भगतसिंह: Difference between revisions

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[[चित्र:Bhagat-Singh.gif|thumb|सरदार भगतसिंह<br />Sardar Bhagat Singh]]
{{सूचना बक्सा स्वतन्त्रता सेनानी
शहीद--आज़म अमर शहीद सरदार भगतसिंह<br />
|चित्र=Bhagat-Singh.gif
जन्म - 1907, मृत्यु - 1931 <br />
|पूरा नाम=बलिदान-ए-आज़म अमर बलिदानी सरदार भगतसिंह
विश्व में 20वीं शताब्दी के अमर शहीदों में [[भारत]] के सरदार भगत सिंह का नाम बहुत ऊँचा है। उन्होंने देश की आज़ादी के लिए जिस साहस के साथ शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार का मुक़ाबला किया, वह आज के युवकों के लिए एक बहुत बड़ा आदर्श है। वे अपने देश के लिये ही जिए और उसी के लिए शहीद भी हो गये।  
|अन्य नाम=भागां वाला
|जन्म=[[28 सितंबर]], [[1907]]<ref name="bhagat">कुछ स्रोतों पर सरदार भगतसिंह की जन्म तिथि 27 सितम्बर, 1907 भी दी गई।</ref>
|जन्म भूमि=[[लायलपुर]], [[पंजाब]]
|अभिभावक=सरदार किशन सिंह
|पति/पत्नी=
|संतान=
|मृत्यु=[[23 मार्च]], [[1931]] ई.
|मृत्यु स्थान=[[लाहौर]], [[पंजाब]]
|मृत्यु कारण=बलिदान
|स्मारक=
|क़ब्र=
|नागरिकता=भारतीय
|प्रसिद्धि=
|धर्म=[[सिख धर्म|सिख]]
|आंदोलन=[[भारतीय स्वतंत्रता संग्राम]]
|जेल यात्रा=असेम्बली बमकाण्ड ([[8 अप्रैल]], [[1929]])
|कार्य काल=
|विद्यालय=डी.ए.वी. स्कूल
|शिक्षा=बारहवीं
|पुरस्कार-उपाधि=
|विशेष योगदान=
|संबंधित लेख=[[सुखदेव]], [[राजगुरु]], [[मैं नास्तिक क्यों हूँ? -भगतसिंह]]
|शीर्षक 1=प्रमुख संगठन
|पाठ 1='नौज़वान भारत सभा', 'कीर्ति किसान पार्टी' एवं 'हिन्दुस्तान समाजवादी गणतंत्र संघ'
|शीर्षक 2=रचनाएँ
|पाठ 2=आत्मकथा 'दि डोर टू डेथ' (मौत के दरवाज़े पर), 'आइडियल ऑफ़़ सोशलिज्म' (समाजवाद का आदर्श), 'स्वाधीनता की लड़ाई में पंजाब का पहला उभार'।
|अन्य जानकारी=
|बाहरी कड़ियाँ=
|अद्यतन=
}}'''अमर बलिदानी सरदार भगतसिंह''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Bhagat Singh'', जन्म- [[28 सितंबर]], [[1907]]<ref name="bhagat"/>, [[लायलपुर]], [[पंजाब]], मृत्यु- [[23 मार्च]], [[1931]], [[लाहौर]], पंजाब) का नाम विश्व में 20वीं शताब्दी के अमर बलिदानियों में बहुत ऊँचा है। भगतसिंह ने देश की आज़ादी के लिए जिस साहस के साथ शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार का मुक़ाबला किया, वह आज के युवकों के लिए एक बहुत बड़ा आदर्श है। भगतसिंह अपने देश के लिये ही जीये और उसी के लिए बलिदान भी दे गये।  
==जीवन परिचय==
==जीवन परिचय==
भगतसिंह का जन्म [[27 सितम्बर]], 1907 को [[पंजाब]] के जिला लायलपुर में बंगा गांव ([[पाकिस्तान]]) में हुआ था, एक देशभक्त सिख परिवार में हुआ था, जिसका अनुकूल प्रभाव उन पर पड़ा था। भगतसिंह के पिता 'सरदार किशन सिंह' एवं उनके दो चाचा 'अजीतसिंह' तथा 'स्वर्णसिंह' अंग्रेज़ों के ख़िलाफ होने के कारण जेल में बन्द थे । जिस दिन भगतसिंह पैदा हुए उनके पिता एवं चाचा को जेल से रिहा किया गया । इस शुभ घड़ी के अवसर पर भगतसिंह के घर में खुशी और भी बढ़ गयी थी । भगतसिंह की दादी ने बच्चे का नाम 'भागां वाला' (अच्छे भाग्य वाला) रखा । बाद में उन्हें 'भगतसिंह' कहा जाने लगा ।
भगतसिंह का जन्म 28 सितंबर, 1907<ref name="bhagat"/> को [[पंजाब]] के ज़िला लायलपुर में बंगा गाँव ([[पाकिस्तान]]) में हुआ था, एक देशभक्त [[सिक्ख]] परिवार में हुआ था, जिसका अनुकूल प्रभाव उन पर पड़ा था। भगतसिंह के पिता 'सरदार किशन सिंह' एवं उनके दो चाचा 'अजीतसिंह' तथा 'स्वर्णसिंह' [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] के ख़िलाफ़ होने के कारण जेल में बन्द थे। जिस दिन भगतसिंह पैदा हुए उनके पिता एवं चाचा को जेल से रिहा किया गया। इस शुभ घड़ी के अवसर पर भगतसिंह के घर में खुशी और भी बढ़ गयी थी । भगतसिंह की दादी ने बच्चे का नाम 'भागां वाला' (अच्छे भाग्य वाला) रखा। बाद में उन्हें 'भगतसिंह' कहा जाने लगा। वे 14 वर्ष की आयु से ही [[पंजाब]] की क्रान्तिकारी संस्थाओं में कार्य करने लगे थे। डी.ए.वी. स्कूल से उन्होंने नवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। [[1923]] में इंटरमीडिएट की परीक्षा पास करने के बाद उन्हें विवाह बन्धन में बाँधने की तैयारियाँ होने लगीं तो वे [[लाहौर]] से भागकर [[कानपुर]] आ गये।  
वे 14 वर्ष की आयु से ही पंजाब की क्रान्तिकारी संस्थाओं में कार्य करने लगे थे। डी॰ए॰वी॰ स्कूल से उन्होंने नवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1923 में इंटरमीडिएट की परीक्षा पास करने के बाद उन्हें विवाह बन्धन में बाँधने की तैयारियाँ होने लगी तो वे [[लाहौर]] से भागकर [[कानपुर]] आ गये।  
==सम्पादकीय लेख==
==सम्पादकीय लेख==
[[चित्र:Freedom-Fighters.jpg|thumb|250px|[[सुखदेव]], भगतसिंह, [[राजगुरु]] <br />Sukhdev, Bhagat Singh and Rajguru]]
[[कानपुर]] में उन्हें [[गणेश शंकर विद्यार्थी]] का हार्दिक सहयोग भी प्राप्त हुआ। देश की स्वतंत्रता के लिए अखिल भारतीय स्तर पर क्रान्तिकारी दल का पुनर्गठन करने का श्रेय सरदार भगतसिंह को ही जाता है। उन्होंने कानपुर के 'प्रताप' में 'बलवंत सिंह' के नाम से तथा [[दिल्ली]] में 'अर्जुन' के सम्पादकीय विभाग में 'अर्जुन सिंह' के नाम से कुछ समय काम किया और अपने को 'नौजवान भारत सभा' से भी सम्बद्ध रखा।  
कानपुर में उन्हें श्री [[गणेश शंकर विद्यार्थी]] का हार्दिक सहयोग भी प्राप्त हुआ। देश की स्वतंत्रता के लिए अखिल भारतीय स्तर पर क्रान्तिकारी दल का पुनर्गठन करने का श्रेय सरदार भगतसिंह को ही जाता है। उन्होंने कानपुर के 'प्रताप' में 'बलवंत सिंह' के नाम से तथा [[दिल्ली]] में 'अर्जुन' के सम्पादकीय विभाग में 'अर्जुन सिंह' के नाम से कुछ समय काम किया और अपने को 'नौजवान भारत सभा' से भी सम्बद्ध रखा।  
==क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में==
==क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में==
1919 में [[रॉलेक्ट एक्ट]] के विरोध में संपूर्ण भारत में प्रदर्शन हो रहे थे और इसी वर्ष 13 अप्रैल को [[जलियाँवाला बाग़|जलियांवाला बाग़ काण्ड]] हुआ । इस काण्ड का समाचार सुनकर भगतसिंह लाहौर से [[अमृतसर]] पहुंचे। देश पर मर-मिटने वाले शहीदों के प्रति श्रध्दांजलि दी तथा रक्त से भीगी मिट्टी को उन्होंने एक बोतल में रख लिया, जिससे सदैव यह याद रहे कि उन्हें अपने देश और देशवासियों के अपमान का बदला लेना है ।  
[[1919]] में [[रॉलेक्ट एक्ट]] के विरोध में संपूर्ण भारत में प्रदर्शन हो रहे थे और इसी वर्ष [[13 अप्रैल]] को [[जलियाँवाला बाग़|जलियांवाला बाग़ काण्ड]] हुआ । इस काण्ड का समाचार सुनकर भगतसिंह लाहौर से [[अमृतसर]] पहुँचे। देश पर मर-मिटने वाले बलिदानियों के प्रति श्रद्धांजलि दी तथा रक्त से भीगी मिट्टी को उन्होंने एक बोतल में रख लिया, जिससे सदैव यह याद रहे कि उन्हें अपने देश और देशवासियों के अपमान का बदला लेना है ।  
==असहयोग आंदोलन का प्रभाव==
==असहयोग आंदोलन का प्रभाव==
1920 के महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर 1921 में भगतसिंह ने स्कूल छोड़ दिया । असहयोग आंदोलन से प्रभावित छात्रों के लिए [[लाला लाजपत राय]] ने लाहौर में 'नेशनल कॉलेज' की स्थापना की थी । इसी कॉलेज में भगतसिंह ने भी प्रवेश लिया । 'पंजाब नेशनल कॉलेज' में उनकी देशभक्ति की भावना फलने-फूलने लगी । इसी कॉलेज में ही यशपाल, भगवतीचरण, [[सुखदेव]], तीर्थराम, झण्डासिंह आदि क्रांतिकारियों से संपर्क हुआ। कॉलेज में एक नेशनल नाटक क्लब भी था । इसी क्लब के माध्यम से भगतसिंह ने देशभक्तिपूर्ण नाटकों में अभिनय भी किया । ये नाटक थे -  
[[1920]] के महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर [[1921]] में भगतसिंह ने स्कूल छोड़ दिया। असहयोग आंदोलन से प्रभावित छात्रों के लिए [[लाला लाजपत राय]] ने लाहौर में 'नेशनल कॉलेज' की स्थापना की थी। इसी कॉलेज में भगतसिंह ने भी प्रवेश लिया। 'पंजाब नेशनल कॉलेज' में उनकी देशभक्ति की भावना फलने-फूलने लगी। इसी कॉलेज में ही [[यशपाल]], भगवतीचरण, [[सुखदेव]], तीर्थराम, झण्डासिंह आदि क्रांतिकारियों से संपर्क हुआ। कॉलेज में एक नेशनल नाटक क्लब भी था। इसी क्लब के माध्यम से भगतसिंह ने देशभक्तिपूर्ण नाटकों में अभिनय भी किया। ये नाटक थे -  
#राणा प्रताप,
#राणा प्रताप
#भारत-दुर्दशा और
#भारत-दुर्दशा  
#सम्राट चन्द्रगुप्त।
#सम्राट चन्द्रगुप्त<ref>[http://www.starnewsagency.in/2010/03/blog-post_23.html स्टार न्यूज एजेंसी], [http://www.nayaindia.com/news/latest-news/todayspecial/%E0%A4%AD%E0%A4%97%E0%A4%A4-%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%B9-%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%96%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B5-%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%81-%E0%A4%B6-2895.html नया इंडिया]</ref>


वे '[[चन्द्रशेखर आज़ाद]]' जैस महान क्रान्तिकारी के सम्पर्क में आये और बाद में उनके प्रगाढ़ मित्र बन गये। 1928 में 'सांडर्स हत्याकाण्ड' के वे प्रमुख नायक थे। 8 अप्रैल, 1929 को ऐतिहासिक 'असेम्बली बमकाण्ड' के भी वे प्रमुख अभियुक्त माने गये थे। जेल में उन्होंने भूख हड़ताल भी की थी। वास्तव में इतिहास का एक अध्याय ही भगतसिंह के साहस, शौर्य, दृढ़ सकंल्प और बलिदान की कहानियों से भरा पड़ा है।  
वे '[[चंद्रशेखर आज़ाद|चन्द्रशेखर आज़ाद]]' जैस महान् क्रान्तिकारी के सम्पर्क में आये और बाद में उनके प्रगाढ़ मित्र बन गये। 1928 में 'सांडर्स हत्याकाण्ड' के वे प्रमुख नायक थे। 8 अप्रैल, 1929 को ऐतिहासिक 'असेम्बली बमकाण्ड' के भी वे प्रमुख अभियुक्त माने गये थे। जेल में उन्होंने भूख हड़ताल भी की थी। वास्तव में इतिहास का एक अध्याय ही भगतसिंह के साहस, शौर्य, दृढ़ सकंल्प और बलिदान की कहानियों से भरा पड़ा है।
==सेफ्टी बिल तथा ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल का विरोध==
==सेफ्टी बिल तथा ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल का विरोध==
विचार-विमर्श के पश्चात यह निर्णय हुआ कि इस सारे कार्य को भगत सिंह, [[सुखदेव]], [[राजगुरु]] अंजाम देंगे। [[पंजाब]] के बेटों ने लाजपत राय के ख़ून का बदला ख़ून से ले लिया। सांडर्स और उसके कुछ साथी गोलियों से भून दिए गए। उन्हीं दिनों अंग्रेज़ सरकार दिल्ली की असेंबली में पब्लिक 'सेफ्टी बिल' और 'ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल' लाने की तैयारी में थी। ये बहुत ही दमनकारी कानून थे और सरकार इन्हें पास करने का फैसला कर चुकी थी। शासकों का इस बिल को कानून बनाने के पीछे उद्देश्य था कि जनता में क्रांति का जो बीज पनप रहा है उसे अंकुरित होने से पहले ही समाप्त कर दिया जाए।  
विचार-विमर्श के पश्चात् यह निर्णय हुआ कि इस सारे कार्य को भगत सिंह, [[सुखदेव]], [[राजगुरु]] अंजाम देंगे। [[पंजाब]] के बेटों ने लाजपत राय के ख़ून का बदला ख़ून से ले लिया। सांडर्स और उसके कुछ साथी गोलियों से भून दिए गए। उन्हीं दिनों अंग्रेज़ सरकार दिल्ली की असेंबली में पब्लिक 'सेफ्टी बिल' और 'ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल' लाने की तैयारी में थी। ये बहुत ही दमनकारी क़ानून थे और सरकार इन्हें पास करने का फैसला कर चुकी थी। शासकों का इस बिल को क़ानून बनाने के पीछे उद्देश्य था कि जनता में क्रांति का जो बीज पनप रहा है उसे अंकुरित होने से पहले ही समाप्त कर दिया जाए।  
==असेम्बली बमकाण्ड==
==असेम्बली बमकाण्ड==
गंभीर विचार-विमर्श के पश्चात [[8 अप्रैल]] [[1929]] का दिन असेंबली में बम फेंकने के लिए तय हुआ और इस कार्य के लिए भगत सिंह एवं [[बटुकेश्र्वर दत्त]] निश्चित हुए। यद्यपि असेंबली के बहुत से सदस्य इस दमनकारी कानून के विरुद्ध थे तथापि वायसराय इसे अपने विशेषाधिकार से पास करना चाहता था। इसलिए यही तय हुआ कि जब वायसराय पब्लिक सेफ्टी बिल को क़ानून बनाने के लिए प्रस्तुत करे, ठीक उसी समय धमाका किया जाए और ऐसा ही किया भी गया। जैसे ही बिल संबंधी घोषणा की गई तभी भगत सिंह ने बम फेंका। इसके पश्चात क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करने का दौर चला। भगत सिंह और बटुकेश्र्वर दत्त को आजीवन कारावास मिला।  
[[चित्र:Freedom-Fighters.jpg|thumb|250px|[[सुखदेव]], भगतसिंह, [[राजगुरु]] <br />Sukhdev, Bhagat Singh and Rajguru]]
गंभीर विचार-विमर्श के पश्चात् [[8 अप्रैल]] [[1929]] का दिन असेंबली में बम फेंकने के लिए तय हुआ और इस कार्य के लिए भगत सिंह एवं [[बटुकेश्वर दत्त]] निश्चित हुए। यद्यपि असेंबली के बहुत से सदस्य इस दमनकारी क़ानून के विरुद्ध थे तथापि वायसराय इसे अपने विशेषाधिकार से पास करना चाहता था। इसलिए यही तय हुआ कि जब वायसराय पब्लिक सेफ्टी बिल को क़ानून बनाने के लिए प्रस्तुत करे, ठीक उसी समय धमाका किया जाए और ऐसा ही किया भी गया। जैसे ही बिल संबंधी घोषणा की गई तभी भगत सिंह ने बम फेंका। इसके पश्चात् क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करने का दौर चला। भगत सिंह और बटुकेश्र्वर दत्त को आजीवन कारावास मिला।  


भगत सिंह और उनके साथियों पर 'लाहौर षडयंत्र' का मुकदमा भी जेल में रहते ही चला। भागे हुए क्रांतिकारियों में प्रमुख राजगुरु [[पूना]] से गिरफ़्तार करके लाए गए। अंत में अदालत ने वही फैसला दिया, जिसकी पहले से ही उम्मीद थी। भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु को मृत्युदंड की सजा मिली।  
भगत सिंह और उनके साथियों पर 'लाहौर षड़यंत्र' का मुक़दमा भी जेल में रहते ही चला। भागे हुए क्रांतिकारियों में प्रमुख राजगुरु [[पूना]] से गिरफ़्तार करके लाए गए। अंत में अदालत ने वही फैसला दिया, जिसकी पहले से ही उम्मीद थी। भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु को मृत्युदंड की सज़ा मिली।  
==फाँसी की सज़ा==
==फाँसी की सज़ा==
23 मार्च 1931 की रात भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु देशभक्ति को अपराध कहकर फांसी पर लटका दिए गए। यह भी माना जाता है कि मृत्युदंड के लिए 24 मार्च की सुबह ही तय थी, लेकिन जन रोष से डरी सरकार ने 23-24 मार्च की मध्यरात्रि ही इन वीरों की जीवनलीला समाप्त कर दी और रात के अंधेरे में ही [[सतलुज नदी|सतलुज]] के किनारे उनका अंतिम संस्कार भी कर दिया।
[[23 मार्च]], [[1931]] की रात भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु देशभक्ति को अपराध कहकर फाँसी पर लटका दिए गए। यह भी माना जाता है कि मृत्युदंड के लिए 24 मार्च की सुबह ही तय थी, लेकिन जन रोष से डरी सरकार ने 23-24 मार्च की मध्यरात्रि ही इन वीरों की जीवनलीला समाप्त कर दी और रात के अंधेरे में ही [[सतलुज नदी|सतलुज]] के किनारे उनका अंतिम संस्कार भी कर दिया। 'लाहौर षड़यंत्र' के मुक़दमे में भगतसिंह को फ़ाँसी की सज़ा मिली तथा 23 वर्ष 5 माह और 23 दिन की आयु में ही, [[23 मार्च]] [[1931]] की रात में उन्होंने हँसते-हँसते संसार से विदा ले ली। भगतसिंह के उदय से न केवल अपने देश के स्वतंत्रता संघर्ष को गति मिली वरन् नवयुवकों के लिए भी प्रेरणा स्रोत सिद्ध हुआ। वे देश के समस्त बलिदानियों के सिरमौर थे। 24 मार्च को यह समाचार जब देशवासियों को मिला तो लोग वहाँ पहुँचे, जहाँ इन बलिदानियों की पवित्र राख और कुछ अस्थियाँ पड़ी थीं। देश के दीवाने उस राख को ही सिर पर लगाए उन अस्थियों को संभाले अंग्रेज़ी साम्राज्य को उखाड़ फेंकने का संकल्प लेने लगे। देश और विदेश के प्रमुख नेताओं और पत्रों ने अंग्रेज़ी सरकार के इस काले कारनामे की तीव्र निंदा की।  
'लाहौर षड़यंत्र' के मुक़दमें में भगतसिंह को फ़ाँसी की सज़ा मिली तथा केवल 24 वर्ष की आयु में ही, 23 मार्च 1931 की रात में उन्होंने हँसते-हँसते संसार से विदा ले ली। भगतसिंह के उदय से न केवल अपने देश के स्वतंत्रता संघर्ष को गति मिली वरन् नवयुवकों के लिए भी प्रेरणा स्रोत सिद्ध हुआ। वे देश के समस्त शहीदों के सिरमौर थे।  
{| class="bharattable" border="1"
24 मार्च को यह समाचार जब देशवासियों को मिला तो लोग वहां पहुंचे, जहां इन शहीदों की पवित्र राख और कुछ अस्थियां पड़ी थीं। देश के दीवाने उस राख को ही सिर पर लगाए उन अस्थियों को संभाले अंग्रेज़ी साम्राज्य को उखाड़ फेंकने का संकल्प लेने लगे। देश और विदेश के प्रमुख नेताओं और पत्रों ने अंग्रेज़ी सरकार के इस काले कारनामे की तीव्र निंदा की।  
|-
==घटनाक्रम==
! वर्ष
*भगतसिंह ने [[लाहौर]] में 1926 में 'नौजवान भारत सभा' का गठन किया । यह सभा धर्मनिरपेक्ष संस्था थी।
! घटनाक्रम
*मई 1930 में इस सभा को गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया ।       
|-
*1927 के दिसम्बर माह में 'काकोरी केस' में रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक उल्ला, राजेन्द्र लाहिड़ी और रोशनसिंह को फांसी दे दी गई । 
| [[1919]]
*1927 में [[विजय दशमी|दशहरे]] वाले दिन छल से भगतसिंह को गिरफ़्तार कर लिया गया। झूठा मुकदमा चला किन्तु वे भगतसिंह पर आरोप सिद्ध नहीं कर पाए, मजबूरन भगतसिंह को छोड़ना पड़ा ।  
| वर्ष 1919 से लगाये गये 'शासन सुधार अधिनियमों' की जांच के लिए फ़रवरी 1928 में '[[साइमन कमीशन]]' [[मुम्बई]] पहुँचा। पूरे [[भारत]] देश में इसका व्यापक विरोध हुआ।
*8 - 9 सितम्बर, 1928 को क्रांतिकारियों की बैठक [[दिल्ली]] के फिरोजशाह के खण्डरों में हुई, जिसमें भगतसिंह के परामर्श पर 'हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन' का नाम बदलकर 'हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन' कर दिया गया ।    
|-
*वर्ष 1919 से लगाये गये 'शासन सुधार अधिनियमों' की जांच के लिए फरवरी 1928 में 'साइमन कमीशन' [[मुम्बई]] पहुंचा।
| [[1926]]
*पूरे [[भारत]] देश में इसका व्यापक विरोध हुआ।
| भगतसिंह ने [[लाहौर]] में 'नौजवान भारत सभा' का गठन किया । यह सभा धर्मनिरपेक्ष संस्था थी।  
*30 अक्टूबर, 1928 को कमीशन [[लाहौर]] पहुंचा। [[लाला लाजपत राय]] के नेतृत्व में कमीशन के विरोध में शांतिपूर्ण प्रदर्शन हुआ।
|-
*जिसमें लाला लाजपतराय पर लाठी बरसायी गयीं। वे ख़ून से लहूलुहान हो गए । भगतसिंह ने यह सब अपनी आंखों से देखा।  
| [[1927]]
*17 नवम्बर, 1928 को लाला जी का देहान्त हो गया। भगतसिंह बदला लेने के लिए तत्पर हो गए।
| [[विजय दशमी|दशहरे]] वाले दिन छल से भगतसिंह को गिरफ़्तार कर लिया गया। झूठा मुक़दमा चला किन्तु वे भगतसिंह पर आरोप सिद्ध नहीं कर पाए, मजबूरन भगतसिंह को छोड़ना पड़ा ।  
*लाला लाजपतराय की हत्या का बदला लेने के लिए 'हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन' ने भगतसिंह, [[राजगुरु]], [[सुखदेव]], [[चंद्रशेखर आज़ाद|आज़ाद]] और जयगोपाल को यह कार्य दिया। क्रांतिकारियों ने साण्डर्स को मारकर लालाजी की मौत का बदला लिया।   
|-
*जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है –  "भगतसिंह एक प्रतीक बन गया । साण्डर्स के कत्ल का कार्य तो भुला दिया गया लेकिन चिह्न शेष बना रहा और कुछ ही माह में पंजाब का प्रत्येक गांव और नगर तथा बहुत कुछ उत्तरी भारत उसके नाम से गूंज उठा । उसके बारे में बहुत से गीतों की रचना हुई और इस प्रकार उसे जो लोकप्रियता प्राप्त हुई । वह आश्चर्यचकित कर देने वाली थी।"       
| 1927
*अंग्रेज़ों से बचने के लिए भगतसिंह  भेष बदला। उन्होंनेने अपने केश और दाढ़ी कटवाकर, पैंट पहनी और हैट लगाकर  अंग्रेज़ों की आंखों में धूल झोंक कर [[कोलकाता|कलकत्ता]] पहुंचे । कुछ दिन बाद वे [[आगरा]] गए ।       
| 'काकोरी केस' में [[रामप्रसाद बिस्मिल]], अशफ़ाक उल्ला, राजेन्द्र लाहिड़ी और रोशनसिंह को फाँसी दे दी गई ।
*'हिन्दुस्तान समाजवादी गणतंत्र संघ' की केन्द्रीय कार्यकारिणी की सभा में 'पब्लिक सेफ्टी बिल' और 'डिस्प्यूट्स बिल' के विरोध में भगतसिंह ने 'केन्द्रीय असेम्बली' में बम फेंकने का प्रस्ताव रखा । भगतसिंह के सहायक बटुकेश्वर दत्त बने ।       
|-
*8 अप्रैल, 1929 को दोनों ने निश्चित समय पर असेम्बली में बम फेंका। दोनों ने नारा लगाया 'इन्कलाब जिन्दाबाद'… ,अनेक पर्चे भी फेंके, जिनमें जनता का रोष प्रकट किया गया था । बम फेंककर इन्होंने स्वयं को गिरफ़्तार कराया । 
| सितंबर, 1928
*अपनी आवाज जनता तक पहुंचाने के लिए अपने मुकदमे की पैरवी उन्होंने खुद की।  
| क्रांतिकारियों की बैठक [[दिल्ली]] के फिरोजशाह के खंडहरों में हुई, जिसमें भगतसिंह के परामर्श पर 'हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन' का नाम बदलकर 'हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन' कर दिया गया ।  
*7 मई, 1929 को भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त के विरुध्द अदालत का नाटक शुरू हुआ ।  
|-
*भगतसिंह ने 6 जून, 1929 के दिन अपने पक्ष में वक्तव्य दिया, जिसमें भगतसिंह ने स्वतंत्रता, साम्राज्यवाद, क्रांति पर विचार रखे और क्रांतिकारियों के विचार सारी दुनिया के सामने आये।                    
| [[30 अक्टूबर]], 1928  
*12 जून, 1929 को सेशन जज ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत आजीवन कारावास की सजा दी ।
| कमीशन [[लाहौर]] पहुँचा। [[लाला लाजपत राय]] के नेतृत्व में कमीशन के विरोध में शांतिपूर्ण प्रदर्शन हुआ। जिसमें [[लाला लाजपतराय]] पर लाठी बरसायी गयीं। वे ख़ून से लहूलुहान हो गए। भगतसिंह ने यह सब अपनी आँखों से देखा।  
*इन्होंने सेशन जज के निर्णय के विरुध्द लाहौर हाइकोर्ट में अपील की । यहां भगतसिंह ने पुन: अपना भाषण दिया ।  
|-
*13 जनवरी, 1930 को हाईकोर्ट ने सेशन जज के निर्णय को मान्य ठहराया ।       
| [[17 नवम्बर]], 1928  
*इनके मुकदमे को ट्रिब्यूनल के हवाले कर दिया ।  
| लाला जी का देहान्त हो गया। भगतसिंह बदला लेने के लिए तत्पर हो गए। लाला लाजपतराय की हत्या का बदला लेने के लिए 'हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन' ने भगतसिंह, [[राजगुरु]], [[सुखदेव]], [[चंद्रशेखर आज़ाद|आज़ाद]] और जयगोपाल को यह कार्य दिया। क्रांतिकारियों ने साण्डर्स को मारकर लालाजी की मौत का बदला लिया।   
*5 मई, 1930 को पुंछ हाउस, लाहौर में मुकदमे की सुनवाई शुरू की गई । आज़ाद ने भगतसिंह को जेल से छुड़ाने की योजना भी बनाई,
|-
*28 मई को भगवतीचरण बोहरा बम का परीक्षण करते समय घायल हो गए। उनकी मृत्यु हो जाने से यह योजना सफल नहीं हो सकी । अदालत की कार्यवाही लगभग तीन महीने तक चलती रही ।  
| [[8 अप्रैल]], 1929
*26 अगस्त, 1930 को अदालत ने भगतसिंह को भारतीय दंड संहिता की धारा 129, 302 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 तथा 6 एफ तथा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 120 के अंतर्गत अपराधी सिध्द किया।  
| भगतसिंह ने निश्चित समय पर असेम्बली में बम फेंका। दोनों ने नारा लगाया 'इन्कलाब ज़िन्दाबाद'… ,अनेक पर्चे भी फेंके, जिनमें जनता का रोष प्रकट किया गया था। बम फेंककर इन्होंने स्वयं को गिरफ़्तार कराया। अपनी आवाज़ जनता तक पहुँचाने के लिए अपने मुक़दमे की पैरवी उन्होंने खुद की।  
*7 अक्तूबर, 1930 को 68 पृष्ठों का निर्णय दिया, जिसमें भगतसिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी की सजा दी गई ।
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*लाहौर में धारा 144 लगा दी गई ।      
| [[7 मई]], 1929
*नवम्बर 1930 में प्रिवी परिषद में अपील दायर की गई परन्तु यह अपील 10 जनवरी, 1931 को रद्द कर दी गई ।       
| भगतसिंह और [[बटुकेश्वर दत्त]] के विरुद्ध अदालत का नाटक शुरू हुआ ।  
*प्रिवी परिषद में अपील रद्द किए जाने पर भारत में ही नहीं, विदेशों में भी लोगों ने इसके विरुद्ध आवाज उठाई ।  
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| [[6 जून]], [[1929]]
| भगतसिंह ने अपने पक्ष में वक्तव्य दिया, जिसमें भगतसिंह ने स्वतंत्रता, साम्राज्यवाद, क्रांति पर विचार रखे और क्रांतिकारियों के विचार सारी दुनिया के सामने आये।  
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| [[12 जून]], 1929
| सेशन जज ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत आजीवन कारावास की सज़ा दी। इन्होंने सेशन जज के निर्णय के विरुद्ध  लाहौर हाइकोर्ट में अपील की। यहाँ भगतसिंह ने पुन: अपना भाषण दिया ।  
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| [[13 जनवरी]], 1930
| हाईकोर्ट ने सेशन जज के निर्णय को मान्य ठहराया। इनके मुक़दमे को ट्रिब्यूनल के हवाले कर दिया ।  
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| [[5 मई]], 1930
| पुंछ हाउस, [[लाहौर]] में मुक़दमे की सुनवाई शुरू की गई। आज़ाद ने भगतसिंह को जेल से छुड़ाने की योजना भी बनाई।
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| [[28 मई]], 1930
| भगवतीचरण बोहरा बम का परीक्षण करते समय घायल हो गए। उनकी मृत्यु हो जाने से यह योजना सफल नहीं हो सकी। अदालत की कार्रवाई लगभग तीन महीने तक चलती रही ।
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| मई [[1930]]
| 'नौजवान भारत सभा' को गैर-क़ानूनी घोषित कर दिया गया।
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| [[26 अगस्त]], 1930
| अदालत ने भगतसिंह को भारतीय दंड संहिता की धारा 129, 302 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 तथा 6 एफ तथा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 120 के अंतर्गत अपराधी सिद्ध किया।  
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| [[7 अक्तूबर]], 1930
| 68 पृष्ठों का निर्णय दिया, जिसमें भगतसिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फाँसी की सज़ा दी गई। लाहौर में धारा 144 लगा दी गई ।
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| नवम्बर 1930  
| प्रिवी परिषद में अपील दायर की गई परन्तु यह अपील 10 जनवरी, 1931 को रद्द कर दी गई। प्रिवी परिषद में अपील रद्द किए जाने पर भारत में ही नहीं, विदेशों में भी लोगों ने इसके विरुद्ध आवाज़ उठाई ।  
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| [[24 मार्च]], 1931
| फाँसी का समय प्रात:काल 24 मार्च, 1931 निर्धारित हुआ था।
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| [[23 मार्च]], 1931
| सरकार ने 23 मार्च को सायंकाल 7.33 बजे, उन्हें एक दिन पहले ही प्रात:काल की जगह संध्या समय तीनों देशभक्त क्रांतिकारियों को एक साथ फाँसी दी। भगतसिंह तथा उनके साथियों के बलिदान की खबर से सारा देश शोक के सागर में डूब चुका था। [[मुम्बई]], मद्रास तथा कलकत्ता जैसे महानगरों का माहौल चिन्तनीय हो उठा। भारत के ही नहीं विदेशी अखबारों ने भी अंग्रेज़ सरकार के इस कृत्य की बहुत आलोचनाएं कीं।
|}
==अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य==
*[[जवाहरलाल नेहरू]] ने अपनी आत्मकथा में लिखा है- <blockquote>भगतसिंह एक प्रतीक बन गया । साण्डर्स के कत्ल का कार्य तो भुला दिया गया लेकिन चिह्न शेष बना रहा और कुछ ही माह में पंजाब का प्रत्येक गांव और नगर तथा बहुत कुछ उत्तरी भारत उसके नाम से गूँज उठा । उसके बारे में बहुत से गीतों की रचना हुई और इस प्रकार उसे जो लोकप्रियता प्राप्त हुई । वह आश्चर्यचकित कर देने वाली थी</blockquote>
*वह बलिदानी [[रामप्रसाद बिस्मिल]] की यह पंक्तियाँ गाते थे–<br /> 
<poem>मेरा रंग दे बसंती चोला ।       
इसी रंग में रंग के शिवा ने माँ का बंधन खोला ॥     
मेरा रंग दे बसंती चोला       
यही रंग [[हल्दीघाटी]] में खुलकर था खेला ।       
नव बसंत में भारत के हित वीरों का यह मेला       
मेरा रंग दे बसन्ती चोला।</poem>   
*अंग्रेज़ों से बचने के लिए भगतसिंह ने भेष बदला। उन्होंने अपने केश और दाढ़ी कटवाकर, पैंट पहनी और हैट लगाकर  अंग्रेज़ों की आँखों में धूल झोंक कर [[कोलकाता|कलकत्ता]] पहुँचे । कुछ दिन बाद वे [[आगरा]] गए।     
*'हिन्दुस्तान समाजवादी गणतंत्र संघ' की केन्द्रीय कार्यकारिणी की सभा में 'पब्लिक सेफ्टी बिल' और 'डिस्प्यूट्स बिल' के विरोध में भगतसिंह ने 'केन्द्रीय असेम्बली' में बम फेंकने का प्रस्ताव रखा । भगतसिंह के सहायक [[बटुकेश्वर दत्त]] बने ।       
*पिस्तौल और पुस्तक भगतसिंह के दो परम विश्वसनीय मित्र थे।  
*पिस्तौल और पुस्तक भगतसिंह के दो परम विश्वसनीय मित्र थे।  
*जेल में पुस्तकें पढक़र ही वे अपने समय का सदुपयोग करते थे, जेल की कालकोठरी में उन्होंने कुछ पुस्तकें भी लिखी-  
*जेल में पुस्तकें पढक़र ही वे अपने समय का सदुपयोग करते थे, जेल की कालकोठरी में उन्होंने कुछ पुस्तकें भी लिखीं-  
#आत्मकथा, दि डोर टू डेथ (मौत के दरवाजे पर),  
#आत्मकथा, दि डोर टू डेथ (मौत के दरवाज़े पर),  
#आइडियल ऑफ सोशलिज्म (समाजवाद का आदर्श),  
#आइडियल ऑफ़ सोशलिज़्म (समाजवाद का आदर्श),  
#स्वाधीनता की लड़ाई में पंजाब का पहला उभार।  
#स्वाधीनता की लड़ाई में पंजाब का पहला उभार।  
<poem>वह शहीद राम प्रसाद बिस्मिल की यह पंक्तियां गाते थे –     
*भगतसिंह की शोहरत से प्रभावित होकर डॉ. पट्टाभिसीतारमैया ने लिखा है —  
मेरा रंग दे बसंती चोला ।       
<blockquote>यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भगतसिंह का नाम भारत में उतना ही लोकप्रिय था, जितना कि [[महात्मा गाँधी|गाँधीजी]] का। </blockquote>   
इसी रंग में रंग के शिवा ने मां का बंधन खोला ॥     
*[[लाहौर]] के उर्दू दैनिक समाचार पत्र 'पयाम' ने लिखा था —   
मेरा रंग दे बसंती चोला       
<blockquote>हिन्दुस्तान इन तीनों बलिदानियों को पूरे ब्रितानिया से ऊँचा समझता है। अगर हम हज़ारों-लाखों अंग्रेज़ों को मार भी गिराएँ, तो भी हम पूरा बदला नहीं चुका सकते। यह बदला तभी पूरा होगा, अगर तुम हिन्दुस्तान को आज़ाद करा लो, तभी ब्रितानिया की शान मिट्टी में मिलेगी। ओ ! भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव, अंग्रेज़ खुश हैं कि उन्होंने तुम्हारा ख़ून कर दिया। लेकिन वो ग़लती पर हैं। उन्होंने तुम्हारा ख़ून नहीं किया, उन्होंने अपने ही भविष्य में छुरा घोंपा है। तुम ज़िन्दा हो और हमेशा ज़िन्दा रहोगे। </blockquote>
यही रंग हल्दीघाटी में खुलकर था खेला ।       
==मैं नास्तिक क्यों हूँ?==
नव बसंत में भारत के हित वीरों का यह मेला       
{{main|मैं नास्तिक क्यों हूँ? -भगतसिंह}}
मेरा रंग दे बसन्ती चोला ।      </poem>
'मैं नास्तिक क्यों हूँ' [[भारत]] के प्रसिद्ध क्रांतिकारी सरदार भगतसिंह द्वारा लिखा गया एक लेख है, जो उन्होंने [[लाहौर]] की केंद्रीय जेल में अपने बंदी जीवन के समय लिखा था। यह लेख [[27 सितम्बर]], सन [[1931]] को लाहौर के [[समाचार पत्र]] 'द पीपल' में प्रकाशित हुआ था। इस लेख में भगतसिंह ने ईश्वर कि उपस्थिति पर अनेक तर्कपूर्ण सवाल खड़े किये हैं और इस संसार के निर्माण, मनुष्य के जन्म, मनुष्य के मन में ईश्वर की कल्पना के साथ-साथ संसार में मनुष्य की दीनता, उसके शोषण, दुनिया में व्याप्त अराजकता और और वर्गभेद की स्थितियों का भी विश्लेषण किया है। यह भगतसिंह के लेखन के सबसे चर्चित हिस्सों में से एक रहा है।
*फांसी का समय प्रात:काल 24 मार्च, 1931 निर्धारित हुआ था।
*सरकार ने 23 मार्च को सायंकाल 7.33 बजे, उन्हें एक दिन पहले ही प्रात:काल की जगह संध्या समय तीनों देशभक्त क्रांतिकारियों को एक साथ फांसी दी।
*भगतसिंह तथा उनके साथियों की शहादत की खबर से सारा देश शोक के सागर में डूब चुका था ।
*मुम्बई, मद्रास तथा कलकत्ता जैसे महानगरों का माहौल चिन्तनीय हो उठा । भारत के ही नहीं विदेशी अखबारों ने भी अंग्रेज सरकार के इस कृत्य की बहुत आलोचनाएं कीं ।
*भगतसिंह की शौहरत से प्रभावित होकर डॉ. पट्टाभिसीतारमैया ने लिखा है —  
<blockquote>"यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भगतसिंह का नाम भारत में उतना ही लोकप्रिय था, जितना कि गांधीजी का।"    </blockquote>   
*लाहौर के उर्दू दैनिक समाचारपत्र 'पयाम' ने लिखा था —   
<blockquote>"हिन्दुस्तान इन तीनों शहीदों को पूरे ब्रितानिया से ऊंचा समझता है । अगर हम हजारों-लाखों अंग्रेजों को मार भी गिराएं, तो भी हम पूरा बदला नहीं चुका सकते । यह बदला तभी पूरा होगा, अगर तुम हिन्दुस्तान को आजाद करा लो, तभी ब्रितानिया की शान मिट्टी में मिलेगी। ओ ! भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव, अंग्रेज खुश हैं कि उन्होंने तुम्हारा खून कर दिया । लेकिन वो गलती पर हैं । उन्होंने तुम्हारा खून नहीं किया, उन्होंने अपने ही भविष्य में छुरा घोंपा है । तुम जिन्दा हो और हमेशा जिन्दा रहोगे।" </blockquote>  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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<references/>
==सम्बंधित लिंक==
; जन्म तिथि पर मतभेद
*[http://www.bharatdarshan.co.nz/author-profile/41/bhagat-singh-biography.html भगत सिंह]
*[http://www.culturalindia.net/leaders/bhagat-singh.html Bhagat Singh]
*[http://www.iloveindia.com/indian-heroes/bhagat-singh.html Shaheed Bhagat Singh Biography]
* भारत ज्ञानकोश खण्ड-4 पृ. 116
==बाहरी कड़ियाँ==
*[https://www.marxists.org/hindi/bhagat-singh/1929/sukhdev.htm भगत सिंह का पत्र सुखदेव के नाम]
*[http://www.shahidbhagatsingh.org/index.asp?linkid=1 shahidbhagatsingh.org]
==संबंधित लेख==
{{स्वतन्त्रता सेनानी}}
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Latest revision as of 05:53, 23 March 2022

भगतसिंह
पूरा नाम बलिदान-ए-आज़म अमर बलिदानी सरदार भगतसिंह
अन्य नाम भागां वाला
जन्म 28 सितंबर, 1907[1]
जन्म भूमि लायलपुर, पंजाब
मृत्यु 23 मार्च, 1931 ई.
मृत्यु स्थान लाहौर, पंजाब
मृत्यु कारण बलिदान
अभिभावक सरदार किशन सिंह
नागरिकता भारतीय
धर्म सिख
आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम
जेल यात्रा असेम्बली बमकाण्ड (8 अप्रैल, 1929)
विद्यालय डी.ए.वी. स्कूल
शिक्षा बारहवीं
संबंधित लेख सुखदेव, राजगुरु, मैं नास्तिक क्यों हूँ? -भगतसिंह
प्रमुख संगठन 'नौज़वान भारत सभा', 'कीर्ति किसान पार्टी' एवं 'हिन्दुस्तान समाजवादी गणतंत्र संघ'
रचनाएँ आत्मकथा 'दि डोर टू डेथ' (मौत के दरवाज़े पर), 'आइडियल ऑफ़़ सोशलिज्म' (समाजवाद का आदर्श), 'स्वाधीनता की लड़ाई में पंजाब का पहला उभार'।

अमर बलिदानी सरदार भगतसिंह (अंग्रेज़ी: Bhagat Singh, जन्म- 28 सितंबर, 1907[1], लायलपुर, पंजाब, मृत्यु- 23 मार्च, 1931, लाहौर, पंजाब) का नाम विश्व में 20वीं शताब्दी के अमर बलिदानियों में बहुत ऊँचा है। भगतसिंह ने देश की आज़ादी के लिए जिस साहस के साथ शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार का मुक़ाबला किया, वह आज के युवकों के लिए एक बहुत बड़ा आदर्श है। भगतसिंह अपने देश के लिये ही जीये और उसी के लिए बलिदान भी दे गये।

जीवन परिचय

भगतसिंह का जन्म 28 सितंबर, 1907[1] को पंजाब के ज़िला लायलपुर में बंगा गाँव (पाकिस्तान) में हुआ था, एक देशभक्त सिक्ख परिवार में हुआ था, जिसका अनुकूल प्रभाव उन पर पड़ा था। भगतसिंह के पिता 'सरदार किशन सिंह' एवं उनके दो चाचा 'अजीतसिंह' तथा 'स्वर्णसिंह' अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ होने के कारण जेल में बन्द थे। जिस दिन भगतसिंह पैदा हुए उनके पिता एवं चाचा को जेल से रिहा किया गया। इस शुभ घड़ी के अवसर पर भगतसिंह के घर में खुशी और भी बढ़ गयी थी । भगतसिंह की दादी ने बच्चे का नाम 'भागां वाला' (अच्छे भाग्य वाला) रखा। बाद में उन्हें 'भगतसिंह' कहा जाने लगा। वे 14 वर्ष की आयु से ही पंजाब की क्रान्तिकारी संस्थाओं में कार्य करने लगे थे। डी.ए.वी. स्कूल से उन्होंने नवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1923 में इंटरमीडिएट की परीक्षा पास करने के बाद उन्हें विवाह बन्धन में बाँधने की तैयारियाँ होने लगीं तो वे लाहौर से भागकर कानपुर आ गये।

सम्पादकीय लेख

कानपुर में उन्हें गणेश शंकर विद्यार्थी का हार्दिक सहयोग भी प्राप्त हुआ। देश की स्वतंत्रता के लिए अखिल भारतीय स्तर पर क्रान्तिकारी दल का पुनर्गठन करने का श्रेय सरदार भगतसिंह को ही जाता है। उन्होंने कानपुर के 'प्रताप' में 'बलवंत सिंह' के नाम से तथा दिल्ली में 'अर्जुन' के सम्पादकीय विभाग में 'अर्जुन सिंह' के नाम से कुछ समय काम किया और अपने को 'नौजवान भारत सभा' से भी सम्बद्ध रखा।

क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में

1919 में रॉलेक्ट एक्ट के विरोध में संपूर्ण भारत में प्रदर्शन हो रहे थे और इसी वर्ष 13 अप्रैल को जलियांवाला बाग़ काण्ड हुआ । इस काण्ड का समाचार सुनकर भगतसिंह लाहौर से अमृतसर पहुँचे। देश पर मर-मिटने वाले बलिदानियों के प्रति श्रद्धांजलि दी तथा रक्त से भीगी मिट्टी को उन्होंने एक बोतल में रख लिया, जिससे सदैव यह याद रहे कि उन्हें अपने देश और देशवासियों के अपमान का बदला लेना है ।

असहयोग आंदोलन का प्रभाव

1920 के महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर 1921 में भगतसिंह ने स्कूल छोड़ दिया। असहयोग आंदोलन से प्रभावित छात्रों के लिए लाला लाजपत राय ने लाहौर में 'नेशनल कॉलेज' की स्थापना की थी। इसी कॉलेज में भगतसिंह ने भी प्रवेश लिया। 'पंजाब नेशनल कॉलेज' में उनकी देशभक्ति की भावना फलने-फूलने लगी। इसी कॉलेज में ही यशपाल, भगवतीचरण, सुखदेव, तीर्थराम, झण्डासिंह आदि क्रांतिकारियों से संपर्क हुआ। कॉलेज में एक नेशनल नाटक क्लब भी था। इसी क्लब के माध्यम से भगतसिंह ने देशभक्तिपूर्ण नाटकों में अभिनय भी किया। ये नाटक थे -

  1. राणा प्रताप
  2. भारत-दुर्दशा
  3. सम्राट चन्द्रगुप्त[2]

वे 'चन्द्रशेखर आज़ाद' जैस महान् क्रान्तिकारी के सम्पर्क में आये और बाद में उनके प्रगाढ़ मित्र बन गये। 1928 में 'सांडर्स हत्याकाण्ड' के वे प्रमुख नायक थे। 8 अप्रैल, 1929 को ऐतिहासिक 'असेम्बली बमकाण्ड' के भी वे प्रमुख अभियुक्त माने गये थे। जेल में उन्होंने भूख हड़ताल भी की थी। वास्तव में इतिहास का एक अध्याय ही भगतसिंह के साहस, शौर्य, दृढ़ सकंल्प और बलिदान की कहानियों से भरा पड़ा है।

सेफ्टी बिल तथा ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल का विरोध

विचार-विमर्श के पश्चात् यह निर्णय हुआ कि इस सारे कार्य को भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु अंजाम देंगे। पंजाब के बेटों ने लाजपत राय के ख़ून का बदला ख़ून से ले लिया। सांडर्स और उसके कुछ साथी गोलियों से भून दिए गए। उन्हीं दिनों अंग्रेज़ सरकार दिल्ली की असेंबली में पब्लिक 'सेफ्टी बिल' और 'ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल' लाने की तैयारी में थी। ये बहुत ही दमनकारी क़ानून थे और सरकार इन्हें पास करने का फैसला कर चुकी थी। शासकों का इस बिल को क़ानून बनाने के पीछे उद्देश्य था कि जनता में क्रांति का जो बीज पनप रहा है उसे अंकुरित होने से पहले ही समाप्त कर दिया जाए।

असेम्बली बमकाण्ड

[[चित्र:Freedom-Fighters.jpg|thumb|250px|सुखदेव, भगतसिंह, राजगुरु
Sukhdev, Bhagat Singh and Rajguru]] गंभीर विचार-विमर्श के पश्चात् 8 अप्रैल 1929 का दिन असेंबली में बम फेंकने के लिए तय हुआ और इस कार्य के लिए भगत सिंह एवं बटुकेश्वर दत्त निश्चित हुए। यद्यपि असेंबली के बहुत से सदस्य इस दमनकारी क़ानून के विरुद्ध थे तथापि वायसराय इसे अपने विशेषाधिकार से पास करना चाहता था। इसलिए यही तय हुआ कि जब वायसराय पब्लिक सेफ्टी बिल को क़ानून बनाने के लिए प्रस्तुत करे, ठीक उसी समय धमाका किया जाए और ऐसा ही किया भी गया। जैसे ही बिल संबंधी घोषणा की गई तभी भगत सिंह ने बम फेंका। इसके पश्चात् क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करने का दौर चला। भगत सिंह और बटुकेश्र्वर दत्त को आजीवन कारावास मिला।

भगत सिंह और उनके साथियों पर 'लाहौर षड़यंत्र' का मुक़दमा भी जेल में रहते ही चला। भागे हुए क्रांतिकारियों में प्रमुख राजगुरु पूना से गिरफ़्तार करके लाए गए। अंत में अदालत ने वही फैसला दिया, जिसकी पहले से ही उम्मीद थी। भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु को मृत्युदंड की सज़ा मिली।

फाँसी की सज़ा

23 मार्च, 1931 की रात भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु देशभक्ति को अपराध कहकर फाँसी पर लटका दिए गए। यह भी माना जाता है कि मृत्युदंड के लिए 24 मार्च की सुबह ही तय थी, लेकिन जन रोष से डरी सरकार ने 23-24 मार्च की मध्यरात्रि ही इन वीरों की जीवनलीला समाप्त कर दी और रात के अंधेरे में ही सतलुज के किनारे उनका अंतिम संस्कार भी कर दिया। 'लाहौर षड़यंत्र' के मुक़दमे में भगतसिंह को फ़ाँसी की सज़ा मिली तथा 23 वर्ष 5 माह और 23 दिन की आयु में ही, 23 मार्च 1931 की रात में उन्होंने हँसते-हँसते संसार से विदा ले ली। भगतसिंह के उदय से न केवल अपने देश के स्वतंत्रता संघर्ष को गति मिली वरन् नवयुवकों के लिए भी प्रेरणा स्रोत सिद्ध हुआ। वे देश के समस्त बलिदानियों के सिरमौर थे। 24 मार्च को यह समाचार जब देशवासियों को मिला तो लोग वहाँ पहुँचे, जहाँ इन बलिदानियों की पवित्र राख और कुछ अस्थियाँ पड़ी थीं। देश के दीवाने उस राख को ही सिर पर लगाए उन अस्थियों को संभाले अंग्रेज़ी साम्राज्य को उखाड़ फेंकने का संकल्प लेने लगे। देश और विदेश के प्रमुख नेताओं और पत्रों ने अंग्रेज़ी सरकार के इस काले कारनामे की तीव्र निंदा की।

वर्ष घटनाक्रम
1919 वर्ष 1919 से लगाये गये 'शासन सुधार अधिनियमों' की जांच के लिए फ़रवरी 1928 में 'साइमन कमीशन' मुम्बई पहुँचा। पूरे भारत देश में इसका व्यापक विरोध हुआ।
1926 भगतसिंह ने लाहौर में 'नौजवान भारत सभा' का गठन किया । यह सभा धर्मनिरपेक्ष संस्था थी।
1927 दशहरे वाले दिन छल से भगतसिंह को गिरफ़्तार कर लिया गया। झूठा मुक़दमा चला किन्तु वे भगतसिंह पर आरोप सिद्ध नहीं कर पाए, मजबूरन भगतसिंह को छोड़ना पड़ा ।
1927 'काकोरी केस' में रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक उल्ला, राजेन्द्र लाहिड़ी और रोशनसिंह को फाँसी दे दी गई ।
सितंबर, 1928 क्रांतिकारियों की बैठक दिल्ली के फिरोजशाह के खंडहरों में हुई, जिसमें भगतसिंह के परामर्श पर 'हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन' का नाम बदलकर 'हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन' कर दिया गया ।
30 अक्टूबर, 1928 कमीशन लाहौर पहुँचा। लाला लाजपत राय के नेतृत्व में कमीशन के विरोध में शांतिपूर्ण प्रदर्शन हुआ। जिसमें लाला लाजपतराय पर लाठी बरसायी गयीं। वे ख़ून से लहूलुहान हो गए। भगतसिंह ने यह सब अपनी आँखों से देखा।
17 नवम्बर, 1928 लाला जी का देहान्त हो गया। भगतसिंह बदला लेने के लिए तत्पर हो गए। लाला लाजपतराय की हत्या का बदला लेने के लिए 'हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन' ने भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव, आज़ाद और जयगोपाल को यह कार्य दिया। क्रांतिकारियों ने साण्डर्स को मारकर लालाजी की मौत का बदला लिया।
8 अप्रैल, 1929 भगतसिंह ने निश्चित समय पर असेम्बली में बम फेंका। दोनों ने नारा लगाया 'इन्कलाब ज़िन्दाबाद'… ,अनेक पर्चे भी फेंके, जिनमें जनता का रोष प्रकट किया गया था। बम फेंककर इन्होंने स्वयं को गिरफ़्तार कराया। अपनी आवाज़ जनता तक पहुँचाने के लिए अपने मुक़दमे की पैरवी उन्होंने खुद की।
7 मई, 1929 भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त के विरुद्ध अदालत का नाटक शुरू हुआ ।
6 जून, 1929 भगतसिंह ने अपने पक्ष में वक्तव्य दिया, जिसमें भगतसिंह ने स्वतंत्रता, साम्राज्यवाद, क्रांति पर विचार रखे और क्रांतिकारियों के विचार सारी दुनिया के सामने आये।
12 जून, 1929 सेशन जज ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत आजीवन कारावास की सज़ा दी। इन्होंने सेशन जज के निर्णय के विरुद्ध लाहौर हाइकोर्ट में अपील की। यहाँ भगतसिंह ने पुन: अपना भाषण दिया ।
13 जनवरी, 1930 हाईकोर्ट ने सेशन जज के निर्णय को मान्य ठहराया। इनके मुक़दमे को ट्रिब्यूनल के हवाले कर दिया ।
5 मई, 1930 पुंछ हाउस, लाहौर में मुक़दमे की सुनवाई शुरू की गई। आज़ाद ने भगतसिंह को जेल से छुड़ाने की योजना भी बनाई।
28 मई, 1930 भगवतीचरण बोहरा बम का परीक्षण करते समय घायल हो गए। उनकी मृत्यु हो जाने से यह योजना सफल नहीं हो सकी। अदालत की कार्रवाई लगभग तीन महीने तक चलती रही ।
मई 1930 'नौजवान भारत सभा' को गैर-क़ानूनी घोषित कर दिया गया।
26 अगस्त, 1930 अदालत ने भगतसिंह को भारतीय दंड संहिता की धारा 129, 302 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 तथा 6 एफ तथा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 120 के अंतर्गत अपराधी सिद्ध किया।
7 अक्तूबर, 1930 68 पृष्ठों का निर्णय दिया, जिसमें भगतसिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फाँसी की सज़ा दी गई। लाहौर में धारा 144 लगा दी गई ।
नवम्बर 1930 प्रिवी परिषद में अपील दायर की गई परन्तु यह अपील 10 जनवरी, 1931 को रद्द कर दी गई। प्रिवी परिषद में अपील रद्द किए जाने पर भारत में ही नहीं, विदेशों में भी लोगों ने इसके विरुद्ध आवाज़ उठाई ।
24 मार्च, 1931 फाँसी का समय प्रात:काल 24 मार्च, 1931 निर्धारित हुआ था।
23 मार्च, 1931 सरकार ने 23 मार्च को सायंकाल 7.33 बजे, उन्हें एक दिन पहले ही प्रात:काल की जगह संध्या समय तीनों देशभक्त क्रांतिकारियों को एक साथ फाँसी दी। भगतसिंह तथा उनके साथियों के बलिदान की खबर से सारा देश शोक के सागर में डूब चुका था। मुम्बई, मद्रास तथा कलकत्ता जैसे महानगरों का माहौल चिन्तनीय हो उठा। भारत के ही नहीं विदेशी अखबारों ने भी अंग्रेज़ सरकार के इस कृत्य की बहुत आलोचनाएं कीं।

अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य

  • जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है-

    भगतसिंह एक प्रतीक बन गया । साण्डर्स के कत्ल का कार्य तो भुला दिया गया लेकिन चिह्न शेष बना रहा और कुछ ही माह में पंजाब का प्रत्येक गांव और नगर तथा बहुत कुछ उत्तरी भारत उसके नाम से गूँज उठा । उसके बारे में बहुत से गीतों की रचना हुई और इस प्रकार उसे जो लोकप्रियता प्राप्त हुई । वह आश्चर्यचकित कर देने वाली थी

  • वह बलिदानी रामप्रसाद बिस्मिल की यह पंक्तियाँ गाते थे–

मेरा रंग दे बसंती चोला ।
इसी रंग में रंग के शिवा ने माँ का बंधन खोला ॥
मेरा रंग दे बसंती चोला
यही रंग हल्दीघाटी में खुलकर था खेला ।
नव बसंत में भारत के हित वीरों का यह मेला
मेरा रंग दे बसन्ती चोला।

  • अंग्रेज़ों से बचने के लिए भगतसिंह ने भेष बदला। उन्होंने अपने केश और दाढ़ी कटवाकर, पैंट पहनी और हैट लगाकर अंग्रेज़ों की आँखों में धूल झोंक कर कलकत्ता पहुँचे । कुछ दिन बाद वे आगरा गए।
  • 'हिन्दुस्तान समाजवादी गणतंत्र संघ' की केन्द्रीय कार्यकारिणी की सभा में 'पब्लिक सेफ्टी बिल' और 'डिस्प्यूट्स बिल' के विरोध में भगतसिंह ने 'केन्द्रीय असेम्बली' में बम फेंकने का प्रस्ताव रखा । भगतसिंह के सहायक बटुकेश्वर दत्त बने ।
  • पिस्तौल और पुस्तक भगतसिंह के दो परम विश्वसनीय मित्र थे।
  • जेल में पुस्तकें पढक़र ही वे अपने समय का सदुपयोग करते थे, जेल की कालकोठरी में उन्होंने कुछ पुस्तकें भी लिखीं-
  1. आत्मकथा, दि डोर टू डेथ (मौत के दरवाज़े पर),
  2. आइडियल ऑफ़ सोशलिज़्म (समाजवाद का आदर्श),
  3. स्वाधीनता की लड़ाई में पंजाब का पहला उभार।
  • भगतसिंह की शोहरत से प्रभावित होकर डॉ. पट्टाभिसीतारमैया ने लिखा है —

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भगतसिंह का नाम भारत में उतना ही लोकप्रिय था, जितना कि गाँधीजी का।

  • लाहौर के उर्दू दैनिक समाचार पत्र 'पयाम' ने लिखा था —

हिन्दुस्तान इन तीनों बलिदानियों को पूरे ब्रितानिया से ऊँचा समझता है। अगर हम हज़ारों-लाखों अंग्रेज़ों को मार भी गिराएँ, तो भी हम पूरा बदला नहीं चुका सकते। यह बदला तभी पूरा होगा, अगर तुम हिन्दुस्तान को आज़ाद करा लो, तभी ब्रितानिया की शान मिट्टी में मिलेगी। ओ ! भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव, अंग्रेज़ खुश हैं कि उन्होंने तुम्हारा ख़ून कर दिया। लेकिन वो ग़लती पर हैं। उन्होंने तुम्हारा ख़ून नहीं किया, उन्होंने अपने ही भविष्य में छुरा घोंपा है। तुम ज़िन्दा हो और हमेशा ज़िन्दा रहोगे।

मैं नास्तिक क्यों हूँ?

  1. REDIRECTसाँचा:मुख्य

'मैं नास्तिक क्यों हूँ' भारत के प्रसिद्ध क्रांतिकारी सरदार भगतसिंह द्वारा लिखा गया एक लेख है, जो उन्होंने लाहौर की केंद्रीय जेल में अपने बंदी जीवन के समय लिखा था। यह लेख 27 सितम्बर, सन 1931 को लाहौर के समाचार पत्र 'द पीपल' में प्रकाशित हुआ था। इस लेख में भगतसिंह ने ईश्वर कि उपस्थिति पर अनेक तर्कपूर्ण सवाल खड़े किये हैं और इस संसार के निर्माण, मनुष्य के जन्म, मनुष्य के मन में ईश्वर की कल्पना के साथ-साथ संसार में मनुष्य की दीनता, उसके शोषण, दुनिया में व्याप्त अराजकता और और वर्गभेद की स्थितियों का भी विश्लेषण किया है। यह भगतसिंह के लेखन के सबसे चर्चित हिस्सों में से एक रहा है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 कुछ स्रोतों पर सरदार भगतसिंह की जन्म तिथि 27 सितम्बर, 1907 भी दी गई।
  2. स्टार न्यूज एजेंसी, नया इंडिया
जन्म तिथि पर मतभेद

बाहरी कड़ियाँ

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