मुग़लकालीन स्थापत्य एवं वास्तुकला: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
No edit summary
Line 45: Line 45:


1572 में अकबर ने [[आगरा]] से 36 किलोमीटर दूर [[फ़तेहपुर सीकरी]] में क़िलेनुमा महल का निर्माण आरम्भ किया। यह आठ वर्षां में पूरा हुआ। पहाड़ी पर बसे इस महल में एक बड़ी कृत्रिम झील भी थी। इसके अलावा इसमें [[गुजरात]] तथा [[बंगाल]] शैली में बने कई भवन थे। इनमें गहरी गुफाएँ, झरोखे तथा छतरियाँ थी। हवाखोरी के लिए बनाए गए पंचमहल की सपाट छत को सहारा देने के लिए विभिन्न स्तम्भों, जो विभिन्न प्रकार के मन्दिरों के निर्माण में प्रयोग किए जाते थे, का इस्तेमाल किया गया था। राजपूती पत्नी या पत्नियों के लिए बने महल सबसे अधिक गुजरात शैली में हैं। इस तरह के भवनों का निर्माण आगरा के क़िले में भी हुआ था। यद्यपि इनमें से कुछ ही बचे हैं। अकबर आगरा और फतेहपुर सीकरी दोनों जगहों के काम में व्यक्तीगत रुचि लेता था। दीवारों तथा छतों की शोभा बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किए गए चमकीले नीले पत्थरों में ईरानी या मध्य एशिया का प्रभाव देखा जा सकता है। फ़तेहपुर सीकरी का सबसे प्रभावशाली वहाँ की मस्जिद तथा [[बुलन्द दरवाज़ा]] है, जो अकबर ने अपनी गुजरात विजय के स्मारक के रूप मे बनवाया था। दरवाज़ा आधे गुम्बद की शैली में बना हुआ है। गुम्बद का आधा हिस्सा दरवाज़े के बाहर वाले हिस्से के ऊपर है तथा उसके पीछे छोटे-छोटे दरवाज़े हैं। यह शैली ईरान से ली गई थी और बाद के मुग़ल भवनों में आम रूप से प्रयोग की जाने लगी।
1572 में अकबर ने [[आगरा]] से 36 किलोमीटर दूर [[फ़तेहपुर सीकरी]] में क़िलेनुमा महल का निर्माण आरम्भ किया। यह आठ वर्षां में पूरा हुआ। पहाड़ी पर बसे इस महल में एक बड़ी कृत्रिम झील भी थी। इसके अलावा इसमें [[गुजरात]] तथा [[बंगाल]] शैली में बने कई भवन थे। इनमें गहरी गुफाएँ, झरोखे तथा छतरियाँ थी। हवाखोरी के लिए बनाए गए पंचमहल की सपाट छत को सहारा देने के लिए विभिन्न स्तम्भों, जो विभिन्न प्रकार के मन्दिरों के निर्माण में प्रयोग किए जाते थे, का इस्तेमाल किया गया था। राजपूती पत्नी या पत्नियों के लिए बने महल सबसे अधिक गुजरात शैली में हैं। इस तरह के भवनों का निर्माण आगरा के क़िले में भी हुआ था। यद्यपि इनमें से कुछ ही बचे हैं। अकबर आगरा और फतेहपुर सीकरी दोनों जगहों के काम में व्यक्तीगत रुचि लेता था। दीवारों तथा छतों की शोभा बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किए गए चमकीले नीले पत्थरों में ईरानी या मध्य एशिया का प्रभाव देखा जा सकता है। फ़तेहपुर सीकरी का सबसे प्रभावशाली वहाँ की मस्जिद तथा [[बुलन्द दरवाज़ा]] है, जो अकबर ने अपनी गुजरात विजय के स्मारक के रूप मे बनवाया था। दरवाज़ा आधे गुम्बद की शैली में बना हुआ है। गुम्बद का आधा हिस्सा दरवाज़े के बाहर वाले हिस्से के ऊपर है तथा उसके पीछे छोटे-छोटे दरवाज़े हैं। यह शैली ईरान से ली गई थी और बाद के मुग़ल भवनों में आम रूप से प्रयोग की जाने लगी।
==जहाँगीर तथा शाहजहाँ==
[[मुग़ल साम्राज्य]] के विस्तार के साथ मुग़ल वास्तुकला भी अपने शिखर पर पहुँच गई। [[जहाँगीर]] के शासनकाल के अन्त तक ऐसे भवनों का निर्माण आरम्भ हो गया था, जो पूरी तरह संगमरमर के बने थे और जिनकी दीवारों पर क़ीमती पत्थरों की नक़्क़शी की गई थी। यह शैली [[शाहजहाँ]] के समय और भी लोकप्रिय हो गयी। शाहजहाँ ने इसे [[ताजमहल]], जो निर्माण कला का रत्न माना जाता है, में बड़े पैमाने पर प्रयोग किया। ताजमहल में मुग़लों द्वारा विकसित वास्तुकला की सभी शैलियों का सुन्दर समन्वय है। अकबर के शासनकाल के प्रारम्भ में दिल्ली में निर्मित [[हुमायूँ का मक़बरा]], जिसमें संगमरमर का विशाल गुम्बद है, ताज का पूर्वगामी माना जा सकता है। इस भवन की एक दूसरी विशेषता दो गुम्बदों का प्रयोग है। इसमें एक बड़े गुम्बद के अन्दर एक छोटा गुम्बद भी बना हुआ है। ताज की प्रमुख विशेषता उसका विशाल गुम्बद तथा मुख्य भवन के चबूतरे के किनारों पर खड़ी चार मीनारें हैं। इसमें सजावट का काम बहुत कम है लेकिन संगमरमर के सुन्दर झरोखों, जड़े हुए क़ीमती पत्थरों तथा छतरियों से इसकी सुन्दरता बहुत बढ़ गयी है। इसके अलावा इसके चारों तरफ़ लगाए गए, सुसज्जित बाग़ से यह और प्रभावशाली दिखता है। शाहजहाँ के शासनकाल में मस्जिद निर्माण कला भी अपने शिखर पर थी। दो सबसे सुन्दर मस्जिदें हैं, [[लाल क़िला आगरा|आगरा के क़िले]] की मोती मस्जिद, जो ताज की तरह पूरी संगमरमर की बनी है तथा [[दिल्ली]] की [[जामा मस्जिद दिल्ली|जामा मस्जिद]], जो लाल पत्थर की है। जामा मस्जिद की विशेषताएँ उसका विशाल द्वार, ऊँची मीनारें तथा गुम्बद हैं।
==औरंगज़ेब==
यद्यपि मितव्ययी [[औरंगज़ेब]] ने बहुत भवनों का निर्माण नहीं किया, तथापि [[हिन्दू]], तुर्क तथा ईरानी शैलियों के समन्वय पर आधारित [[मुग़ल]] वास्तुकला की परम्परा अठाहरवीं तथा उन्नसवीं शताब्दी के आरम्भ तक बिना रोक जारी रही। मुग़ल परम्परा ने कई प्रान्तीय स्थानीय राजाओं के क़िलों तथा महलों की वास्तुकला को प्रभावित किया। [[अमृतसर]] में [[सिक्ख|सिक्खों]] का [[स्वर्ण मन्दिर अमृतसर|स्वर्ण मंन्दिर]], जो इस काल में कई बार, वह भी गुम्बद तथा मेहराब के सिद्धांत पर निर्मित हुआ था, और इससे मुग़ल वास्तुकला की परम्परा की कई विशेषताएँ प्रयोग में लाई गईं।
{{seealso|बाबर|हुमायूँ|अकबर|जहाँगीर|शाहजहाँ|औरंगज़ेब}}
====हुमायूँ का मक़बरा====
====हुमायूँ का मक़बरा====
{{मुख्य|हुमायूँ का मक़बरा}}
{{मुख्य|हुमायूँ का मक़बरा}}

Revision as of 07:24, 18 August 2011

दिल्ली सल्तनत काल में प्रचलित वास्तुकला की ‘भारतीय इस्लामी शैली’ का विकास मुग़ल काल में हुआ। मुग़लकालीन वास्तुकला में फ़ारस, तुर्की, मध्य एशिया, गुजरात, बंगाल, जौनपुर आदि स्थानों की शैलियों का अनोखा मिश्रण हुआ था। पर्सी ब्राउन ने ‘मुग़ल काल’ को भारतीय वास्तुकला का ग्रीष्म काल माना है, जो प्रकाश और उर्वरा का प्रतीक माना जाता है। स्मिथ ने मुग़लकालीन वास्तुकला को कला की रानी कहा है। मुग़लों ने भव्य महलों, क़िलों, द्वारों, मस्जिदों, बावलियों आदि का निर्माण किया। उन्होंने बहते पानी तथा फ़व्वारों से सुसज्जित कई बाग़ लगवाये। वास्तव में महलों तथा अन्य विलास-भवनों में बहते पानी का उपयोग मुग़लों की विशेषता थी।

स्थापत्य कला

मुग़लकालीन स्थापत्य कला के विकास और प्रगति की आरम्भिक क्रमबद्ध परिणति ‘फ़तेहपुर सीकरी’ आदि नगरों के निर्माण में और चरम परिणति शाहजहाँ के ‘शाहजहाँनाबाद’ नगर के निर्माण में दिखाई पड़ती है। मुग़ल काल में वास्तुकला के क्षेत्र में पहली बार ‘आकार’ एवं डिजाइन की विविधता का प्रयोग तथा निर्माण की साम्रगी के रूप में पत्थर के अलावा पलस्तर एवं गचकारी का प्रयोग किया गया। सजावट के क्षेत्र में संगमरमर पर जवाहरात से की गयी जड़ावट का प्रयोग भी इस काल की एक विशेषता थी। सजावट के लिए पत्थरों को काट कर फूल पत्ते, बेलबूटे को सफ़ेद संगमरमर में जड़ा जाता था। इस काल में बनने वाले गुम्बदों एवं बुर्जों को ‘कलश’ से सजाया जाता था।

बाबर

मक़बरे
शासक मक़बरा मक़बरे का चित्र
बाबर क़ाबुल 50px|बाग-ए-बाबर
हुमायूँ दिल्ली 50px|हुमायूँ का मक़बरा, दिल्ली
अकबर सिकंदरा आगरा 50px|सिकंदरा आगरा
जहाँगीर शाहदरा (लाहौर) 50px|जहाँगीर का मक़बरा, लाहौर, पाकिस्तान
शाहजहाँ आगरा 50px|ताजमहल, आगरा
औरंगज़ेब औरंगाबाद (दौलताबाद) 30px|औरंगज़ेब का मक़बरा

बाबर ने भारत में अपने अल्पकाली शासन में वास्तुकला में विशेष रुचि दिखाई। तत्कालीन भारत में हुए निर्माण कार्य हिन्दू शैली में निर्मित ग्वालियर के मानसिंह एवं विक्रमाजीत सिंह के महलों से सर्वाधिक प्रभावित हैं। ‘बाबरनामा’ नामक संस्मरण में कही गयी बाबर की बातों से लगता है कि, तत्कालीन स्थानीय वास्तुकला में संतुलन या सुडौलपन का अभाव था। अतः बाबर ने अपने निर्माण कार्य में इस बात का विशेष ध्यान रखा है कि, उसका निर्माण सामंजस्यपूर्ण और पूर्णतः ज्यामितीय हो। बाबर स्वयं बाग़ों का बहुत शौकीन था और उसने आगरा तथा लाहौर के नज़दीक कई बाग़ भी लगवाए। जैसे काश्मीर का निशात बाग़, लाहौर का शालीमार बाग़ तथा पंजाब की तराई में पिंजोर बाग़, आज भी देखे जा सकते हैं। भारतीय युद्धों से फुरसत मिलने पर बाबर ने अपने आराम के लिए आगरा में ज्यामितीय आधार पर 'आराम बाग़' का निर्माण करवाया। उसके ज्यामितीय कार्यों में अन्य हैं, ‘पानीपत के 'काबुली बाग़' में निर्मित एक स्मारक मस्जिद (1524 ई.), रुहेलखण्ड के सम्भल नामक स्थान पर निर्मित ‘जामी मस्जिद’ (1529 ई.), आगरा के पुराने लोदी के क़िले के भीतर की मस्जिद आदि। पानीपत के मस्जिद की विशेषता उसका ईटों द्वारा किया गया निर्माण कार्य था।

हुमायूँ

राजनीतिक परिस्थितियों की प्रतिकूलता के कारण हुमायूँ वास्तुकला के क्षेत्र में कुछ ख़ास नहीं कर सका। उसने 1533 ई. में ‘दीनपनाह’ (धर्म का शरणस्थल) नामक नगर की नींव डाली। इस नगर जिसे ‘पुराना क़िला’ के नाम से जाना जाता है, की दीवारें रोड़ी से निर्मित थीं। इसके अतिरिक्त हुमायूँ की दो मस्जिदें, जो फ़तेहाबाद में 1540 ई. में बनाई गई थीं, फ़ारसी शैली में निर्मित हैं।

शेरशाह

शेरशाह का लघु समय का शासन मध्यकालीन भारत की वास्तुकला के क्षेत्र में ‘संक्रमण काल’ माना जाता है। शेरशाह ने वास्तुकला को नयी दिशा दी। [[चित्र:Shershah Tomb2.jpg|thumb|250px|शेरशाह सूरी का मक़बरा, सासाराम, बिहार]] उसने दिल्ली पर क़ब्ज़ा कर ‘शेरगढ़’ या ‘दिल्ली शेरशाही’ की नींव डाली। सासाराम (बिहार) में उसका प्रसिद्ध मक़बरा तथा पुराना क़िल्ला, दिल्ली में उसकी मस्जिद वास्तुकला के आश्चर्यजनक नमूने हैं। ये मुग़ल-पूर्वकाल के वास्तुकला के चर्मोंत्कर्ष तथा नई शैली के पाररंम्भिक नमूने हैं। आज इस नगर के अवशेषों में ‘लाल दरवाज़ा’ एवं ‘ख़ूनी दरवाज़ा’ ही देखने को मिलते हैं। शेरशाह ने 'दीन पनाह' को तुड़वाकर उसके मलवे पर ‘पुराने क़िले’ का निर्माण करवाया। 1542 ई. में शेरशाह ने इस क़िले के अन्दर ‘क़िला-ए-कुहना’ नाम की मस्जिद का निर्माण करवाया। समय के थपेड़ों को सहते हुए इस समय इस क़िले का एक भाग ही शेष है। बिहार के रोहतास नामक स्थान पर शेरशाह ने एक क़िले का निर्माण करवाया।

शेरशाह का मक़बरा झील के अन्दर एक ऊंचे टीले पर निर्मित हिन्दू-मुस्लिम वास्तुकला का श्रेष्ठ नमूना है। मक़बरा बाहर से मुस्लिम प्रभाव एवं अन्दर से हिन्दू प्रभाव में निर्मित है। पर्सी ब्राउन ने इसे सम्पूर्ण उत्तर भारत की सर्वोत्तम कृति कहा है। ‘क़िला-ए-कुहना’ मस्जिद के परिसर में एक ‘शेरमण्डल’ नाम का अष्टभुजी तीन मंजिला मण्डप निर्मित है। ‘क़िला-ए-कुहना’ मस्जिद को उत्तर भारत के भवनों में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। शेरशाह ने रोहतासगढ़ के दुर्ग एवं कन्नौज के स्थान पर ‘शेरसूर’ नामक नगर बसाया। 1541 ई. में उसने पाटलिपुत्र को ‘पटना’ के नाम से पुनः स्थापित किया। शेरशाह ने दिल्ली में ‘लंगर’ की स्थापना की, जहाँ पर सम्भवतः 500 तोला सोना हर दिन व्यय किया जाता था।

अकबर

अकबर के शासन काल के निर्माण कार्यों में हिन्दू-मुस्लिम शैलियों का व्यापक समन्वय दिखता है। अबुल फ़ज़ल ने अकबर के विषय में कहा है कि, ‘सम्राट सुन्दर इमारतों की योजना बनाता है और अपने मस्तिष्क एवं ह्रदय के विचार से पत्थर एवं गारे का रूप दे देता है। अकबर पहला मुग़ल सम्राट था, जिसके पास बड़े पैमान पर निर्माण करवाने के लिए समय और साधन थे। उसने कई क़िलों का निर्माण किया, जिसमें सबसे प्रसिद्ध आगरे का क़िला है। लाल पत्थर से बने इस क़िले में कई भव्य द्वार हैं। क़िला निर्माण का चर्मोंत्कर्ष शाहजहाँ द्वारा निर्मित दिल्ली का लाल क़िला है।

1572 में अकबर ने आगरा से 36 किलोमीटर दूर फ़तेहपुर सीकरी में क़िलेनुमा महल का निर्माण आरम्भ किया। यह आठ वर्षां में पूरा हुआ। पहाड़ी पर बसे इस महल में एक बड़ी कृत्रिम झील भी थी। इसके अलावा इसमें गुजरात तथा बंगाल शैली में बने कई भवन थे। इनमें गहरी गुफाएँ, झरोखे तथा छतरियाँ थी। हवाखोरी के लिए बनाए गए पंचमहल की सपाट छत को सहारा देने के लिए विभिन्न स्तम्भों, जो विभिन्न प्रकार के मन्दिरों के निर्माण में प्रयोग किए जाते थे, का इस्तेमाल किया गया था। राजपूती पत्नी या पत्नियों के लिए बने महल सबसे अधिक गुजरात शैली में हैं। इस तरह के भवनों का निर्माण आगरा के क़िले में भी हुआ था। यद्यपि इनमें से कुछ ही बचे हैं। अकबर आगरा और फतेहपुर सीकरी दोनों जगहों के काम में व्यक्तीगत रुचि लेता था। दीवारों तथा छतों की शोभा बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किए गए चमकीले नीले पत्थरों में ईरानी या मध्य एशिया का प्रभाव देखा जा सकता है। फ़तेहपुर सीकरी का सबसे प्रभावशाली वहाँ की मस्जिद तथा बुलन्द दरवाज़ा है, जो अकबर ने अपनी गुजरात विजय के स्मारक के रूप मे बनवाया था। दरवाज़ा आधे गुम्बद की शैली में बना हुआ है। गुम्बद का आधा हिस्सा दरवाज़े के बाहर वाले हिस्से के ऊपर है तथा उसके पीछे छोटे-छोटे दरवाज़े हैं। यह शैली ईरान से ली गई थी और बाद के मुग़ल भवनों में आम रूप से प्रयोग की जाने लगी।

जहाँगीर तथा शाहजहाँ

मुग़ल साम्राज्य के विस्तार के साथ मुग़ल वास्तुकला भी अपने शिखर पर पहुँच गई। जहाँगीर के शासनकाल के अन्त तक ऐसे भवनों का निर्माण आरम्भ हो गया था, जो पूरी तरह संगमरमर के बने थे और जिनकी दीवारों पर क़ीमती पत्थरों की नक़्क़शी की गई थी। यह शैली शाहजहाँ के समय और भी लोकप्रिय हो गयी। शाहजहाँ ने इसे ताजमहल, जो निर्माण कला का रत्न माना जाता है, में बड़े पैमाने पर प्रयोग किया। ताजमहल में मुग़लों द्वारा विकसित वास्तुकला की सभी शैलियों का सुन्दर समन्वय है। अकबर के शासनकाल के प्रारम्भ में दिल्ली में निर्मित हुमायूँ का मक़बरा, जिसमें संगमरमर का विशाल गुम्बद है, ताज का पूर्वगामी माना जा सकता है। इस भवन की एक दूसरी विशेषता दो गुम्बदों का प्रयोग है। इसमें एक बड़े गुम्बद के अन्दर एक छोटा गुम्बद भी बना हुआ है। ताज की प्रमुख विशेषता उसका विशाल गुम्बद तथा मुख्य भवन के चबूतरे के किनारों पर खड़ी चार मीनारें हैं। इसमें सजावट का काम बहुत कम है लेकिन संगमरमर के सुन्दर झरोखों, जड़े हुए क़ीमती पत्थरों तथा छतरियों से इसकी सुन्दरता बहुत बढ़ गयी है। इसके अलावा इसके चारों तरफ़ लगाए गए, सुसज्जित बाग़ से यह और प्रभावशाली दिखता है। शाहजहाँ के शासनकाल में मस्जिद निर्माण कला भी अपने शिखर पर थी। दो सबसे सुन्दर मस्जिदें हैं, आगरा के क़िले की मोती मस्जिद, जो ताज की तरह पूरी संगमरमर की बनी है तथा दिल्ली की जामा मस्जिद, जो लाल पत्थर की है। जामा मस्जिद की विशेषताएँ उसका विशाल द्वार, ऊँची मीनारें तथा गुम्बद हैं।

औरंगज़ेब

यद्यपि मितव्ययी औरंगज़ेब ने बहुत भवनों का निर्माण नहीं किया, तथापि हिन्दू, तुर्क तथा ईरानी शैलियों के समन्वय पर आधारित मुग़ल वास्तुकला की परम्परा अठाहरवीं तथा उन्नसवीं शताब्दी के आरम्भ तक बिना रोक जारी रही। मुग़ल परम्परा ने कई प्रान्तीय स्थानीय राजाओं के क़िलों तथा महलों की वास्तुकला को प्रभावित किया। अमृतसर में सिक्खों का स्वर्ण मंन्दिर, जो इस काल में कई बार, वह भी गुम्बद तथा मेहराब के सिद्धांत पर निर्मित हुआ था, और इससे मुग़ल वास्तुकला की परम्परा की कई विशेषताएँ प्रयोग में लाई गईं।

  1. REDIRECTसाँचा:इन्हें भी देखें

हुमायूँ का मक़बरा

यह एक ऐसा निर्माण है, जिसने स्थापत्य कला को एक नवीन दिशा प्रदान की। यह मक़बरा अपनी परम्परा का बना पहला भवन है। इसका निर्माण कार्य अकबर की सौतेली माँ हाजी बेगम की देख-रेख में 1564 ई. में हुआ। [[चित्र:Humayun-Tomb-Delhi-23.jpg|thumb|300px|हुमायूँ का मक़बरा, दिल्ली]] इस मक़बरे का ख़ाका ईरान के मुख्य वास्तुकार ‘मीरक मिर्ज़ा ग़ियास’ ने तैयार किया था। इसी के नेतृत्व में मक़बरे का निर्माण कार्य पूरा हुआ। यही कारण है कि, मक़बरे में ईरानी या फ़ारसी प्रभाव दिखाई देता है। मक़बरा चारों तरफ़ से ज्यामितीय चतुर्भुज आकारा के उद्यान से घिरा है। ईरानी प्रभाव के साथ-साथ इस मक़बरे में हिन्दू शैली की ‘पंचरथ’ से भी प्रेरणा ली गई है। प्रधान मक़बरा 22 फुट ऊँचे पत्थर के चबूतरें पर निर्मित है। पश्चिम दिशा में मक़बरे का मुख्य दरवाज़ा है। सफ़ेद संगमरमर से निर्मित मक़बरे की गुम्बद ही इसकी मुख्य विशेषता है। उभरी हुई दोहरी गुम्बद वाला यह मक़बरा भारत में बना पहला उदाहरण है। मक़बरा तराशे गये लाल रंग के पत्थरों द्वार निर्मित है। उद्यानों में निर्मित मक़बरों का आयोजन प्रतीकात्मक रूप में करते हुए मक़बरों में दफनाये गये व्यक्तियों के दैवी स्वरूप की ओर संकेत किया गया है। इस प्रकार के भवनों की परम्परा में पहला भवन हुमायूँ का मक़बरा है। इस परम्परा की परिणति ताजमहल में हुई। हुमायूँ के मक़बरे को ‘ताजमहल का पूर्वगामी’ भी कहते है। इसे एक 'वफादार बीबी की महबूबाना पेशकश' कहा जाता है।

अकबर ने निर्माण कार्य पर अधिक धन अपव्यय न कर ऐसी इमारतों का निर्माण करवाया, जो अपनी सादगी से ही सुन्दर लगती थी। अकबर ने ‘मेहराबी’ एवं ‘शहतीरी’ शैली का समान अनुपात में प्रयोग किया। अकबर ने अपने निर्माण कार्यों में लाल पत्थर का प्रयोग किया। अकबर के ग्रहणशील स्वभाव के कारण उसके निर्माण कार्य में फ़ारसी शैली में हिन्दू एवं बौद्ध परंपराओं का अधिक सम्मिश्रण हुआ।

आगरा का क़िला

[[चित्र:Red-Fort-Agra.jpg|thumb|250px|left|लाल क़िला, आगरा]] आगरा में ताजमहल से थोड़ी दूर पर बना महत्‍वपूर्ण मुग़ल स्‍मारक है, जो आगरा का लाल क़िला नाम से विख्यात है। यह शक्तिशाली क़िला लाल सैंड स्‍टोन से बना हुआ है्। यह 2.5 किलोमीटर लम्‍बी दीवार से घिरा हुआ है। यह मुग़ल शासकों का शाही शहर कहा जाता है। इस क़िले की बाहरी मज़बूत दीवारें अपने अंदर एक स्‍वर्ग को छुपाए हैं। इस क़िले में अनेक विशिष्‍ट भवन हैं। 1566 ई. में अकबर के मुख्य वास्तुकार कासिम ख़ाँ के नेतृत्व में इस क़िले का निर्माण कार्य प्रारम्भ हुआ। लगभग 15 वर्षों तक लगातार निर्माण कार्य एवं 35 लाख रुपये ख़र्च के बाद यह क़िला बनकर तैयार हुआ। यमुना नदी के किनारे यह क़िला लगभग 1-1/2 मील में फैला हुआ है। क़िले की मेहराबों पर अकबर ने क़ुरान की आयतों के स्थान पर पशु-पक्षी, फूल-पत्तों की आकृतियों को खुदवाया है, जो सम्भवतः इस क़िले की एक विशेषता है। 70 फुट ऊँची तराशे गये लाल पत्थर से निर्मित क़िले की दीवारों में कहीं भी एक बाल के भी घुसने की जगह शेष नहीं है। क़िले के पश्चिम में स्थित ‘दिल्ली दरवाज़े’ का निर्माण 1566 ई. में किया गया। पर्सी ब्राउन ने दरवाज़े के बारे में कहा है कि, “निःसन्देह ही वह भारत के सबसे अधिक प्रभावशाली दरवाज़ों में से है।” क़िले का दूसरा दरवाज़ा अमर सिंह दरवाज़ा के नाम से जाना जाता है। क़िले के अन्दर अकबर ने लगभग ऐसे 500 निर्माण करवाये हैं, जिनमें लाल पत्थर का प्रयोग हुआ है, साथ ही बंगाल एवं गुजरात की निर्माण शैली का भी प्रयोग हुआ है।

जहाँगीरी महल

ग्वालियर के राजा मानसिंह के महल की नकल कर आगरा के क़िले में बना ‘जहाँगीरी महल’ अकबर का सर्वोत्कृष्ट निर्माण कार्य है। यह महल 249 फुट लम्बा एवं 260 फुट चौड़ा है। महल के चारों कोने में 4 बड़ी छतरियाँ हैं। महल में प्रवेश हेतु बनाया गया दरवाज़ा नोंकदार मेहराब का है। महल के मध्य में 17 फुट का आयताकार आँगन बना है। पूर्णतः हिन्दू शैली में बने इस महल में संगमरमर का अल्प प्रयोग किया गया है। कड़ियाँ तथा तोड़े का प्रयोग इसकी विशेषता है। जहाँगीरी महल के सामने लॉन में प्याले के आकार का एक हौज निर्मित है, जिस पर फ़ारसी भाषा आयतें खुदी हैं। जहाँगीरी महल के दाहिनी ओर अकबरी महल का निर्माण हुआ था, जिसके खण्डहरों से निर्माण की योजना का अहसास होता है। जहाँगीरी महल की सुन्दरता का अकबरी महल में अभाव दिखता है।

फ़तेहपुर सीकरी

प्रागैतिहासिक काल से ही फ़तेहपुर सीकरी मानव बस्ती के नाम से जानी जाती है। विक्रम संवत 1010-1067 ईसवी के एक शिलालेख में इस जगह का नाम "सेक्रिक्य" मिलता है। सन 1527 में बाबर खानवा के युद्ध में फ़तेह के बाद यहाँ आया और अपने संस्मरण में इस जगह को सीकरी कहा है। [[चित्र:Fatehpur-Sikri-Agra-13.jpg|thumb|250px|फ़तेहपुर सीकरी, आगरा]] उसके द्वारा यहाँ एक जलमहल और बावली के निर्माण का भी उल्लेख है। अकबर की कई रानियाँ और बेगम थीं, किंतु उनमें से किसी से भी पुत्र नहीं हुआ था। अकबर पीरों एवं फ़कीरों से पुत्र प्राप्ति के लिए दुआएँ माँगता फिरता था। शेख सलीम चिश्ती ने अकबर को दुआ दी। फ़कीर ने अकबर से कहा, "बच्चा तू हमारा इंतज़ाम कर दे, तेरी मुराद पूरी होगी।"

अकबर ने सलीम (जहाँगीर) के जन्म के बाद 1571 ई. में शेख़ सलीम चिश्ती के प्रति आदर प्रकट करने के उदेश्य से फ़तेहपुर सीकरी के निर्माण का आदेश दिया। 1570 में अकबर ने गुजरात को जीतकर इस स्थान का नाम ‘फ़तेहपुर सीकरी’ (विजयी नगरी) रखा। 1571 ई. में इसे मुग़ल साम्राज्य की राजधानी बनाया गया। यह नगर 7 मील लम्बे पहाड़ी क्षेत्र मे फैला हुआ है। इसमें बने 9 प्रवेश द्वारों में आगरा, दिल्ली, अजमेर, ग्वालियर एवं धौलपुर प्रमुख हैं। फ़तेहपुर सीकरी नगर अकबर की उस राजनीति का पारदर्शक वास्तुकलात्मक प्रतिबिंब है, जिसके द्वारा वह अपने विशाल साम्राज्य के विविध तत्वों के मध्य एकता स्थापित करना चाहता था। फ़र्ग्युसन ने कहा है कि, ‘फ़तेहपुर सीकरी पत्थर में प्रेम तथा एक महान व्यक्ति के मस्तिष्क की अभिव्यक्ति है।’ फ़तेहपुर सीकरी नगर के निर्माण का श्रेय वास्तुकला विशेषज्ञ बहाउद्दीन को मिलता है। सचमुच फ़तेहपुर सीकरी एक महान समृद्धशाली तथा शक्तिशाली शासक के व्यक्तित्व का प्रतीक है। स्मिथ के अनुसार- 'फ़तेहपुर सीकरी जैसी वास्तुकला की कृति न तो अतीत में हुई है और न भविष्य में होगी'।

दीवान-ए-आम

ऊँचे आधार पर लौकिक प्रयोग हेतु निर्मित 'दीवान-ए-आम' में खम्बों पर निकली हुई बरामदों की छत थी। यह एक आयताकार कक्ष है। 'दीवान-ए-आम' में मनसबदारों एवं उनके नौकरों के लिए मेहराबी बरामदे बने हैं। 'दीवान-ए-आम' में अकबर के लिए एक सिंहासन बना है। इसके बरामदे में लाल पत्थर से बना अकबर का ‘दफ्तरखाना’ है। 'दीवान-ए-आम' में अकबर अपने मंत्रियों से सलाह-मशविरा करता था।

दीवान-ए-ख़ास

बौद्ध एवं हिन्दू कला शैली के प्रभाव वाला ‘दीवान-ए-ख़ास’ 47 फुट का एक वर्गाकार भवन हैं। भवन के मध्य में बने ऊँचे चबूतरे पर बैठकर बादशाह अकबर अपने कर्मचारियों की बहस को सुनता था। 'दीवान-ए-ख़ास' ही अकबर का प्रसिद्ध इबादतखाना है, जहाँ प्रत्येक बृहस्पतिवार की संध्या को अकबर विभिन्न धर्मों के धर्माचार्यों से चर्चाएँ करता था। 'दीवान-ए-ख़ास' के कक्ष के मध्य में स्थित स्तम्भ पर आपस में जुड़े हुए फूल की पंखुड़ियों की तरह के 36 लहरदार ब्रेकेट हैं, जिनके ऊपर गोल पत्थर का मंच जैसा निर्माण हुआ है। ‘हावेल’ इसकी तुलना विष्णु स्तम्भ व विश्व वृक्ष से करते हैं। 'दीवान-ए-ख़ास' के उत्तर में ‘कोषागार’ के निर्माण एवं पश्चिम में एक वर्गाकार चंदोबा सा ‘ज्योतिषी की बैठक’ का निर्माण किया गया है। पर्सी ब्राउन के अनुसार- 'अकबर ने ज्योतिषी की बैठक में अपने पागलपन या सनकीपन का प्रदर्शन किया है'।

पंचमहल

पिरामिड आकार में बनी इस पाँच मंजिल की इमारत को ‘हवा महल’ भी कहा जाता है। यह भवन नालन्दा में निर्मित बौद्ध विहारों से प्रेरित लगते हैं। नीचे से ऊपर की ओर जाने पर मंजिलें क्रमशः छोटी होती गई हैं। महल के खम्बों पर फूल-पत्तियाँ, रुद्राक्ष के दानों से सुन्दर सजावट की गई है। पहली मंजिल के बड़े हाल में 48 खम्भे निर्मित हैं, जिन पर शेष मंजिलों का भार है। अकबर के इस निर्माण कार्य में बौद्ध विहारों एवं हिन्दू धर्म का प्रभाव स्पष्टतः दिखाई पड़ता है।

तुर्की सुल्तान की कोठी

यह एक मंजिल की अत्यधिक आकर्षक एवं छोटी इमारत है। इस इमारत का निर्माण सम्भवत: 'रुक्कैया बेगम' या फिर 'सलीमा बेगम' के लिए किया गया था। इमारत के अन्दर की दीवारों पर पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों की चित्रकारी की गयी है। इमारत के अलंकरण में काष्ठकला का प्रभाव दिखता है। पर्सी ब्राउन ने इसे ‘कलात्मक रत्न‘ तथा ‘स्थापत्य कला का मोती‘ कहा है।

ख़ास महल

लाल पत्थर एवं सफ़ेद संगमरमर के संयोग से बनी इस दो मंजिली इमारत को अकबर के व्यक्तिगत आवासगृह के रूप में प्रयोग किया जाता था। महल के चारों कोनों पर 4 छतरियों का निर्माण किया गया था। दीवारों में जालियाँ लगी थीं। महल के दक्षिण में शयनागार था। जिसमें 4 दरवाज़े लगे थे। महल के ऊपरी हिस्से में ‘झरोखा दर्शन' की व्यवस्था की गई थी।

जोधाबाई का महल

फ़तेहपुर सीकरी में बने सभी भवनों के आकार में यह महल सबसे बड़ा है। यह महल 320 फुट लम्बा, 215 फुट ऊँचा है। इस महल में की गयी सजावट दक्षिण के मंदिरों से प्रभावित है। इसमें गुजरात के कारीगरों का प्रभाव दिखाई पड़ता है। महल के उत्तर में ग्रीष्म विलास एवं दक्षिण में शरद विलास का निर्माण हुआ है। इस महल में लगे खम्भों के शहतीर एवं उनकी घण्टियों की साँकरों जैसी उमड़ी डिजाइनें पूर्णतः हिन्दू मदिरों जैसी है। जोधाबाई के महल के समीप स्थित ‘मरियम की कोठी' एक छोटी इमारत हैं। सुल्तान के महल की प्रेरणा पंजाब के काष्ठ निर्माण से ली गयी है।

बीरबल का महल

मरियम के महल की शैली पर निर्मित इस महल में दो मंजिल पर सुन्दर चपटे आकार के गुम्बद एंव बरसातियों पर पिरामिड के आकार की छतें हैं। महल के छज्जे कोष्ठकों पर आधारित हैं। छज्जों में कोष्ठकों का प्रयोग इस इमारत की विशेषता है। फ़तेहपुर सीकरी के अन्य निमार्ण कार्य थे- 'शाही अस्तबल', 'सराय', 'हिरन मीनार', अबुल फ़ज़ल भवन आदि।

जामा मस्जिद

मक्का की प्रसिद्ध मस्जिद से प्रेरणा ग्रहण कर बनाई गई इस मस्जिद का आयताकार क्षेत्र 542 फुट लम्बा एवं 438 फुट चौड़ा है। मस्जिद के दक्षिण में बुलन्द दरवाज़ा, मध्य में शेख़ सलीम चिश्ती का मक़बरा, उत्तर में इस्लाम ख़ाँ का मक़बरा निर्मित है। अकबर ने 1582 ई़., में ‘दीन-ए-इलाही' धर्म की घोषणा यहीं से की थी। मस्जिद के ऊपर बने तीन गुम्बदों में बीच का गुम्बद सर्वाधिक बड़ा है। पर्सी ब्राउन ने इस सम्बन्ध में कहा है कि, ‘फ़तेहपुर सीकरी की प्रभावशाली कृतियों में निःसन्देह जामा मस्जिद सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि है'। फ़र्ग्युसन ने इसको ‘पत्थर में रूमानी कथा' कहा है।

बुलन्द दरवाज़ा

बुलंद दरवाज़ा, फ़तेहपुर सीकरी, आगरा

इस दरवाज़े का निर्माण सम्राट अकबर ने गुजरात विजय के उपलक्ष्य में जामा मस्जिद के दक्षिणी द्वार पर करवाया था। यह दरवाज़ा 134 फुट ऊँचा है। इसके निर्माण में लाल रंग के बलुआ पत्थर का प्रयोग किया गया है। ज़मीन की सतह से इस दरवाज़े की ऊँचाई 176 फुट है। दरवाज़े की महत्त्वपूर्ण विशेषता इसका मेहराबी मार्ग है। इसे अकबर की दक्षिणी विजय की स्मृति में बनाया गया भी माना जाता है। दरवाज़े पर लिखे लेख द्वारा अकबर मानव समाज को विश्वास, भाव एवं भक्ति का सन्देश देता है।

शेख़ सलीम चिश्ती का मक़बरा

जामा मस्जिद के आहाते में बने इस मक़बरे का निर्माण कार्य 1571 ई. में प्रारम्भ हुआ। यह वर्गाकार मक़बरा चारों ओर से 25 फुट ऊँचा है। लाल एवं बलुआ पत्थर से इस मक़बरे को बनाया गया है। कालान्तर में जहाँगीर ने बलुआ पत्थर के स्थान पर संगमरमर लगवाया। मक़बरे के सर्वाधिक आकर्षक भाग इसकी ड्योढी (चौखट) एवं स्तम्भ हैं। मक़बरे की फर्श रंग-बिरंगी है। पर्सी ब्राउन ने मक़बरे के बारे में कहा कि, ‘इसकी शैली इस्लामीं शैली की बौद्धिकता तथा गाम्भीर्य की स्वतन्त्र कल्पना का परिचय प्रदान करती है।‘

इस्लाम ख़ाँ का मक़बरा

शेख़ सलीम के मक़बरे के दक्षिण में स्थित एवं लाल पत्थर से निर्मित इस्लाम ख़ाँ के मक़बरे की विशेषता थी कि, इसमें पहली बार 'वर्णाकार मेहराब' का प्रयोग किया गया था।

अकबर के अन्य निर्माण कार्य

इन इमारतों के अतिरिक्त भी फ़तेहपुर सीकरी में अनेक निर्माण कार्य अकबर द्वारा करवाये गये थे। फ़र्ग्युसन ने फ़तेहपुर सीकरी महल के बारे में लिखा है कि, 'सब मिलाकर फ़तेहपुर सीकरी का महल पाषाण का एक ऐसा रोमांस है, जैसा कि कहीं बहुत कम मिलेगा और यह उस महान व्यक्ति के जिसने कि इसे बनवाया था, मस्तिष्क की ऐसी प्रतिच्छाया है, जैसी कि किसी अन्य स्रोत से सरलता से उपलब्ध नहीं हो सकी। 1570 से 1585 ई तक फ़तेहपुर सीकरी मुग़ल साम्राज्य की राजधानी रही, इसके बाद उजबेक आक्रमण का सामना करने के लिए अकबर को लाहौर जाना पड़ा, जहाँ पर उसने ‘ लाहौर का क़िला बनवाया। यह क़िला आगरा में निर्मित जहाँगिरी महल से प्रेरित लगता है, अन्तर मात्र इतना है कि, क़िले के कोष्ठकों पर हाथी एवं सिहों की आकृति उकेरी गई है।

नवम्बर, 1583 ई. में अकबर द्वारा बनवाया गया 'इलाहाबाद का क़िला' अपने 40 स्तम्भों के कारण विशालता का अहसास कराता है। क़िले के निर्माण में लाल बलुआ पत्थर का प्रयोग हुआ है। अकबर ने 1581 ई. में 'अटक का क़िला' बनवाया था। खण्डहर के रूप में बचा यह क़िला सामारिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण है। सारांश में कहा जा सकता है कि, अकबर कालीन वास्तुकला का विकास हिन्दू शैली के आकारों ,धार्मिक संकेतों और विशेषताओं से प्रभावित हुआ। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि, वह इस्लामी चापाकार शैली की अपेक्षा हिन्दुओं की शहतीरी शैली को अधिक पसन्द करता था। अकबर की वास्तुकला में मुग़ल काल के पूर्व की शाही शैली तथा गुजरात, मालवा और चंदेरी की आंचलिक शैलीयों का संयोजन है।

जहाँगीर

वास्तुकला के क्षेत्र में जहाँगीर ने बहुत अधिक रूचि नहीं दिखाई। उसने बाग़-बग़ीचों एवं चित्रकारी को अधिक महत्व दिया। इसलिए कुछ इतिहासकारों ने जहाँगीर के काल को स्थापत्य कला का विश्राम काल कहा है। जहाँगीर के समय के कुछ महत्त्वपूर्ण निर्माण कार्य निम्नलिखित हैं-

अकबर का मक़बरा

सिकंदरा आगरा में इस मक़बरे की योजना स्वयं अकबर ने बनाई थी, परन्तु 1612 ई. में अन्तिम रूप से इसका निर्माण कार्य जहाँगीर ने पूरा करवाया। पिरामिड के आकार में बने इस पंचमंजिला मक़बरे की सबसे ऊपरी मंजिल का निर्माण संगमरमर द्वारा जहाँगीर ने करवाया था। मक़बरे का प्रवेश द्वार बलुआ पत्थर से निर्मित है। मक़बरे के चारों कोनों पर अष्टभुजीय सुन्दर पाँच मंजिल की 100 फुट ऊँची मीनार हैं। मक़बरे की छत के बीच में संगमरमर का एक सुन्दर मंडप है। मक़बरे में जड़ाऊ संगमरमर, रंगीन टाइल्स एवं अनेक प्रकार के रंगों का प्रयोग हुआ है।

एतमादुद्दौला का मक़बरा

[[चित्र:Itmad-Ud-Daulah-Tomb-Agra.jpg|thumb|250px|एतमादुद्दौला का मक़बरा, आगरा]] पर्सी ब्राउन के अनुसार, ‘आगरा में यमुना नदी के तट पर स्थित एतमादुद्दौला का मक़बरा अकबर एवं शाहजहाँ की शैलियों के मध्य एक कड़ी है। इस मक़बरे का निर्माण 1626 ई. में नूरजहाँ ने करवाया। मुग़लकालीन वास्तुकला के अन्तर्गत निर्मित यह प्रथम ऐसी इमारत है, जो पूर्ण रूप से बेदाग़ सफ़ेद संगमरमर से निर्मित है। सर्वप्रथम इसी इमारत में ‘पित्रादुरा’ नाम का जड़ाऊ काम किया गया। मक़बरे के अन्दर सोने एवं अन्य क़ीमती रत्नों से जड़ावट का कार्य किया गया है। जड़ावट के कार्य का एक पहले का नमूना उदयपुर के 'गोलमण्डल मन्दिर' में पाया जाता है। मक़बरे के अन्दर निर्मित एतमादुद्दौला एवं उसकी पत्नी की क़ब्रें पीले रंग के क़ीमती पत्थर से निर्मित है। मक़बरे की दीवारों में संगमरमर की सुन्दर जालियों का प्रयोग किया गया है। वास्तुकला के विशेषज्ञ इसे ताजमहल के अतिरिक्त अन्य मुग़लकालीन इमारतों में श्रेष्ठ मानते हैं।

मरियम उज-जमानी का मक़बरा

यह मक़बरा सिकन्दरा में अकबर के मक़बरे से 2 फलांग की दूरी पर स्थित है। मक़बरे में निर्मित गुम्बद प्रारम्भिक मुग़ल शैली का प्रतीक है। इस मक़बरे का निर्माण लाल पत्थर एवं ईटों से हुआ है। 45 फुट के वर्गाकार क्षेत्र में स्थित इस मक़बरे की ऊँचाई लगभग 39 फुट है। मक़बरे का मध्य भाग सफ़ेद संगमरमर से निर्मित है।

शाहजहाँ

शाहजहाँ का काल सफ़ेद संगमरमर के प्रयोग का चरमोत्कर्ष काल माना जाता है। इस समय संगमरमर जोधपुर के ‘मकराना’ नामक स्थान से मिलता था, जो वृत्ताकार कटाई के लिए अधिक उपयुक्त था। नक़्क़ाशी युक्त या पर्णिल मेहराबें, बंगाली शैली के मुड़े हुए कंगूरे, जंगले के खम्भे आदि शाहजहाँ के काल की विशेषताएँ हैं। अकबर की इमारतों की तुलना में शाहजहाँ की इमारतें चमक-दमक एवं मौलिकता में घटिया हैं, परन्तु अतिव्ययपूर्ण प्रदर्शन एवं समृद्ध और कौशलपूर्ण सजावट में वे बढ़ी हुई हैं, जिससे शाहजहाँ काल की वास्तुकला एक अधिक बड़े पैमाने पर रत्नों के सजाने की कला बन जाती है। शाहजहाँ के समय निर्मित कुछ प्रमुख इमारतें निम्नलिखित हैं-

दीवान-ए-आम

आगरा के क़िले में शाहजहाँ द्वारा 1627 ई. में बनवाया गया 'दीवान-ए-आम' शाहजहाँ के समय का संगमरमर का प्रथम निर्माण कार्य था। इसमें सम्राट के बैठने के लिए 'मयूर सिंहासन' की व्यवस्था थी।

दीवान-ए-ख़ास

1637 ई. में शाहजहाँ द्वारा आगरा के क़िले में बनवाया गया 'दीवान-ए-ख़ास' सफ़ेद संगमरमर की आयताकार इमारत है। 'दीवान-ए-ख़ास' में महत्त्वपूर्ण अमीर एवं उच्चाधिकारी ही आ सकते थे। संगमरमर निर्मित फर्श वाली इस इमारत में मेहराब स्वर्ण एवं रंगों से सजे हैं। इस इमारत में अन्दर की छत क़ीमती चाँदी की थी तथा उसमें संगमरमर, सोने और बहुमूल्य पत्थरों की मिली-जुली सजावट थी, जो उस पर खुदे अभिलेख- 'अगर फ़िरदौस बररूयें ज़मी अस्त, हमीं अस्त, उ हमीं अस्त, उ हमीं अस्त। (यदि भूमि पर कही परमसुख का स्वर्ग है, तो यहीं है, यहीं है, दूसरा कोई नहीं) को चरितार्थ करती थी।

मोती मस्जिद

1564 ई. में शाहजहाँ द्वारा आगरा में बनाई गई 'मोती मस्जिद' आगरा के क़िले की सर्वोत्कृष्ट इमारत है। मस्जिद में निर्मित गुम्बद मुख्य रूप से उल्लेखनीय है। सफ़ेद संगमरमर से बनी इस मस्जिद की लम्बाई 237 फुट एवं चौड़ाई 187 फुट है। पर्सी ब्राउन के अनुसार, ‘मुग़ल वास्तुकला की यह सर्वश्रेष्ठ कृति है।’

मुसम्मन बुर्ज

छः मंजिला इस इमारत का निर्माण शाहजहाँ ने आगरा क़िले में निर्मित 'ख़ास महल' के उत्तर में करवाया था। इस बुर्ज में बैठकर शाही परिवार की स्त्रियाँ पशुओं का युद्ध देखा करती थीं। संगमरमर द्वारा निर्मित मुसम्मन बुर्ज में जहाँगीर ने हाथी पर सवार राणा प्रताप एवं उसके पुत्र करण सिंह की मूर्तियों का निर्माण करवाया था। कालान्तर में औरंगज़ेब ने इन मूर्तियों को ध्वस्त करवा दिया।

ख़ास महल

इसका निर्माण सफ़ेद संगमरमर से शाहजहाँ ने हरम की स्त्रियों के लिए करवाया था। इसके अतिरिक्त आगरा क़िले के अन्दर के कुछ अन्य निर्माण कार्य थे- 'शीश महल', 'नगीना मस्जिद', 'झरोखा दर्शन', 'अंगूरी बाग़', 'मच्छी भवन', 'नहर-ए-बहिश्त' (जिसके द्वारा क़िले में पानी की व्यवस्था की जाती थी)।

जामा मस्जिद

आगरा क़िले में स्थित इस मस्जिद का निर्माण शाहजहाँ की पुत्री 'जहाँआरा बेगम' ने 1648 ई. में करवाया था। मस्जिद 130 फुट लम्बी एवं 100 फुट चौड़ी है। इस मस्जिद में लकड़ी एवं ईंट का भी प्रयोग किया गया है। आगरा की जामा मस्जिद को 'मस्जिदे-जहाँनामा' भी कहा जाता है।

ताजमहल

आगरा में यमुना नदी के तट पर स्थित मक़बरा ‘ताजमहल’ का निर्माण शाहजहाँ की देख-रेख में 'उस्ताद ईसा ख़ाँ' ने सम्पन्न करवाया था, जबकि मक़बरे की योजना 'उस्ताद अहमद लाहौरी' ने तैयार की थी। शाहजहाँ ने लाहौरी को 'नादिर-उल-असर' की उपाधि प्रदान की थी। [[चित्र:Tajmahal-03.jpg|thumb|250px|ताजमहल, आगरा]] लाहौरी ने ताजमहल के निर्माण में सहायता के लिए बगदाद तथा शिराज से हस्तकला विशेषज्ञ, कुस्तुनतुनिया से गुम्बद निर्माण कला विशेषज्ञ, बुखारा से फूल-पत्ते की खुदाई विशेषज्ञ, समरकंद से शिखर निर्माण एवं बाग़-बग़ीचा निर्माण में कुशल लोगों को बुलवाया था। इस मक़बरे में मध्य एशिया, ईरान एंव भारत की भवन निर्माण शैलियों का सामंजस्यपूर्ण संयोजन है। संभवतः यह मक़बरा दिल्ली में निर्मित हुमायूँ के मक़बरे एवं अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना के मक़बरे से प्रेरित है। इस इमारत की लम्बाई 1900 फुट एवं चौड़ाई 1000 फुट है। ताजमहल के मध्य में स्थित मक़बरा 22 फुट ऊँचे चबूतरे पर निर्मित है। मक़बरे की मुख्य इमारत 108 फुट ऊँची गुम्बद है। ताजमहल के अन्दर के भाग में पित्रादुरा शैली में सुन्दर सजावट का काम किया गया है। इस मक़बरे का निर्माण कार्य 1631 ई. में प्रारम्भ हुआ और 1653 ई. में पूरा हुआ। शाहजहाँ ने इस मक़बरे को अपनी प्रिय बेगम ‘मुमताज महल’ (अर्जूमन्द बानू बेगम) की याद में बनवाया था। कला इतिहासकार बेन बेगले की दृष्टि में यह मक़बरा सम्राट की पत्नी की यादगार न होकर ईश्वरीय सिंहासन और बहिश्त की प्रतिकृति है। हैवेल ने ताजमहल को ‘भारतीय नारीत्व की साकार प्रतिमा’ कहा है। इसे प्रेम का काव्य भी कहा जाता है।

शाहजहाँनाबाद

1638 ई. में शाहजहाँ ने अपनी राजधानी को आगरा से दिल्ली लाने के लिए यमुना नदी के दाहिने तट पर ‘शाहजहाँनाबाद’ (वर्तमान पुरानी दिल्ली) नामक नगर की नींव रखी। शाहजहाँ ने इस नगर में चतुर्भुज आकार का ‘लाल क़िला’ नामक एक क़िले का निर्माण करवाया, जिसका निर्माण कार्य 1648 ई. में पूर्ण हुआ। लगभग एक करोड़ रुपये की लागत से बनने वाला यह क़िला हमीद एवं अहमद नामक वास्तुकारों के निरीक्षण में बना। क़िले के पश्चिमी दरवाज़े का नाम ‘लाहौरी दरवाज़ा’ एवं दक्षिणी दरवाज़े का नाम ‘दिल्ली दरवाज़ा’ है। यह क़िला 3100 फीट लम्बा एवं 1650 फीट चैड़ा है। दिल्ली का लाल क़िला हमीद अहमद नामक शिल्पकार की देखरेख में बना तथा इस पर 1 करोड़ की लागत आयी थी।

दीवान-ए-आम

दिल्ली के क़िले के 'दीवान-ए-आम' की विशेषता है- उसके पीछे की दीवारों में बना एक कोष्ठ जहाँ विश्व प्रसिद्ध ‘तख्त-ए-ताऊस’ रखा जाता था। 'तख्त-ए-ताऊस' या 'मयूर सिंहासन' का निर्माण बेबादल ख़ाँ ने किया था। कोष्ठ के चित्रों में यूरोपीय प्रभाव दिखलाई पड़ता है। 'दीवान-ए-ख़ास' में लगे हुए रंगमहल का निर्माण शाही परिवार के लोगों के लिए किया गया था। यहाँ पर निर्मित ‘न्याय की तराजू’ पर भी यूरोपीय शैली का प्रभाव दिखाई पड़ता है।

दीवान-ए-ख़ास

दिल्ली के क़िले के 'दीवान-ए-ख़ास' की अन्दर की छत में चाँदी, सोने एवं अनेक बहुमूल्य पत्थर तथा संगमरमर की मिली-जुली सजावट की गई है।

जामा मस्जिद

दिल्ली की प्रसिद्ध जामा मस्जिद का निर्माण शाहजहाँ ने 1648 ई. में करवाया था। इसमें शाहजहाँनी शैली में फूलदार अलंकरण की मेहराबें बनी हैं। यह मस्जिद एक ऊँचे चबूतरें पर बनी है। मस्जिद में 3.25 फीट क्षेत्र में फैला एक आँगन है। [[चित्र:Jama-Masjid-Delhi.jpg|thumb|250px|left|जामा मस्जिद, दिल्ली]] जामा मस्जिद को बनने में 6 वर्ष का समय और 10 लाख रुपए लगे थे। जामा मस्जिद बहुआ पत्थर और सफ़ेद संगमरमर से निर्मित है। इस मस्जिद में उत्तर और दक्षिण द्वारों से प्रवेश किया जा सकता है। जामा मस्जिद का पूर्वी द्वार केवल शुक्रवार को ही खुलता है। इस द्वार के बारे में कहा जाता है कि सुल्तान इसी द्वार का प्रयोग करते थे। जामा मस्जिद का प्रार्थना गृह बहुत ही सुंदर है। इसमें ग्यारह मेहराब हैं जिसमें बीच वाला मेहराब अन्य से कुछ बड़ा है।

दिल्ली के लाल क़िले के भीतर सफ़ेद संगमरमर की बनी अन्य इमारते थीं- 'मोती महल', 'हीरा महल', 'नहर-ए-बहिश्त', 'शीश महल'। शाहजहाँ द्वारा लाहौर के क़िले में कराये गये निर्माण कार्य थे- 'दीवान-ए-आम', 'शाहबुर्ज', 'शीश महल', 'नौलखा महल', 'ख्वाबगाह' आदि। शाहजहाँ के समय में बने शाहदारा में आसफ़ ख़ान के मक़बरे में ‘फ़ारसी शैली’ की पच्चीकारी की गयी। शाहजहाँ के समय में फ़ारसी शैली में बने प्रमुख उद्यान कश्मीर के निशान्त बाग़ एवं शालीमार बाग़, जो सीढ़ी के आकार में बनाये गये थे, प्रशंसनीय हैं। शाहजहाँ के शासन काल को स्थापत्य कला का ‘स्वर्ण काल’ कहा जाता है।

औरंगज़ेब

[[चित्र:Bibi-Ka-Maqbara-Aurangabad.jpg|thumb|250px|बीबी का मक़बरा, औरंगाबाद]] औरंगज़ेब ने किसी भी श्रेष्ठ इमारत का निर्माण नहीं करवाया। उसने 1659 ई. में दिल्ली की मोती मस्जिद के अधूरे कार्य कार्य को पूरा किया था। 1674 ई. में उसने लाहौर में ‘बादशाह मस्जिद’ का निर्माण करवाया। 1678 ई. में औरंगज़ेब ने अपनी 'बेगम रबिया दोरानी' की स्मृति में 'औरंगजाबाद' में एक मक़बरे का निर्माण करवाया। यह ‘बीबी का मक़बरा’ के नाम से प्रसिद्व है, जो ताजमहल की फूहड़ नकल है। इस मक़बरे के माध्यम से मुग़ल स्थापत्य में पतन को स्पष्ट रूप से अनुभव किया जा सकता है।

बीबी का मक़बरा अकबर एवं शाहजहाँ के काल के शाही निर्माण से अंतिम मुग़लों के साधारण वास्तुकला के परिवर्तन को दर्शाता है। यह मक़बरा दक्षिण भारतीय ताज के रूप में जाना जाता है। इसके प्रवेश द्वार से भीतर जाने के बाद आगे बिल्कुल ताजमहल जैसा लगता हैं। सामने एक छोटा ताल हैं, जिसमे ताजमहल जैसी छवि झिलमिलाती हैं। आगे गलियारा जैसा हैं, जिसके दोनों और हरीतिमा हैं। मक़बरे में आगे जाकर एक बड़ा हॉल है, जिसमें बीचोबीच रेलिंग लगी हुई है। जिससे नीचे मक़बरा दिखाई देता है। हॉल की दीवारों और छत पर बहुत सुन्दर नक़्क़ाशी है। इस बड़े हॉल के चारों ओर खुला भाग और चारों ओर स्तम्भ बने हुए हैं। मक़बरे के बाहर चारों ओर बड़े भू-भाग में हरियाली हैं। बीबी का मक़बरा बहुत सुन्दर जगह स्थित हैं।

औरंगज़ेब के बाद का उल्लेखनीय मुग़लकालीन भवन दिल्ली का सफ़दरजंग का मक़बरा (1753 ई.) है, जो अवध के दूसरे नवाब का मक़बरा है।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

संबंधित लेख