जेम्स आउटरम: Difference between revisions
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==चीफ़ कमीश्नर तथा बैरन की पदवी== | ==चीफ़ कमीश्नर तथा बैरन की पदवी== | ||
सन 1854 ई. में जेम्स आउटरम [[लखनऊ]] में रेजिडेंट नियुक्त हुआ। 1856 ई. में उसने [[अवध]] का राज्य नवाबों से ले लिया और उसके अंग्रेज़ी साम्राज्य में मिला लिये जाने के बाद प्रान्त का पहला चीफ़ कमिश्नर नियुक्त हुआ। जिस समय गदर हुआ, वह [[फ़ारस]] में था। उसे शीघ्रता से फ़ारस से बुला लिया गया और [[कलकत्ता]] से [[कानपुर]] तक की रक्षा करने वाली बंगाल आर्मी का कमांडर नियुक्त किया गया। उसने लखनऊ रेजीडेंसी का मोहासरा उठाने में हैवलाक की भारी मदद की और विद्रोहियों को चकमा देकर रेजिडेंसी में फँसी फ़ौज को निकाल ले आया। इसके बाद उसने लखनऊ पर पुन: अधिकार करने में सर कालिन कैम्पबेल को मदद दी। गदर के समय उसने लोमड़ी जैसी चालाकी तथा सिंह जैसी बहादुरी का परिचय दिया। ब्रिटिश पार्लियामेंट ने इसके उपलक्ष्य में उसे 'बैरन' की पदवी प्रदान की और उसकी आजीवन पेंशन नियत कर दी। | सन 1854 ई. में जेम्स आउटरम [[लखनऊ]] में रेजिडेंट नियुक्त हुआ। 1856 ई. में उसने [[अवध]] का राज्य नवाबों से ले लिया और उसके अंग्रेज़ी साम्राज्य में मिला लिये जाने के बाद प्रान्त का पहला चीफ़ कमिश्नर नियुक्त हुआ। जिस समय गदर हुआ, वह [[फ़ारस]] में था। उसे शीघ्रता से फ़ारस से बुला लिया गया और [[कलकत्ता]] से [[कानपुर]] तक की रक्षा करने वाली बंगाल आर्मी का कमांडर नियुक्त किया गया। उसने लखनऊ रेजीडेंसी का मोहासरा उठाने में हैवलाक की भारी मदद की और विद्रोहियों को चकमा देकर रेजिडेंसी में फँसी फ़ौज को निकाल ले आया। इसके बाद उसने लखनऊ पर पुन: अधिकार करने में सर कालिन कैम्पबेल को मदद दी। गदर के समय उसने लोमड़ी जैसी चालाकी तथा सिंह जैसी बहादुरी का परिचय दिया। ब्रिटिश पार्लियामेंट ने इसके उपलक्ष्य में उसे 'बैरन' की पदवी प्रदान की और उसकी आजीवन पेंशन नियत कर दी। | ||
==मृत्यु== | ==मृत्यु== | ||
उसने 1860 ई. में अवकाश ग्रहण | कलकत्ता में स्थापित जेम्स आउटरम की घोड़े पर सवार मूर्ति मूर्तिकला का उत्तम उदाहरण थी। उसने 1860 ई. में अवकाश ग्रहण कर लिया था और 1863 ई. में [[इंग्लैण्ड]] में उसकी मृत्यु हुई। | ||
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Latest revision as of 14:27, 18 October 2011
जेम्स आउटरम गदर के समय अंग्रेज़ों का एक वीर नायक था। वह 1819 ई. में एक कैडेट (शिक्षार्थी सैनिक अधिकी) के रूप में भारत आया। 1820 में अपनी चुस्ती के कारण वह पूना में एडजुटेंट बना दिया गया। जेम्स आउटरम को 1825 ई. में ख़ानदेश भेजा गया। वहाँ के भील उससे बहुत प्रभावित हुए। उसने भीलों को पैदल सेना में भर्ती किया। उनको हल के हथियार दिये। यह पलटन स्थानीय चोरों की लूटमार रोकने में बहुत ही सफल सिद्ध हुई। 1835 से 1838 ई. तक वह गुजरात में पोलिटिकल एजेंट रहा। 1838 ई. में उसने अफ़ग़ान युद्ध में भाग लिया।
न्यायप्रिय व्यक्ति
जेम्स आउटरम ने ग़ज़नी के क़िले के सामने शत्रुओं के झण्डे छीन लेने में व्यक्तिगत रीति से वीरता प्रदर्शित की, जिसके कारण उसका बहुत नाम हुआ। 1839 ई. में वह सिन्ध में पोलिटिकल एजेंट नियुक्त हुआ। उसने अपने उच्च अधिकारी सर चार्ल्स जेम्स नेपियर की नीति का विरोध करके, जिसके फलस्वरूप सिन्ध के अमीरों से युद्ध हुआ, अपने सबल व्यक्तित्व तथा अपनी न्यायप्रियता का परिचय दिया। परन्तु जब युद्ध छिड़ गया, तो उसने 800 बलूचियों के हमले से हैदराबाद रेजिडेंसी की वीरतापूर्वक रक्षा की। इसके फलस्वरूप सर चार्ल्स नेपियर ने उसकी तुलना प्रसिद्ध फ़्राँसीसी वीर बेयार्ड से की।
चीफ़ कमीश्नर तथा बैरन की पदवी
सन 1854 ई. में जेम्स आउटरम लखनऊ में रेजिडेंट नियुक्त हुआ। 1856 ई. में उसने अवध का राज्य नवाबों से ले लिया और उसके अंग्रेज़ी साम्राज्य में मिला लिये जाने के बाद प्रान्त का पहला चीफ़ कमिश्नर नियुक्त हुआ। जिस समय गदर हुआ, वह फ़ारस में था। उसे शीघ्रता से फ़ारस से बुला लिया गया और कलकत्ता से कानपुर तक की रक्षा करने वाली बंगाल आर्मी का कमांडर नियुक्त किया गया। उसने लखनऊ रेजीडेंसी का मोहासरा उठाने में हैवलाक की भारी मदद की और विद्रोहियों को चकमा देकर रेजिडेंसी में फँसी फ़ौज को निकाल ले आया। इसके बाद उसने लखनऊ पर पुन: अधिकार करने में सर कालिन कैम्पबेल को मदद दी। गदर के समय उसने लोमड़ी जैसी चालाकी तथा सिंह जैसी बहादुरी का परिचय दिया। ब्रिटिश पार्लियामेंट ने इसके उपलक्ष्य में उसे 'बैरन' की पदवी प्रदान की और उसकी आजीवन पेंशन नियत कर दी।
मृत्यु
कलकत्ता में स्थापित जेम्स आउटरम की घोड़े पर सवार मूर्ति मूर्तिकला का उत्तम उदाहरण थी। उसने 1860 ई. में अवकाश ग्रहण कर लिया था और 1863 ई. में इंग्लैण्ड में उसकी मृत्यु हुई।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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