्नकूट तथा महाशिवरात्रि पर ही होता है। इस शुभ अवसर पर शिव परिवार की चल प्रतिमायें काशी विश्वनाथ मंदिर में लाई जाती हैं। फिर बाबा श्री काशी विश्वनाथ मंगल वाध्ययंत्रो की ध्वनि के साथ अपने काशी क्षेत्र के भ्रमण पर अपनी जनता, भक्त, श्रद्धालुओं को आशीर्वाद देने सपरिवार निकलते हैं। शिवगण उनकी प्रतिमाओं पर व समस्त जनता पर रंगगुलाल उड़ाते, खुशियाँ मनाते चलते हैं। इस प्रकार काशी की सभी गलियां रंग अबीर से सराबोर हो जाती हैं और हर हर महादेव का उद्गोष सभी दिशाओ में गुंजायमान हो जाता है। इस प्रकार काशी क्षेत्र एक बार फिर से जीवित हो उठता है। इसके बाद श्री महाकाल को सपरिवार मंदिर गर्भ स्थान में ले जाकर श्रृंगार कर अबीर, रंग, गुलाल आदि चढ़ाया जाता है। इस दिन से वाराणसी में रंग खेलने का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है और वह लगातार छ: दिन तक चलता है।[1]

आँवला वृक्ष की उत्पत्ति

सृष्टि की रचना हेतु जब नारायण भगवान ने ब्रह्मा की उत्पत्ति की, उसी समय भगवान ने आंवले के वृक्ष को भी बनाया। इस वृक्ष को विष्णु ने आदि वृक्ष के रूप में प्रतिष्ठित किया। इसलिए इसके हर अंग में भगवान का स्थान माना गया है। भगवान विष्णु ने कहा है- "जो प्राणी स्वर्ग और मोक्ष प्राप्ति की कामना रखते हैं, उनके लिए फाल्गुन शुक्ल पक्ष में जो पुष्य नक्षत्र में एकादशी आती है, उस एकादशी का व्रत अत्यंत श्रेष्ठ है।" इसलिए इस एकादशी को 'आमलकी एकादशी' के नाम से जाना जाता है। इस दिन विष्णु भक्त एकादशी का व्रत रखते हैं एवं मोक्ष की प्राप्ति हेतु भगवान विष्णु और आंवले के वृक्ष की पूजा अर्चना करते हैं।

खाटूश्याम जी का मेला

फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को ही राजस्थान के सीकर में खाटूश्‍याम जी का फाल्गुन मेला लगता है। यह मेला अपने अद्भुत भक्तिमय स्वरूप और विराट जनभागीदारी के कारण राजस्थान में ही नहीं, परन्तु पूरे विश्व में विख्यात है। सीकर के खाटू मंदिर में पाण्डव महाबली भीम के पौत्र एवं घटोत्कच के पुत्र वीर बर्बरीक का शीश विग्रह रूप में विराजमान है। बर्बरीक को उनकी अतुलनीय वीरता व त्याग के कारण भगवान कृष्ण से यह वरदान मिला था कि कलियुग में बर्बरीक स्वयं कृष्ण के नाम एवं स्वरूप में पूजे जाएँगे। फलतः बर्बरीक श्री श्याम बाबा के रूप में खाटू धाम में पूजे जाते हैं। बर्बरीक का शीश फाल्गुन शुक्ल एकादशी को प्रकट हुआ था। इसलिए इस उपलक्ष्य में फाल्गुन मास में शुक्ल पक्ष की दशमी से द्वादशी तक विशाल मेला लगता है, जिसमें विश्व भर से लाखों की संख्या में श्रद्धालु दर्शन के लिये आते है। यह मेला फाल्गुन शुक्ल दशमी से द्वादशी तक तीन दिनों तक चलता है एवं यह होली से कुछ समय पूर्व ही लगता है।[1]

होली की शुरुआत

उत्तर प्रदेश के अनेक स्थानों पर 'रंगभरनी एकादशी' के दिन से होली के त्योहार की शुरूआत हो जाती है। प्रत्येक घर में सुहागिन व्रत रखने के साथ ही आंवला वृक्ष की पूजा करती हैं और पुष्पों या रंग से भगवान के साथ होली खेलतीं हैं। इसके साथ होली का क्रम प्रारंभ हो जाता है। मथुरा स्थित मंदिर श्री बांके बिहारी महाराज एवं द्वारिकाधीश महाराज में होली की शुरूआत इसी दिन से हो जाती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 क्यों है फाल्गुन शुक्ल एकादशी इतनी विशेष (हिन्दी) ऑनलाइन प्रसाद.कॉम। अभिगमन तिथि: 04 मार्च, 2015।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख

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