सेंट्रल असेम्बली बमकांड: Difference between revisions
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==अंग्रेज़ सरकार का बिल== | ==अंग्रेज़ सरकार का बिल== |
Revision as of 12:30, 14 May 2013
सेंट्रल असेम्बली बमकांड की घटना 8 अप्रैल, 1929 को घटी। इस घटना को क्रांतिकारी सरदार भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने अंजाम दिया। इस बमकांड का उद्देश्य किसी को हानि पहुँचाना नहीं था। इसीलिए बम भी असेम्बली में ख़ाली स्थान पर ही फेंका गया था। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त बम फेंकने के बाद वहाँ से भागे नहीं, अपितु स्वेच्छा से अपनी गिरफ्तारी दे दी। इस समय इन्होंने वहाँ पर्चे भी बाटें, जिसका प्रथम वाक्य था कि- बहरों को सुनाने के लिये विस्फोट के बहुत ऊँचे शब्द की आवश्यकता होती है। कुछ सुराग मिलने के बाद 'लाहौर षड़यन्त्र' केस के नाम से मुकदमा चला। 7 अक्टूबर, 1930 को फैसला सुनाया गया, जिसके अनुसार राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह को फांसी की सज़ा दी गई।
अंग्रेज़ सरकार का बिल
अंग्रेज़ सरकार दिल्ली की असेंबली में 'पब्लिक सेफ्टी बिल' और 'ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल' लाने की तैयारी में थी। ये बहुत ही दमनकारी क़ानून थे और सरकार इन्हें पास करने का फैसला कर चुकी थी। शासकों का इस बिल को क़ानून बनाने के पीछे उद्देश्य था कि जनता में क्रांति का जो बीज पनप रहा है, उसे अंकुरित होने से पहले ही समाप्त कर दिया जाए। गंभीर विचार-विमर्श के पश्चात 8 अप्रैल, 1929 का दिन असेंबली में बम फेंकने के लिए तय हुआ और इस कार्य के लिए भगत सिंह एवं बटुकेश्र्वर दत्त निश्चित हुए।
बमकांड
यद्यपि असेंबली के बहुत से सदस्य इस दमनकारी क़ानून के विरुद्ध थे, तथापि वायसराय इसे अपने विशेषाधिकार से पास करना चाहता था। इसलिए यही तय हुआ कि जब वायसराय 'पब्लिक सेफ्टी बिल' को क़ानून बनाने के लिए प्रस्तुत करे, ठीक उसी समय धमाका किया जाए और ऐसा ही किया गया। जैसे ही बिल संबंधी घोषणा की गई तभी भगत सिंह ने बम फेंका। इसके पश्चात क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करने का दौर चला। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास मिला। भगत सिंह और उनके साथियों पर 'लाहौर षडयंत्र' का मुक़दमा भी जेल में रहते ही चला। भागे हुए क्रांतिकारियों में प्रमुख राजगुरु पूना से गिरफ़्तार करके लाए गए। अंत में अदालत ने वही फैसला दिया, जिसकी पहले से ही उम्मीद थी। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को मृत्युदंड की सज़ा मिली।
क्रांतिकारियों को फाँसी
23 मार्च, 1931 की रात को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी पर लटका दिया गया। यह भी माना जाता है कि मृत्युदंड के लिए 24 मार्च की सुबह ही तय थी, लेकिन जनरोष से डरी सरकार ने 23-24 मार्च की मध्य रात्रि में ही इन वीरों की जीवनलीला समाप्त कर दी और रात के अंधेरे में ही सतलुज नदी के किनारे उनका अंतिम संस्कार भी कर दिया।
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