अनवरुद्दीन: Difference between revisions

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Revision as of 12:24, 12 March 2011

अनवरुद्दीन (1743-49) आरम्भ में निजामुल्मुल्क़ आसफ़जाह का कर्मचारी था। निज़ाम ने प्रसन्न होकर उसको 1743 ई. में कर्नाटक का नवाब नियुक्त कर दिया। उसकी राजधानी अर्काट थी। निज़ाम ने पहले नवाब दोस्तअली के लड़कों और रिश्तेदारों को नवाब नहीं बनाया। उस समय कर्नाटक में अशान्ति फैली हुई थी। मराठे लगातार हमले कर रहे थे और पुराने नवाब मरहम दोस्तअली के रिश्तेदार नये नवाब के लिए मुश्किलें पैदा कर रहे थे। उस समय अशान्ति और बढ़ी, जब आस्ट्रिया के उत्तराधिकार का युद्ध (1740-48 ई.) शुरू हो गया और कर्नाटक के क्षेत्र में पांडिचेरी और मद्रास में स्थित फ़्राँसीसी और अंग्रेज़ व्यापारी भी आपस में लड़ने लगे।

संरक्षक

अनवरुद्दीन कर्नाटक के नवाब के रूप में फ़्राँसीसी और अंग्रेज़ दोनों का संरक्षक था, इसलिए आशा की जाती थी कि वह अपने राज्य में उन दोनों को लड़ने से रोकेगा। अंग्रेज़ और फ़्राँसीसी दोनों संकटकाल में उसको अपना संरक्षक स्वीकार कर लेते थे। इस तरह युद्ध के आरम्भ में जब अधिक नौसैनिक शक्ति के बल पर अंग्रेज़ों ने फ़्राँसीसी जहाज़ों को लूटना शुरू किया तो, पांडिचेरी के फ़्राँसीसी गवर्नर डूप्ले ने नवाब से फ़्राँसीसी जहाज़ों की रक्षा करने की प्रार्थना की। लेकिन नवाब के पास जहाज़ नहीं थे, इसलिए अंग्रेज़ों ने उसके विरोध की धृष्टापूर्वक उपेक्षा कर दी और अपनी लड़ाई जारी रखी। लेकिन जब 1746 ई. में फ़्राँसीसियों ने मद्रास पर घेरा डाला तो अंग्रेज़ों ने भी जो अब तक नवाब के अधिकार की उपेक्षा कर रहे थे, नवाब अनवरुद्दीन से सुरक्षा की प्रार्थना की।

युद्ध

अनवरुद्दीन ने संरक्षक की हैसियत से डूप्ले से मद्रास का घेरा उठा लेने और शान्ति क़ायम रखने के लिए कहा, लेकिन फ़्राँसीसियों ने उसकी एक न सुनी। चूंकि अंग्रेज़ों और फ़्राँसीसियों की लड़ाई जहाँ ज़मीन पर चल रही थी और अनवरुद्दीन के पास बड़ी फ़ौज थी, इसलिए उसने फ़्राँसीसियों द्वारा डाले गए मद्रास के घेरे को तोड़ने के लिए अपनी सेना भेजी। लेकिन नवाब की सेना के पहुँचने के पहले ही फ़्राँसीसियों ने मद्रास पर क़ब्ज़ा कर लिया। नवाब की सेना ने फ़्राँसीसियों को मद्रास में घेर लिया। इस पर छोटी सी फ़्राँसीसी सेना ने, जो मद्रास के क़िले में सुरक्षित थी, टिड्डी दल जैसी नवाब की सेना पर छापा मारा और उसे बिखरा दिया। नवाब की सेना पीछे हटकर सेंट टाम नामक स्थान पर चली आई, जहाँ एक छोटी सी फ़्राँसीसी कुमुक ने, जो मद्रास में घिरी फ़ाँसीसी सेना की सहायता के लिए जा रही थी, उसे पुन: हरा दिया। इन पराजयों के परिणामस्वरूप नवाब अनवरुद्दीन की हालत अंग्रेज़ों और फ़्राँसीसियों के बीच चलने वाले युद्ध के दौरान असहाय दर्शक की बनी रही। इन पराजयों का दूरगामी परिणाम भी निकला।

डूप्ले की गुप्त संधि

डूप्ले को यह विश्वास हो गया कि छोटी सी सुशिक्षित फ़्राँसीसी सेना अपने से बड़ी भारतीय सेना को आसानी से पराजित कर सकती है। डूप्ले ने निश्चय किया कि उसकी श्रेष्ठ सैनिक शक्ति भारत के देशी राजाओं के आंतरिक मामलों में निर्भय होकर हस्तक्षेप कर सकती है। इसलिए जब अंग्रेज़ों और फ़्राँसीसियों का युद्ध समाप्त हो गया, तो डूप्ले ने कर्नाटक के पुराने नवाब के दामाद चन्दा साहब से गुप्त संधि कर ली, जिसमें उसको कर्नाटक का नवाब बनवाने का वादा किया गया था। इस संधि के अनुसार चन्दा साहब और फ़्राँसीसी सेनाओं ने अनवरुद्दीन को बेलोर के दक्षिण-पश्चिम में स्थित आम्बूर की लड़ाई में अगस्त 1749 ई. में पराजित कर दिया और वह मारा गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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