शैलपुत्री प्रथम: Difference between revisions
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वन्दे वांछितलाभाय चन्द्रर्धकृत शेखराम्। | वन्दे वांछितलाभाय चन्द्रर्धकृत शेखराम्। | ||
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कमनीयां लावण्यां स्नेमुखी क्षीणमध्यां नितम्बनीम्॥ | कमनीयां लावण्यां स्नेमुखी क्षीणमध्यां नितम्बनीम्॥ | ||
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प्रथम दुर्गा त्वंहि भवसागर: तारणीम्। | प्रथम दुर्गा त्वंहि भवसागर: तारणीम्। | ||
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मुक्ति भुक्ति दायनीं शैलपुत्री प्रमनाम्यहम्॥ | मुक्ति भुक्ति दायनीं शैलपुत्री प्रमनाम्यहम्॥ | ||
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ओमकार: में शिर: पातु मूलाधार निवासिनी। | ओमकार: में शिर: पातु मूलाधार निवासिनी। | ||
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फट्कार पात सर्वागे सर्व सिद्धि फलप्रदा॥ | फट्कार पात सर्वागे सर्व सिद्धि फलप्रदा॥ | ||
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==सती की कथा== | |||
[[मार्कण्डेय पुराण]] के अनुसार यहीं नवदुर्गाओं में प्रथम [[दुर्गा]] हैं। अपने पूर्व जन्म में प्रजापति [[दक्ष]] की कन्या के रूप में उत्पन्न हुईं थी। तब इनका नाम 'सती' था। इनका विवाह भगवान [[शंकर]] से हुआ था। एक बार प्रजापति दक्ष ने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया। इसमें उन्होंने सभी देवताओं को यज्ञ भाग प्राप्त करने के लिए निमन्त्रित किया लेकिन शंकर जी को उन्होंने इस यज्ञ में निमन्त्रित नहीं किया। सती ने जब सुना कि उनके पिता एक विशाल यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं, तब वहां जाने की लिए मन विकल हो उठा। अपनी यह इच्छा उन्होंने शंकर जी को बतायी। उन्होंने कहा प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे रुष्ट हैं, अपने [[यज्ञ]] में उन्होंने सारे देवताओं को निमन्त्रित किया है उनके यज्ञ भाग भी उन्हें समर्पित किये हैं, किन्तु हमें नहीं बुलाया है। ऐसी परिस्थिति में तुम्हारा वहां जाना श्रेयस्कर नहीं होगा। शंकर जी के इस उपदेश से सती को बोध नहीं हुआ। पिता का यज्ञ देखने, माता और बहनों से मिलने की व्यग्रता और उनका प्रबल आग्रह देखकर भगवान शंकर ने उन्हें वहां जाने की आज्ञा दे दी। सती ने पिता के घर पहुंचकर देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम के साथ बात नहीं कर रहा है। केवल उनकी माता ने स्नेह से उन्हें गले लगाया। बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास का भाव था। परिजनों के इस व्यवहार से उनके मन को संताप हुआ। उन्होंने यह भी देखा कि वहां चतुर्दिक भगवान शंकर के प्रति तिरस्कार का भाव भरा था। दक्ष ने उनके पति शंकर जी के प्रति कुछ अपमानजनक वचन भी कहे। यह सब देखकर सती का हृदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से भर उठा। उन्हें लगा भगवान शंकर की बात न मान यहाँ आकर मैंने बहुत बड़ी ग़लती की है। वह अपने पति का अपमान सह न सकीं। उन्होंने अपने उस रूप को तत्क्षण वहीं योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया। वज्रपात के समान उस दारुण दु:खद घटना को सुनकर शंकर जी ने क्रुद्ध होकर अपने गणों को भेजकर दक्ष के उस यज्ञ का पूर्णत: विध्वंस करा दिया। सती ने अगले जन्म में शैलराज [[हिमालय]] की पुत्री के रूप में जन्म लिया। इस बार वह शैलपुत्री के नाम से विख्यात हुईं। [[पार्वती देवी|पार्वती]], हेमवती भी उन्हीं के नाम हैं। [[उपनिषद]] की एक कथा के अनुसार इन्हीं ने हेमवती स्वरूप से देवताओं का गर्व भंजन किया था। | |||
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Revision as of 08:05, 5 April 2014
शैलपुत्री प्रथम
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विवरण | नवरात्र के पहले दिन माँ दुर्गा के पहले स्वरूप 'शैलपुत्री' की पूजा होती है। |
' | मूर्ति किसी भी धातु या मिट्टी की हो सकती है। कलश के पीछे स्वास्तिक और उसके युग्म पार्श्व में त्रिशूल बनायें। |
पूजन | चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को प्रात: काल |
धार्मिक मान्यता | पर्वतराज हिमालय के यहाँ पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम शैलपुत्री पड़ा था। |
अन्य जानकारी | इस दिन उपासना में योगी अपने मन को मूलाधार चक्र में स्थित करते हैं। यहीं से उनकी योगसाधना का आरम्भ होता है। |
शारदीय नवरात्र आरम्भ होने पर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन कलश स्थापना के साथ ही माँ दुर्गा की पूजा शुरू की जाती है। पहले दिन माँ दुर्गा के पहले स्वरूप शैलपुत्री की पूजा होती है। पर्वतराज हिमालय के यहाँ पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम शैलपुत्री पड़ा था। भगवती का वाहन वृषभ, दाहिने हाथ में त्रिशूल, और बायें हाथ में कमल सुशोभित है। अपने पूर्व जन्म में ये प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थीं। तब इनका नाम सती था। इनका विवाह भगवान शंकरजी से हुआ था। एक बार वह अपने पिता के यज्ञ में गईं तो वहाँ अपने पति भगवान शंकर के अपमान को सह न सकीं। उन्होंने वहीं अपने शरीर को योगाग्नि में भस्म कर दिया। अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया और शैलपुत्री नाम से विख्यात हुईं। इस जन्म में भी शैलपुत्री देवी शिवजी की ही अर्द्धांगिनी बनीं। नव दुर्गाओं में प्रथम शैलपुत्री का महत्त्व और शक्तियाँ अनन्त हैं। नवरात्र पूजन में प्रथम दिन इन्हीं की पूजा और उपासना की जाती है। इस दिन उपासना में योगी अपने मन को मूलाधार चक्र में स्थित करते हैं। यहीं से उनकी योगसाधना का आरम्भ होता है। इस स्वरूप का आज के दिन पूजन किया जाता है। आवाहन, स्थापन और विसर्जन ये तीनों आज प्रात:काल ही होंगे। किसी एकान्त स्थान पर मृत्तिका से वेदी बनाकर उसमें जौ गेंहू बोये जाते हैं। उस पर कलश स्थापित किया जाता है। कलश पर मूर्ति की स्थापना होती है। मूर्ति किसी भी धातु या मिट्टी की हो सकती है। कलश के पीछे स्वास्तिक और उसके युग्म पार्श्व में त्रिशूल बनायें। शैलपुत्री के पूजन करने से 'मूलाधार चक्र' जाग्रत होता है। जिससे अनेक प्रकार की उपलब्धियां प्राप्त होती हैं।
ध्यान
वन्दे वांछितलाभाय चन्द्रर्धकृत शेखराम्।
वृशारूढ़ा शूलधरां शैलपुत्री यशस्वनीम्॥
पूणेन्दु निभां गौरी मूलाधार स्थितां प्रथम दुर्गा त्रिनेत्राम्॥
पटाम्बर परिधानां रत्नाकिरीटा नामालंकार भूषिता॥
प्रफुल्ल वंदना पल्लवाधरां कातंकपोलां तुग कुचाम्।
कमनीयां लावण्यां स्नेमुखी क्षीणमध्यां नितम्बनीम्॥
स्तोत्र पाठ
प्रथम दुर्गा त्वंहि भवसागर: तारणीम्।
धन ऐश्वर्य दायिनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यम्॥
त्रिलोजननी त्वंहि परमानंद प्रदीयमान्।
सौभाग्यरोग्य दायनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यहम्॥
चराचरेश्वरी त्वंहि महामोह: विनाशिन।
मुक्ति भुक्ति दायनीं शैलपुत्री प्रमनाम्यहम्॥
कवच
ओमकार: में शिर: पातु मूलाधार निवासिनी।
हींकार: पातु ललाटे बीजरूपा महेश्वरी॥
श्रींकार पातु वदने लावाण्या महेश्वरी ।
हुंकार पातु हदयं तारिणी शक्ति स्वघृत।
फट्कार पात सर्वागे सर्व सिद्धि फलप्रदा॥
सती की कथा
मार्कण्डेय पुराण के अनुसार यहीं नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं। अपने पूर्व जन्म में प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में उत्पन्न हुईं थी। तब इनका नाम 'सती' था। इनका विवाह भगवान शंकर से हुआ था। एक बार प्रजापति दक्ष ने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया। इसमें उन्होंने सभी देवताओं को यज्ञ भाग प्राप्त करने के लिए निमन्त्रित किया लेकिन शंकर जी को उन्होंने इस यज्ञ में निमन्त्रित नहीं किया। सती ने जब सुना कि उनके पिता एक विशाल यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं, तब वहां जाने की लिए मन विकल हो उठा। अपनी यह इच्छा उन्होंने शंकर जी को बतायी। उन्होंने कहा प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे रुष्ट हैं, अपने यज्ञ में उन्होंने सारे देवताओं को निमन्त्रित किया है उनके यज्ञ भाग भी उन्हें समर्पित किये हैं, किन्तु हमें नहीं बुलाया है। ऐसी परिस्थिति में तुम्हारा वहां जाना श्रेयस्कर नहीं होगा। शंकर जी के इस उपदेश से सती को बोध नहीं हुआ। पिता का यज्ञ देखने, माता और बहनों से मिलने की व्यग्रता और उनका प्रबल आग्रह देखकर भगवान शंकर ने उन्हें वहां जाने की आज्ञा दे दी। सती ने पिता के घर पहुंचकर देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम के साथ बात नहीं कर रहा है। केवल उनकी माता ने स्नेह से उन्हें गले लगाया। बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास का भाव था। परिजनों के इस व्यवहार से उनके मन को संताप हुआ। उन्होंने यह भी देखा कि वहां चतुर्दिक भगवान शंकर के प्रति तिरस्कार का भाव भरा था। दक्ष ने उनके पति शंकर जी के प्रति कुछ अपमानजनक वचन भी कहे। यह सब देखकर सती का हृदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से भर उठा। उन्हें लगा भगवान शंकर की बात न मान यहाँ आकर मैंने बहुत बड़ी ग़लती की है। वह अपने पति का अपमान सह न सकीं। उन्होंने अपने उस रूप को तत्क्षण वहीं योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया। वज्रपात के समान उस दारुण दु:खद घटना को सुनकर शंकर जी ने क्रुद्ध होकर अपने गणों को भेजकर दक्ष के उस यज्ञ का पूर्णत: विध्वंस करा दिया। सती ने अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया। इस बार वह शैलपुत्री के नाम से विख्यात हुईं। पार्वती, हेमवती भी उन्हीं के नाम हैं। उपनिषद की एक कथा के अनुसार इन्हीं ने हेमवती स्वरूप से देवताओं का गर्व भंजन किया था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
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