इण्डियन कौंसिल एक्ट

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इण्डियन कौंसिल एक्ट पहली बार 1861 ई. में पारित हुआ था। दूसरा एक्ट 1892 ई. में तथा तीसरा एक्ट 1909 ई. में पारित हुआ। ये एक्ट (क़ानून) भारत की प्रशासनिक व्यवस्था का क्रमिक विकास सूचित करते हैं, जिनके द्वारा प्रशासन में भारतीय जनता को भी कुछ राय देने की सुविधा प्रदान की गई थी। 1861 ई. के इण्डियन कौंसिल एक्ट के द्वारा गवर्नर-जनरल की एक्जीक्यूटिव कौंसिल में पाँच सदस्यों की नियुक्ति की गई और कौंसिल के प्रत्येक सदस्य को विभिन्न विभागों की ज़िम्मेदारी सौंप देने की प्रथा आरम्भ हुई। एक्ट के द्वारा लेजिस्लेटिव कौंसिल का पुनर्गठन किया गया और अतिरिक्त सदस्यों की संख्या छह से बढ़कर बारह कर दी गई। इस बारह सदस्यों में से आधे ग़ैर-सरकारी होते थे।

एक्ट में परिवर्तन

1892 ई. के इण्डियन कौंसिल एक्ट के द्वारा इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्यों की संख्या बारह से बढ़कर सोलह कर दी गई और उनके मनोनयन की प्रथा इस प्रकार बना दी गई कि वे विविध वर्गों तथा हितों का प्रतिनिधित्व कर सकें। यद्यपि विधानमण्डलों में सरकारी सदस्यों का बहुमत क़ायम रखा गया, तथापि सदस्यों की नियुक्ति में यदि निर्वाचन प्रणाली का नहीं, तो प्रतिनिधित्व प्रणाली का श्री गणेश अवश्य कर दिया गया। विधानमण्डलों को वार्षिक बजट पर बहस करने तथा प्रश्न पूछने के व्यापक अधिकार प्रदान किये गये।

भारत विभाजन का बीज

1909 ई. का इण्डियल कौंसिल एक्ट मार्ले मिण्टों सुधारों पर आधृत था। इस एक्ट के द्वारा विधानमण्डलों के ग़ैर-सरकारी सदस्यों की संख्या भी बढ़ गई और उनमें से कुछ सदस्यों के अप्रत्यक्ष रीति से निर्वाचित किये जाने की व्यवस्था हुई। एक्ट के द्वारा मुसलमानों के लिए पृथक् साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की प्रथा शुरू की गई और इस प्रकार भारत के विभाजन का बीज रोपण कर दिया गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

भट्टाचार्य, सच्चिदानन्द भारतीय इतिहास कोश, द्वितीय संस्करण-1989 (हिन्दी), भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, 49।

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