मालगुज़ारी: Difference between revisions
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Revision as of 12:36, 12 March 2011
- मालगुज़ारी अथवा भूमिकर, अत्यन्त प्राचीन काल से भारत में सरकार की आय का प्रमुख स्रोत रहा है।
- राज्य को भूमि की उपज का एक भाग कर के रूप में लेने का अधिकार है, यह सिद्धान्त भारत में सदा से सर्वमान्य रहा है।
- मौर्य, गुप्त आदि हिन्दू राजाओं के शासनकाल में भूमि की उपज का एक छठाँ भाग कर के रूप में लिया जाता था।
- मुसलमानी शासनकाल में भूमिकर बहुधा मनमाने ढंग से बढ़ा दिया जाता था।
- अकबर ने मालगुज़ारी की दर भूमि की उपज का एक-तिहाई भाग निश्चित कर दी और समूचे मुग़ल शासन काल में यही दर वैध मानी जाती थी। परन्तु व्यवहार रूप में मालगुज़ारी की दर तथा मालगुज़ारी की वसूली की व्यवस्था में अनगिनत उलट-फेर होते रहते थे।
- ब्रिटिश शासनकाल में मुग़ल काल की व्यवस्था कुछ आवश्यक संशोधन के साथ स्वीकार कर ली गई।
- सिद्धान्त रूप में मालगुज़ारी की दर भूमि की उपज का कम से कम एक तिहाई भाग निर्धारित रखी गई और उसे सरकारी आय का मुख्य स्रोत माना गया।
- परन्तु अंग्रेज़ों ने मुग़लों की अपेक्षा समय-समय पर भूमि की पैमाइश कराने की कहीं अधिक विशद व्यवस्था की।
- भूमि की पैमाइश सबसे पहले सोलहवीं शताब्दी में शेरशाह सूरी ने कराई थी। उसने भूमि की समस्त पैदावार और नक़दी में उसका मूल्य निश्चित कर दिया और सरकार के भाग का समस्त भूमि कर सख़्ती से वसूल करने की व्यवस्था की।
- ब्रिटिश शासनकाल में भूमि दर घटाने की दिशा में कोई क़दम नहीं उठाया गया।
- भारतीय गणराज्य की वर्तमान सरकार ने भूमि की ब्रिटिश व्यवस्था क़ायम रखी है। यद्यपि सरकार और किसानों के बीच ज़मींदार ताल्लुकेदार, जोतदार आदि मध्यवर्तियों को हटाने और किसान को अपनी जोत का मालिक बनाने की दिशा में तेज़ क़दम उठाये गये हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
(पुस्तक 'भारतीय इतिहास कोश') पृष्ठ संख्या-360