भारत सरकार अधिनियम- 1919: Difference between revisions

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Revision as of 08:47, 25 December 2014

भारत सरकार अधिनियम- 1919 को 'मांटेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड सुधार' के नाम से भी जाना जाता है। भारतमंत्री लॉर्ड मांटेग्यू ने 20 अगस्त, 1917 को ब्रिटिश संसद में यह घोषणा की कि ब्रिटिश सरकार का उद्देश्य भारत में उत्तरदायी शासन की स्थापना करना है। नवम्बर, 1917 में भारतमंत्री मांटेग्यू ने भारत आकर तत्कालीन वायसराय चेम्सफ़ोर्ड एवं अन्य असैनिक अधिकारियों एवं भारतीय नेताओं से प्रस्ताव के बारे में विचार-विमर्श किया। एक समिति सर विलियम ड्यूक, भूपेन्द्रनाथ बासु, चार्ल्स रॉबर्ट की सदस्यता में बनाई गयी, जिसने भारतमंत्री एवं वायसराय को प्रस्तावों को अन्तिम रूप देने में सहयोग दिया। 1918 ई. में इस प्रस्ताव को प्रकाशित किया गया। यह अधिनियम अन्तिम रूप से 1921 ई. में लागू किया गया। मांटेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड रिपोर्ट के प्रवर्तनों को भारत के रंग बिरंगे इतिहास में "सबसे महत्त्वपूर्ण घोषणा" की संज्ञा दी गयी और इसे एक युग का अन्त और एक नवीन युग का प्रारंभ माना गया। इस घोषणा ने कुछ समय के लिए भारत में तनावपूर्ण वातावरण को समाप्त कर दिया। पहली बार 'उत्तरदायी शासन' शब्दों का प्रयोग इसी घोषणा में किया गया।

विशेषताएँ

1919 के इस अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थी-

  1. प्रान्तों के हस्तान्तरित विषयों पर भारत सचिव का नियंत्रण कम हो गया, जबकि केन्द्रीय नियंत्रण बना रहा।
  2. भारतीय कार्य की देखभाल के लिए एक नया अधिकारी 'भारतीय उच्चायुक्त' नियुक्त किया गया। इसे भारतीय राजकोष से वेतन देने की व्यवस्था की गयी।
  3. गवर्नर-जनरल की कार्यकारिणी में 8 सदस्यों में से 3 भारतीय नियुक्त किये गये तथा इन्हें विधि, श्रम, शिक्षा, स्वास्थ व उद्योग विभाग सौंपे गये।
  4. विषयों को पहली बार केन्द्रीय व प्रान्तीय भागों में बांटा गया। राष्ट्रीय महत्व के विषयों को केन्द्रीय सूची में शामिल किया गया था, जिस पर गवर्नर-जनरल सपरिषद क़ानून बना सकता था। विदेशी मामले रक्षा, राजनीतिक संबंध, डाक और तार, सार्वजनिक ऋण, संचार व्यवस्था, दीवानी तथा फ़ौजदारी क़ानून तथा कार्य प्रणाली इत्यादि सभी मामले केन्द्रीय सूची मे थे। प्रान्तीय महत्व के विषयों पर गवर्नर कार्यकारिणी तथा विधानमण्डल की सहमति से क़ानून बनाता था। प्रान्तीय महत्व के विषय थे- स्वास्थ्य, स्थानीय स्वशासन, भूमिकर प्रशासन, शिक्षा, चिकत्सा, जलसंभरण, अकाल सहायता, शान्ति व्यवस्था, कृषि इत्यादि। जो विषय स्पष्टतया हस्तान्तरित नहीं किये गये थे, वे सभी केन्द्रीय माने गये।
  5. केन्द्र में द्विसदनी विधान सभा राज्य परिषद में स्त्रियाँ सदस्यता के लिए उपयुक्त नहीं समझी गयी थी, केन्द्रीय विधानसभा का कार्यकाल 3 वर्षों का था, जिसे गवर्नर-जनरल बढ़ा सकता था। साम्प्रदायिक निर्वाचन का दायरा बढ़ाकर सिक्खों तक विस्तृत कर दिया गया।
  6. केन्द्रीय विधान मण्डल सम्पूर्ण भारत के लिए क़ानून बना सकता था। गवर्नर-जनरल अध्यादेश जारी कर सकता था तथा उसकी प्रभाविता 6 महीने तक रहती थी।
  7. बजट पर बहस हो तो सकती थी, पर मतदान का अधिकार नहीं दिया गया था।
  8. प्रान्तों में वैध शासन लागू किया गया, प्रान्तीय विषयों को दो भागो में विभाजित किया गया, आरक्षित एवं हस्तान्तरित। आरक्षित विषयों का प्रशासन उन मंत्रियो की सहयाता से गवर्नर करता था, जो विधानमण्डल के निर्वाचित सदस्य थे, परन्तु उनकी पद स्थापना व पदच्युति गवर्नर की इच्छा पर आधारित थी। हस्तान्तरित व आरक्षित विषयों का विभाजन भी दोषपूर्ण था। उदाहरणार्थ- सिंचाई तो आरक्षित विषय था और कृषि हस्तान्तरित, परन्तु स्पष्ट है कि दोनो एक दूसरे से अविभेद्य हैं। इसी प्रकार उद्योग हस्तान्तरित था, जबकि जलशक्ति, कल कारखाने आदि आरक्षित विषय थे, जिन्हें एक दूसरे से पृथक करना अव्यावहारिक था।

द्वैध शासन पद्धति 1 अप्रैल, 1921 को लागू की गयी, जो 1 अप्रैल, 1937 तक चलती रही, परन्तु बंगाल में 1924 से 1927 ई. तक और मध्य प्रान्त में 1924 से 1926 ई. तक यह कार्य नहीं कर सकी। इस अधिनियम का महात्त्वपूर्ण दोष था- प्रान्तों मे 'द्वैध शासन की स्थापना' एवं 'साम्प्रदायिक निर्वाचन पद्धति का विस्तार'।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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