पाबना विद्रोह: Difference between revisions
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Revision as of 07:02, 6 August 2011
पाबना विद्रोह 1873 से 1876 ई. तक चला था। पाबना ज़िले के काश्तकारों को 1859 ई. में एक एक्ट द्वारा बेदखली एवं लगान में वृद्धि के विरुद्ध एक सीमा तक संरक्षण प्राप्त हुआ था, इसके बाबजूद भी ज़मींदारों ने उनसे सीमा से अधिक लगान वसूला एवं उनको उनकी ज़मीन के अधिकार से वंचित किया। ज़मींदार को ज़्यादती का मुकाबला करने के लिए 1873 ई. में पाबना के 'युसुफ़ सराय' के किसानों ने मिलकर एक 'कृषक संघ' का गठन किया। इस संगठन का मुख्य कार्य पैसे एकत्र करना एवं सभायें आयोजित करना होता था।
किसानों की माँग
कालान्तर में पूर्वी बंगाल के अनेक ज़िले ढाका, मैमनसिंह, त्रिपुरा, बेकरगंज, फ़रीदपुर, बोगरा एवं राजशाही में इस तरह के आन्दोलन हुए। किसान संघ ने बढ़े लगान की अदायगी रोककर पैमाइश की माप में परिवर्तन एवं अवैधानिक करों की समाप्ति तथा लगान में कमी करवाने की अपनी माँगों को पूरा करवाना चाहा। यह आन्दोलन कुछ मामलों में अहिंसक था। यह ज़मींदारों के विरुद्ध किया गया आन्दोलन था, न कि अंग्रेज़ों के विरुद्ध। पाबना के किसानों ने अपनी माँग में यह नारा दिया कि, 'हम महामहिम महारानी की और केवल उन्हीं की रैय्यत होना चाहते हैं'। तत्कालीन गवर्नर कैम्पबेल ने एक घोषणा में इनकी माँगों को उचित ठहराया।
प्रमुख नेता
इस आन्दोलन में रैय्यतों अधिकतर मुसलमान एवं ज़मींदारों में अधिकतर हिन्दू थे। इस आन्दोलन के महत्वपूर्ण नेताओं में ईशान चन्द्र राय, शंभुपाल आदि थे। पाबना विद्रोह का समर्थन कई युवा बुद्धिजीवियों ने किया, जिनमें बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय और आर.सी. दत्त शामिल थे। 1880 ई. के दशक में जब बंगाल काश्तकारी विधेयक पर चर्चा चल रही थी, तब सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, आनंद मोहन बोस और द्वारका नाथ गांगुली ने एसोसिएशन के माध्यम से काश्तकारों के अधिकारों की रक्षा के लिए अभियान चलाया। इन लोगों ने माँग की थी, कि ज़मीन पर मालिकाना हक उन लोगों को दिया जाना चाहिए, जो वस्तुतः उसे जोतते हों।
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