गुरुवायूर सत्याग्रह: Difference between revisions
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मंदिर प्रवेश आंदोलन उन्हीं रास्तों से | मंदिर प्रवेश का यह आंदोलन उन्हीं रास्तों से होकर गुज़रा, जिनसे उस समय '[[भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन|राष्ट्रीय आंदोलन]]' गुज़र रहा था। इस आंदोलन को नेतृत्व प्रदान करने वालों ने राष्ट्रीय एकता का मजबूत आधार तैयार किया तथा छुआछूत के ख़िलाफ़ एक मजबूत जनमत तैयार किया। इस आंदोलन की सबसे बड़ी बात यह थी कि इसने जनता को छुआछूत उन्मूलन के लिए तो प्रेरित किया, पर जाति प्रथा के विरुद्ध आंदोलन नहीं किया। | ||
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गुरुवायूर सत्याग्रह 1 नवम्बर, सन 1931 में शुरू किया गया था। यह आंदोलन केरल के प्रसिद्ध 'गुरुवायूर मंदिर' में दलितों एवं पिछड़ों को प्रवेश दिलाने के अधिकार को लेकर के. केलप्पण के कहने पर 'केरल कांग्रेस कमेटी' द्वारा चलाया गया।
सत्याग्रहियों पर हमला
1 नवम्बर, सन 1931 को ‘अखिल केरल मंदिर प्रवेश दिवस’ के रूप में मनाया गया। पीत सुब्रह्ममण्यम तिरुभावु के नेतृत्व में 16 स्वयं सेवकों का एक दल 21 अक्टूबर को ही कानायूर से गुरुवायूर की ओर प्रस्थान कर चुका था। 1 नवम्बर को जब सत्याग्रही मंदिर के पूर्वी द्वार की ओर जा रहे थे, तब मंदिर के कर्मचारियों ने उन पर हमला कर दिया। पी. कृष्ण पिल्लै, ए. के. गोपालन गम्भीर रूप से घायल हुए। 21 दिसम्बर, 1932 को सत्याग्रह का रूप और भी कठोर हो गया। के. केलप्पण आमरण अनशन पर बैठ गए। उन्होंने अपना अनशन तब तक समाप्त न करने की घोषणा की, जब तक मंदिर के दरवाज़े दलितों के लिए नहीं खुल जाते। केरल तथा देश के विभिन्न भागों में हिन्दुओं ने मंदिर के संरक्षक कालीकट के राजा जमोरिन से अनुरोध किया कि वे मंदिरों में दलितों और हरिजनों के प्रवेश की अनुमति दें। महात्मा गाँधी के अनुरोध पर के. केलप्पण ने 2 अक्टूबर, सन 1932 को अनशन समाप्त कर दिया, परंतु संघर्ष पहले की ही तरह जारी रहा।
सामाजिक परिवर्तन का प्रेरणास्रोत
ए. के. गोपालन के नेतृत्व वाले गुट को, जो पूरे केरल की पदयात्रा कर मंदिर को दलितों के लिए खुलवाने के पक्ष में जनमत तैयार कर रहा था, सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया। ए. के. गोपालन के अनुसार- "हालांकि गुरुवायूर मंदिर के दरवाज़े अवर्णों के लिए बंद थे, परंतु यह आंदोलन सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रेरणादायक सिद्ध हुआ।“ नवम्बर, 1936 ई. को त्रावनकोर के महाराजा ने एक आदेश द्वारा सरकार नियंत्रित सभी मंदिरों को समस्त हिन्दू जातियों के लिए खोल दिया। सन 1938 में राजगोपालाचारी के नेतृत्व वाले मद्रास मंत्रिमण्डल ने भी ऐसा ही किया।
मंदिर प्रवेश का यह आंदोलन उन्हीं रास्तों से होकर गुज़रा, जिनसे उस समय 'राष्ट्रीय आंदोलन' गुज़र रहा था। इस आंदोलन को नेतृत्व प्रदान करने वालों ने राष्ट्रीय एकता का मजबूत आधार तैयार किया तथा छुआछूत के ख़िलाफ़ एक मजबूत जनमत तैयार किया। इस आंदोलन की सबसे बड़ी बात यह थी कि इसने जनता को छुआछूत उन्मूलन के लिए तो प्रेरित किया, पर जाति प्रथा के विरुद्ध आंदोलन नहीं किया।
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