औरंगज़ेब

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औरंगज़ेब
पूरा नाम अब्दुल मुज़फ़्फ़र मुइनुद्दीन मुहम्मद औरंगज़ेब बहादुर आलमगीर पादशाह गाज़ी
अन्य नाम औरंगज़ेब आलमगीर
जन्म 4 नवम्बर, सन 1618 ई.
जन्म भूमि दोहद (उज्जैन)
मृत्यु तिथि 3 मार्च, सन 1707 ई.
मृत्यु स्थान अहमदनगर के पास
पिता/माता शाहजहाँ, मुमताज़ महल
पति/पत्नी रबिया दुर्रानी
संतान पुत्री- जेबुन्निसा, पुत्र- सुल्तान मुहम्मद, शाहजादा मुअज्ज़म, शाहजादा आज़म, शाहजादा अकबर, कामबख्श
उपाधि अब्दुल मुज़फ़्फ़र, मुइनुद्दीन मुहम्मद, औरंगज़ेब बहादुर, आलमगीर पादशाह गाज़ी
शासन 31 जुलाई, सन 1658 ई. से 3 मार्च, सन 1707 ई. तक
राज्याभिषेक 15 जून, सन 1659 ई. में लाल क़िला, दिल्ली
निर्माण लाहौर की बादशाही मस्जिद 1674 ई. में, बीबी का मक़बरा, औरंगाबाद[1], मोती मस्जिद [2]
मक़बरा खुलदाबाद
भाषा ज्ञान अरबी, फ़ारसी, तुर्की

मुहीउद्दीन मुहम्मद औरंगज़ेब का जन्म 4 नवम्बर, 1618 ई. में उज्जैन के ‘दोहद’ नामक स्थान पर मुमताज के गर्भ से हुआ था। औरंगज़ेब के बचपन का अधिकांश समय नूरजहाँ के पास बीता था। 1643 ई. में औरंगज़ेब को 10,000 जात एवं 4000 सवार का मनसब प्राप्त हुआ। ‘ओरछा’ के जूझर सिंह के विरुद्ध औरंगज़ेब को प्रथम युद्ध का अनुभव प्राप्त हुआ था। 18 मई, 1637 ई. को फ़ारस के राजघराने की 'दिलरास बानो बेगम' के साथ औरंगज़ेब का निकाह हुआ। 1636 ई. से 1644 ई. एवं 1652 ई. से 1657 ई. तक औरंगज़ेब गुजरात (1645 ई.), मुल्तान (1640 ई.) एवं सिंध का भी गर्वनर रहा। आगरा पर क़ब्ज़ा कर जल्दबाजी में औरंगज़ेब ने अपना राज्याभिषक "अबुल मुजफ्फर मुहीउद्दीन मुजफ्फर औरंगज़ेब बहादुर आलमगीर" की उपाधि से 31 जुलाई, 1658 ई. को दिल्ली में करवाया। ‘खजुवा’ एवं ‘देवराई’ के युद्ध में सफल होने के बाद 15 मई, 1659 ई. को औरंगज़ेब ने दिल्ली में प्रवेश किया, जहाँ शाहजहाँ के शानदार महल में जून, 1659 ई. को औरंगज़ेब का दूसरी बार राज्याभिषेक हुआ। औरंगज़ेब के सिंहासनारूढ़ होने पर फ़ारस के शाह ने मैत्री स्वरूप बुदाग बेग के नेतृत्व में एक दूत मण्डल भेजा था।

साम्राज्य विस्तार

अपने साम्राज्य विस्तार के अन्तर्गत औरंगज़ेब ने सर्वप्रथम असम को अपने अधिकार में करना चाहा। उसने मीर जुमला को बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया और उसे असम को जीतने की ज़िम्मेदारी सौंपी। 1 नवम्बर, 1661 ई. को मीर जुमला ने कूचबिहार की राजधानी को अपने अधिकार में कर लिया। असम पर उस समय अहोम जाति के लोग शासन कर रहे थे। मीर जुमला ने अहोमों को परास्त कर 1662 ई. में ‘गढ़गाँव’ पर क़ब्ज़ा कर लिया। कालान्तर में असम के आन्तरिक संघर्ष का फायदा उठा कर मुग़लों ने 1670 ई. में ‘कामरूप’ के अतिरिक्त शेष असम पर पुनः अधिकार कर लिया।

औरंगज़ेब की दक्षिण नीति

औरंगज़ेब की दक्षिण नीति के विषय में इतिहासकारों का मानना है कि-

  1. अपनी साम्राज्यवादी प्रवृति के कारण दक्षिण के राज्यों को औरंगज़ेब जीतना चाहता था। शाहजहाँ की भाँति दक्कन के प्रति औरंगज़ेब की नीति भी अंशतः राजनीतिक हित से और अंशतः धार्मिक विचारों से प्रभावित थी।
  2. दक्षिण में मराठा शक्ति का शिवाजी के नेतृत्व में वहाँ के शिया सम्प्रदाय के सुल्तानों के सहयोग से दिन-प्रतिदिन उत्थान हो रहा था, इस कारण भी औरंगज़ेब ने दक्षिण राज्यों को कुचलना चाहा। इस मत का समर्थन आधुनिक इतिहासकार करते हैं।

औरंगज़ेब के दक्षिण में सैनिक अभियान के पीछे उपरोक्त कारण ही विद्यमान थे।

बीजापुर (1657-1687 ई.)

सिंहासन पर बैठने के उपरान्त औरंगज़ेब ने बीजापुर के शासक आदिलशाह द्वितीय को 1657 ई. की संधि का पालन न करने के कारण दण्ड देने के लिए जयपुर के राजा जयसिंह को 1665 ई. में दक्षिण भेजा। जयसिंह ने बीजापुर के पूर्व शिवाजी के ख़िलाफ़ महत्वपूर्ण लड़ाई में सफलता प्राप्त कर 1665 ई. में ‘पुरन्दर की सन्धि’ की। पुरन्दर के बाद जयसिंह ने शिवाजी के सहयोग से बीजापुर पर नवम्बर, 1665 ई. में आक्रमण किया। प्रारम्भिक सफलता से उत्साहित होकर जयसिंह ने कई ग़लत निर्णय लिये, जिस कारण वह बीजापुर पर अधिकार करने में असफल रहा। औरंगज़ेब ने नाराज़ होकर जयसिंह को 1666 ई. में वापस आने का आदेश दिया। रास्ते में ‘बुरहानपुर’ की समीप 11 जुलाई, 1666 ई. को जयसिंह की मृत्यु हो गई।

दिसम्बर, 1672 ई. में आदिलशाह की मृत्यु के बाद उसका अल्पव्यस्क पुत्र सिकन्दर आदिलशाह बीजापुर का सम्राट बना। उसके समय में बीजापुर में दो गुट-एक खवास ख़ाँ के नेतृत्व में एवं दूसरा बहलोल ख़ाँ के नेतृत्व में सक्रिय था। दोनों गुटों के आन्तरिक मतभेदों का फायदा उठाकर मुग़ल सूबेदार बहादुर ख़ाँ ने 1676 ई. में बीजापुर पर आक्रमण किया, परन्तु अभियान असफल रहा। 1679 ई. में दिलेर ख़ाँ को दक्कन का सूबेदार बना कर बीजापुर को जीतने का अधिकार सौंपा गया, उसके सहयोग हेतु शाहआलम भी दक्षिण आया, परन्तु इन दोनों को भी असफलता का सामना करना पड़ा। अप्रैल, 1685 ई. में शाहज़ादा आजम के नेतृत्व में मुग़ल सेनाओं ने बीजापुर पर आक्रमण किया। कई महीनों तक दुर्ग को घेरे रखने पर भी कोई सफलता नहीं मिलने पर 13 जुलाई, 1685 ई. को स्वयं सम्राट औरंगज़ेब ने आक्रमण की कमान अपने हाथों में ले ली। परिणामस्वरूप 22 सितम्बर, 1685 ईं को बीजापुर के शासक सिकन्दर आदिलशाह ने आत्मसमर्पण कर दिया। औरंगज़ेब ने सिकन्दर शाह का स्वागत किया और उसे ख़ान का पद दिया तथा एक लाख रुपये वार्षिक पेंशन भी दी और उसे दौलताबाद के दुर्ग में क़ैद करवा दिया, जहाँ 23 अप्रैल, 1700 ई. को इसकी मृत्यु हो गई। अन्ततः बीजापुर मुग़ल अधिकार में आ गया।

गोलकुण्डा

1656 ई. में गोलकुण्डा के सुल्तान एवं मुग़ल सम्राट के बीच हुई सन्धि की अवहेलना करने, मुग़लों के साथ संघर्ष में बीजापुर एवं मराठों को सहयोग करने तथा हीरे-जवाहरात, सोने-चाँदी के खानों की भरमार के कारण ही औरंगज़ेब ने गोलकुण्डा पर अधिकार करने का निर्णय किया। गोलकुण्डा पर औरंगज़ेब के सैनिक अभियान के समय वहाँ का अयोग्य एवं विलासप्रिय शासक अबुल हसन था। शासन की पूरी ज़िम्मेदारी ‘मदन्ना’ और ‘अकन्ना’ नामक ब्राह्मणों के हाथों में थी। औरंगज़ेब ने जुलाई, 1685 ई. में ‘मुअज्जम’ को ख़ानेजहाँ के साथ गोलकुण्डा पर अधिकार के लिए भेजा। सुल्तान अबुल हसन ने डर कर मुग़लों की सभी शर्तों को मान कर संधि कर ली, परन्तु कालान्तर में सुल्तान ने संधि की अवहेलना करना प्रारम्भ कर दिया, जिस कारण से स्वयं सम्राट औरंगज़ेब ने 7 फ़रवरी, 1687 ई. को आक्रमण की बागडोर संभालते हुए लगभग आठ महीने के अथक प्रयास के बाद भी सफलता नहीं मिली तो, औरंगज़ेब ने अब्दुलागानी नामक एक अफ़ग़ान सरदार को लालच देकर फाटक खुलवा लिया और 1697 ई. को दुर्ग पर अधिकार किया। सुल्तान को 50,000 रुपये की वार्षिक पेंशन देकर ‘दौलताबाद’ के क़िले में क़ैद कर दिया गया। साथ ही गोलकुण्डा का पूर्ण विलय मुग़ल साम्राज्य में हो गया। इस प्रकार कहा जाता है कि, 'जिस प्रकार अकबर ने असीरगढ़ का क़िला सोने की कुंजियों से खोला, उसी प्रकार औरंगज़ेब ने गोलकुण्डा का क़िला सोने की कुंजियों से खोला।

मराठों से संघर्ष

  1. मुग़लों से शिवाजी का पहला संघर्ष 1656 ई. में हुआ, जब शिवाजी ने अहमदनगर एवं जुन्नार के क़िले पर आक्रमण किया।
  2. 1659 ई. मे शिवाजी ने बीजापुरी सरदार अफजल ख़ाँ को हराया। 1663 ई. में मुग़ल सूबेदार शाइस्ता ख़ाँ को पराजित किया।

शिवाजी की दक्षिण में बढ़ती शक्ति को कुचलने के लिए औरंगज़ेब ने जयसिंह को दक्षिण भेजा। जयसिंह एवं शिवाजी के मध्य 22 जून, 1665 ई. को प्रसिद्ध 'पुरन्दर की संधि' हुई। संधि की शर्तों के अनुसार शिवाजी ने 4 लाख हूण वाले 23 क़िलें मुग़लों को सौंप दिए तथा अपने पुत्र शम्भुजी को मुग़ल सेवा में भेजकर जयसिंह के कहने पर स्वयं 22 मार्च, 1666 ई. को आगरा के क़िलें में ‘दीवाने आम’ में औरंगज़ेब के समक्ष प्रस्तुत हुए। यहाँ से शिवाजी को क़ैद कर ‘जयपुर भवन’ में रख दिया गया, जहाँ से शिवाजी फरार हो गये। इसके बाद शिवाजी तीन वर्षों तक मुग़लों के साथ शान्ति पूर्वक रहे। औरंगज़ेब ने उन्हें राजा की उपाधि तथा बरार में एक जागीर दी तथा उनके पुत्र शम्भुजी को 'पंचहजारी सरदार' के पद पर नियुक्ति किया। शिवाजी ने ‘रायगढ़’ में 16 जून, 1674 ई. को अपना राज्याभिषेक करवाकर ‘छत्रपति’ की उपाधि धारण की। 14 अप्रैल, 1680 ई. को उनकी मृत्यु के बाद उनका पुत्र शम्भुजी मराठा शासक बना। औरंगज़ेब ने एक संघर्ष में 1 मार्च, 1689 ई. को उसकी हत्या कर रायगढ़ पर अधिकार कर लिया। औरंगज़ेब को मराठों के संघर्ष में काफ़ी धन-जन की हानि सहनी पड़ी। नेपोलियन प्रथम कहा करता था- "स्पेन के फोड़े ने मेरा नाश किया, वैसे ही दक्षिण के फोड़े ने औरंगज़ेब का नाश किया। औरंगज़ेब के पतन के साथ-साथ इसने मुग़ल साम्राज्य के पतन का मार्ग भी प्रशस्त कर दिया"।

औरंगज़ेब के विरुद्ध हुए महत्वपूर्ण विद्रोह

औरंगज़ेब की नीतियों के विरुद्ध हुए विद्रोहों के पीछे महत्वपूर्ण कारण उसका राजत्व सिद्धान्त तथा उसकी धार्मिक असहिष्णुता थी। किसानों के विद्रोह के पीछे भूमि से जुड़े हुए विवाद, सिक्खों के विद्रोह के पीछे धार्मिक कारण, राजपूतों के विद्रोह के पीछे उत्तराधिकार की समस्या एवं अफ़ग़ानों के विद्रोह के पीछे एक अलग अफ़ग़ान राज्य के गठन की भावना कार्य कर रही थी।

जाट विद्रोह

धार्मिक असहिष्णुता एवं किसान विरोधी नीतियों के कारण ही औरंगज़ेब के समय का पहला विद्रोह मथुरा में जाट नेता ‘गोकुला’ के नेतृत्व में 1669 ई. में प्रारम्भ हुआ। मुग़ल सेनापति अब्दुल नवी विद्रोह को कुचलने के प्रयास में मारा गया। मुग़ल फौजदार हसन अली ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़ल सेना ने गोकुल को पकड़ कर उसके शरीर को कई भागों में बाँट डाला। 1686 ई. में जाट नेता ‘राजाराम’ एवं ‘रामचेरा’ ने जाट विद्रोह का नेतृत्व किया। राजाराम ने मुग़ल सेनानायक मुगीर ख़ाँ की हत्या कर सिकन्दरा में स्थित अकबर के मक़बरे में भी लूट-पाट की। इतिहासकार मनूची लिखता है कि, "उसने अकबर की हड्डियों को खोद कर जला भी दिया"। औरंगज़ेब के पुत्र बीदर बख्श एवं आमेर नरेश विशन सिंह को एक विशाल मुग़ल सेना के साथ भेजा गया। इन दोनों को जाटों के ख़िलाफ़ 1689 ई. में सफलता मिली और राजाराम संघर्ष में मारा गया। राजाराम के बाद उसके भतीजे चूरामन ने जाट विद्रोह का नेतृत्व संभाला। चूरामन ने स्वतंत्र भरतपुर राज्य की नींव डाली। यह औरंगज़ेब के अन्तिम समय तक जाट विद्रोह का नेतृत्व करता रहा। औरंगज़ेब की नीति के विरुद्ध दूसरे सशस्त्र विरोध का नेतृत्व बुन्देला राजा छत्रसाल ने किया। शिवाजी के दृष्टांत से प्रोत्साहित होकर छत्रसाल ने ‘साहस और स्वतंत्रता का जीवन व्यतीत करने का स्वप्न देखा।’ उसने मुग़लों पर कई विजय प्राप्त कीं तथा पूर्वी मालवा में अपने लिए एक स्वतंत्र राज्य स्थापित करने में सफल रहा।

सिक्ख विद्रोह

16वीं शताब्दी में ‘सिक्ख सम्प्रदाय’ की स्थापना ‘गुरु नानक’ जी ने की। सिक्खों के चौथे गुरु रामदास के समय गुरुत्व का पद पैतृक हो गया। अमृतसर के प्रसिद्ध स्वर्ण मन्दिर का निर्माण उन्हीं के समय में हुआ, जिसके लिए सम्राट अकबर ने भूमि उपलब्ध करवाई। 5वें गुरु अर्जुन देव के समय में प्रसिद्ध सिक्ख ग्रंथ ‘गुरुग्रंथ साहिब’ का संकलन किया गया। गुरु अर्जुन ने सिक्ख सम्प्रदाय को दृढ़ता प्रदान करने का प्रयास किया। विद्रोही शाहज़ादे खुसरो को गुरु ने अपना आशीर्वाद दिया था, जिसकी वजह से 1606 ई. में जहाँगीर ने गुरु को फाँसी दे दी। गुरु अर्जुन के पुत्र गुरु हरगोविंद सिंह ने शाहजहाँ के विरुद्ध विद्रोह कर उसकी सेना को 1628 ई. में परास्त किया। आठवें गुरु हरकिशन के पुत्र गुरु तेग बहादुर सिंह ने औरंगज़ेब की नीतियों का विरोध किया तथा इस्लाम धर्म स्वीकार करने का विरोध किया, जिसकी वजह से उन्हें दिल्ली में क़ैद कर दिसम्बर, 1765 ई. में मार दिया गया। तेग बहादुर ने अपने धर्म को जीवन से अधिक पसन्द किया। उनके बारे में प्रसिद्ध उक्ति है कि, “उन्होंने अपना सिर दिया सार न दिया।” सिक्ख गुरुओं में सर्वाधिक महत्वपूर्ण गुरु गोविन्द सिंह थे। गुरु गोविन्द सिंह एवं कुछ पहाड़ी राजाओं के दमन के लिए औरंगज़ेब ने पहले अलप और फिर शाहज़ादे मुअज्जम को 1685 ई. में भेजा। मुअज्जम पहाड़ी राजाओं को दबाने में सफल हुआ, परन्तु गुरु गोविन्द के साथ अपने संघर्ष में असफल होकर उसने शान्ति समझौता कर किया। गुरु गोविन्द ने ‘पाहुल प्रणाली’ को आरम्भ किया। इस प्रणाली में दीक्षित होने वाले व्यक्ति को ‘खालसा’ कहा गया। ‘खालसा पंथ’ की स्थापना गुरु गोविन्द सिंह ने 1699 ई. में की। उनके धर्म में दीक्षित होने वाले व्यक्ति को 'पंच ककार'- केश, कंघा, कृपाण, कच्छ और कड़ा ग्रहण करना पड़ता था। उनके द्वारा नाम के अंत में ‘सिंह’ शब्द का प्रयोग प्रारम्भ हुआ। गुरु गोविन्द ने ‘दसवें बादशाह का ग्रंथ’ नामक एक पूरक ग्रंथ का संलकन किया। एक धर्मोन्मत्त अफ़ग़ान ने 1707 ई. के अन्त में गोदावरी नदी के निकट नांदेर नामक स्थान पर गुरु गोविन्द सिंह को छुरा मार दिया, जिससे उनकी मृत्यु हो गई।

1701 ई. में आरंगज़ेब ने कुछ पहाड़ी राजाओं के सहयोग से गुरु गोविन्द सिंह के दुर्ग आनन्दपुर पर आक्रमण कर दिया। आक्रमण के समय मुग़ल सेना का नेतृत्व सरहिन्द का सूबेदार वज़ीर ख़ाँ ने किया। कई महीने के घेराव के बाद सिक्ख गुरु को आनन्दपुर से भागकर ‘चमकौर’ में शरण लेनी पड़ी। मुग़ल सेना के चमकौर पहुँचने पर गुरु अपना रूप बदल कर 1704 ई. में भाग कर ‘खिदराना’ (फिरोजपुर) पहुँचे। इस अन्तिम युद्ध में गुरु गोविन्द सिंह ने मुग़ल सेना को परास्त कर दिया। 1707 ई. में औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद मुग़ल शक्ति क्रमशः क्षीण होती गयी। सिक्ख सरदारों ने इस अवसर का फायदा उठा कर छोटे-छोटे स्वतन्त्र राज्य स्थापित कर लिए।

सतनामी विद्रोह

1672 ई. में सतनामियों का विद्रोह हुआ। ये मूल रूप से हिन्दू भक्तों के अनुपद्रवी सम्प्रदाय थे। इनका केन्द्र नारनोल (पटियाला) एवं मेवाल (अलवर) क्षेत्र में था। ये लोग व्यापार एवं खेती करते थे। धर्म के मामले में उन्होंने सतनाम की उपाधि से अपने को सम्मानित किया है। सतनामियों के विद्रोह का तात्कालिक कारण था- एक मुग़ल पैदल सैनिक द्वारा उनके एक सदस्य की हत्या करना। अप्रशिक्षित सतनामी किसान शीघ्र ही विशाल शाही फौज द्वारा परास्त हो गये।

राजपूत विद्रोह

औरंगज़ेब ने राजपूतों के प्रति धर्म के क्षेत्र में अनुदारयता की नीति अपनायी। क़ुरान का कट्टर समर्थक होने के नाते वह अन्य धर्मों मुख्यतः हिन्दू धर्म के प्रति बहुत असहिष्णु था। उसने 12 अप्रैल, 1679 ई. को हिन्दुओं पर दोबारा ‘जजिया’ कर लगा दिया। सर्वप्रथम जजिया कर मारवाड़ पर लागू किया गया। धार्मिक क्रिया-कलापों, त्यौहारों एवं उत्सवों को प्रतिबन्धित करते हुए औरंगज़ेब ने हिन्दुओं से ‘तीर्थयात्रा कर’ पुनः वसूलना शुरू कर दिया। बड़ी संख्या में हिन्दू मंदिरों को तोड़वाने का आदेश देकर नवीन एवं पुराने मंदिरों के निर्माण पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया गया। औरंगज़ेब की इन नीतियों का राजपूतों के ऊपर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था।

आधुनिक इतिहासकारों का मानना है कि, औरंगज़ेब मुग़ल वंश के अन्य शासकों की तरह राजपूतों के प्रति मैत्री भाव रखता था। औरंगज़ेब ने जसवन्त सिंह को दारा का सहयोग करने के बाद भी पुराना मनसब प्रदान कर गुजरात का सूबेदार बनाया। औरंगज़ेब के समय में हिन्दू मनसबदारों की संख्या लगभग 33 प्रतिशत थी, जबकि शाहजहाँ के समय में यह प्रतिशत मात्र 24.7 प्रतिशत था। फिर भी यह कहा जा सकता है कि, राजपूतों के प्रति औरंगज़ेब की नीति सदैव सहिष्णुता की नहीं थी। राजपूतों कें प्रति उसकी कठोर नीति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण था, राजपूत सरदारों द्वारा उत्तराधिकार की लड़ाई लड़ा जाना। मिर्ज़ा राजा जयसिंह अपनी मृत्यु तक (1666 ई.) औरंगज़ेब का मित्र बना रहा, किन्तु जयसिंह का पुत्र रामसिंह मराठों का कट्टर समर्थक था।

प्रतिबन्ध

औरंगजेब के शासन काल में प्रजा पर प्रतिबन्ध:-

  1. सिक्कों पर कलमा लिखे जाने पर रोक्॥
  2. औरतों के मज़ार जाने पर रोक।
  3. संगीत और ज्योतिष विद्या के अभ्यास पर रोक।
  4. नौरोज़ के उत्सव पर रोक।
  5. सतीप्रथा, दास बिक्री, जुआ, वेश्यावृत्ति एवं नशा करने पर रोक।

विद्रोहियों का दमन

औरंगजेब ने उन्हें दबाने के लिए कई बार सेना भेजी; किंतु उसे सफलता नहीं मिली । वह नवंबर, सन् 1669 में ख़ुद सेना सहित दिल्ली से मथुरा की ओर बढ़ा । उसने अपने एक सेनापति हसनअली को मथुरा का फ़ौजदार नियुक्त कर आदेश दिया कि वह विद्रोहियों को कुचल दे और ब्रज के हिन्दुओं को बर्बाद कर दे । हसनअली ने शाही सेना के साथ गोकुला को उसने साथियों सहित घेर लिया और उन पर आक्रमण कर दिया । गोकुल की सेना शाही सेना की तुलना में बहुत कम थी; फिर भी उसने कड़ा मुक़ाबला किया । अंत में गोकुला की हार हुई । उस युद्ध में अनेक विद्रोही मारे गये, और बहुत से पकड़ लिये गये । गोकुला को बड़ी निर्दयतापूर्वक मारा गया ; और पकड़े हुए लोगों को मुसलमान बनाया गया । इस प्रकार उस विद्रोह का अंत हुआ । इस घटना के बाद औरंगजेब ने ब्रज में ऐसा दमन−चक्र चलाया कि यहाँ सुल्तानी काल से भी बुरी स्थिति हो गई ।

ब्रज के स्थानों का नाम परिवर्तन

औरंगज़ेब ने ब्रज संस्कृति को आघात पहुँचाने के लिये ब्रज के नामों को परिवर्तित किया । मथुरा, वृन्दावन, पारसौली (गोवर्धन) को क्रमश: इस्लामाबाद, मेमिनाबाद और मुहम्मदपुर कहा गया था । वे सभी नाम अभी तक सरकारी काग़ज़ों में रहे आये हैं, जनता में कभी प्रचलित नहीं हुए ।

जज़िया कर

ब्रज में आने वाले तीर्थ−यात्रियों पर भारी कर लगाया गया, मंदिर नष्ट किये लगे, जज़िया कर फिर से लगाया गया और हिन्दुओं को मुसलमान बनाया । उस समय के कवियों की रचनाओं में औरंगज़ेब के अत्याचारों का उल्लेख इस प्रकार है-

  • जब तें साह तख्त पर बैठे । तब तें हिन्दुन तें उर ऐंठे ॥

महँगे कर तीरथन लगाये । देव-देवालै निदरि ढहाए ॥
घर-घर बाँधि जेजिया लीन्हें । अपने मन भाये सब कीन्हे ॥
( लाल कृत 'छात्र प्रकाश' )

  • देवल गिरावते फिरावते निसान अली, ऐसे डूबे राव-राने सबी गये लब की ॥
    (भूषण कवि ) तोड़े गये मंदिरों की जगह पर मस्जिद और सराय बनाई गईं तथा मकतब और कसाईखाने का कायम किये गये । हिन्दुओं के दिल को दुखाने के लिए गो−वध करने की खुली टूट दे दी गई।

धर्माचार्यों का निष्क्रमण

जब ब्रज में इतना अत्याचार होने लगा, तब यहाँ के धर्मप्राण भक्तजन अपनी देव−मूर्तियाँ और धार्मिक पोथियों को लेकर भागने का विचार करने लगे । किंतु कहाँ जायें, यह उनके लिए बड़ी समस्या थी । वे तीर्थ स्थानों में रह कर अपना धर्म−कर्म करना चाहते थे ; किंतु यहाँ रहना उनके लिए असंभव हो गया था । महात्मा 'सूर किशोर' ने उस समय के भक्तों की मनोस्थिति को इस प्रकार व्यक्त किया है-

  • जहँ तीरथ तहँ जमन-बास, पुनि जीविका न लहियै । असन-बसन जहँ मिलै, तहाँ सतसंगन पैयै ॥

राह चोर-बटमार कुटिल, निरधन दुख देहीं । सहबासिन सन बैर, दूर कहुँ बसै सनेही ॥
कहैं 'सूर किसोर' मिलैं नहीं, जथा जोग चाही जहाँ । कलिकाल ग्रसेउ अति प्रबल हिय, हाय राम ! रहियै कहाँ ?
(मिथिला माहात्म्य, छ्न्द- 1 )


उस समय कुछ प्रभावशाली हिन्दू राज्यों की स्थिति औरंगजेब के मज़हबी तानाशाही से मुक्त थी ; अत: ब्रज के अनेक धर्माचार्य एवं भक्तजन अपने परिकर के साथ वहाँ जा कर बसने लगे । उस अभूतपूर्व धार्मिक निष्क्रमण के फलस्वरूप ब्रज में गोवर्धन और गोकुल जैसे समृद्धिशाली धर्मस्थान उजड़ गये, और वृन्दावन शोभाहीन हो गया था । औरंगजेब के शासन में ब्रज की जैसी बर्बादी हुई, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता है ।

जज़िया कर का पुन:प्रचलन

जो लोग मुसलमान नहीं होना चाहते थे, उनसे मुस्लिम शासन में जज़िया नाम से कर वसूल किया जाता था । यह कर अकबर के शासन में हटा दिया गया था । तब से लेकर औरंगजेब के शासन के आरंभिक काल तक वह बंद रहा । जब मिर्जा राजा जयसिंह के बाद महाराज यशवंत सिंह का भी देहांत हो गया, तब औरंगजेब ने निरंकुश होकर सन 1679 में फिर से इस कर को लगाया । इस अपमानपूर्ण कर का हिन्दुओं द्वारा विरोध किया गया । मेवाड़ के वृद्ध राणा राजसिंह ने इसके विरोध में औरंगजेब को उपालंभ देते हुए एक पत्र लिखा था, जिसका उल्लेख टॉड कृत राजस्थान नामक ग्रंथ में हुआ है ।

मथुरा की दुर्दशा

औरंगजेब के अत्याचारों से मथुरा की जनता अपने पैतृक आवासों को छोड़ कर निकटवर्ती हिन्दू राजाओं के राज्यों में जाकर बसने लगी थी । जो रह गये थे, वे बड़ी कठिन परिस्थिति में अपने जीवन बिता रहे थे । उस समय में मथुरा का कोई महत्त्व नहीं था। उसकी धार्मिक के साथ ही साथ उसकी भौतिक समृद्धि भी समाप्त हो गई थी । प्रशासन की दृष्टि से उस समय में मथुरा से अधिक महावन, सहार और सादाबाद का महत्त्व था, वहाँ मुसलमानों की संख्या भी अपेक्षाकृत अधिक थी ।

हिन्दू विरोधी

  1. काशी का विश्वनाथ मन्दिर, मथुरा का केशवराय मन्दिर, पटना के सोमनाथ मन्दिर को ध्वस्त कराया गया।
  2. सरकारी कार्यालयों से हिन्दू कर्मचारियों को निष्कासित कराया गया।
  3. 1679 ई. में हिन्दुओं पर जज़िया (जिज्जह) कर लागू किया।

प्रारम्भिक जीवन

  1. औरंगज़ेब 1636 ई. में पहली बार दक्षिण का सूबेदार बना।
  2. औरंगज़ेब 1644 ई. में गुजरात का, 1648 ई. में मुल्तान और सिन्ध का तथा 1652 ई. में दक्षिण का सूबेदार बना।

स्थापत्य निर्माण

  1. औरंगज़ेब ने 1674 ई. में लाहौर की बादशाही मस्जिद बनवाई थी।
  2. औरंगज़ेब ने 1678 ई. में बीबी का मक़बरा अपनी पत्नी रबिया दुर्रानी की स्मृति में बनवाया था।
  3. औरंगज़ेब ने दिल्ली के लाल क़िले में मोती मस्जिद बनवाई थी।

समकालीन संगीतज्ञ

  1. सुखी सेन
  2. कलावन्त
  3. किरपा
  4. हयात सरसनैन
  5. रसबैन ख़ाँ

तत्कालीन साहित्य

  1. रफ़ी ख़ाँ का मुन्तख़ब उल तवारीख़
  2. मिर्ज़ा मुहम्मद क़ाज़िम का 'आलमगीर नामा'
  3. मुहम्मद साक़ी का 'मआसिरे आलमगीरी'
  4. सुजानराय का 'ख़ुलासत-उल-तवारीख़'
  5. ईश्वरदास का 'फ़ुतुहाते आलमगीरी'
  6. भामसेन बुरहानपुरी का 'नुक्शा ए-दिलकुशाँ'

अजीत सिंह

अजीत सिंह मारवाड़ के राजा जसवन्त सिंह का पुत्र था। उसका जन्म 1679 ई. में लाहौर में पिता की मृत्यु के बाद हुआ। अजीत सिंह को दिल्ली लाया गया, जहाँ पर औरंगज़ेब उसे मुसलमान बना लेना चाहता था।

राज्य का वर्गीकरण

औरंगज़ेब ने राज्य का वर्गीकरण करा था। 21 सूबों में विभक्त था, (14 सूबे उत्तर भारत, 6 दक्षिण भारत और 1 अफ़ग़ानिस्तान)

प्रमुख विद्रोह

  1. अफ़ग़ान विद्रोह (उत्तर पश्चिम सीमांत क्षेत्र, 1667,1672)
  2. जाट विद्रोह (मथुरा के जाटो के द्वारा, 1669, 1685-88)
  3. सतनामी विद्रोह (मथुरा के पास नारनौल में, 1672 ई. में)
  4. बुन्देला विद्रोह, 1661
  5. शाहजादा अकबर का विद्रोह, 1681 ई. में
  6. अंग्रेजों का विद्रोह, 1686 ई. में
  7. राजपूत विद्रोह, 1679
  8. सिक्ख विद्रोह (1675 ई. से औरंगज़ेब की मृत्यु तक)

सैन्य प्रबन्ध

औरंगज़ेब की सैन्य प्रबन्ध में 60,000 घोड़े, 1,00000 पैदल सैनिक, 50,000 ऊँट, 3,000 हाथी थे।

उल्लेखनीय कथन

  1. संगीत की मौत हो गई, इसकी क़ब्र इतनी गहरी दफ़नाना ताकि आवाज आसनी से ने निकल सके।
  2. से मामूली सफ़ेद कपड़े में दफ़नाया जाए और उसके लिए कोई मक़बरा न बनाया जाए।

अकमल ख़ाँ

अकमल ख़ाँ एक अफ़रीदी क़बाइली सरदार था जिसने 1672 ई. में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब के विरुद्ध विद्रोह का नेतृत्व किया और अपने को सुल्तान घोषित कर दिया।

औरंगज़ेब की मृत्यु

औरंगज़ेब के अन्तिम समय में दक्षिण में मराठों का ज़ोर बहुत बढ़ गया था । उन्हें दबाने में शाही सेना को सफलता नहीं मिल रही थी । इसलिए सन 1683 में औरंगज़ेब स्वयं सेना लेकर दक्षिण गया । वह राजधानी से दूर रहता हुआ अपने शासन−काल के लगभग अंतिम 25 वर्ष तक उसी अभियान में रहा । 50 वर्ष तक शासन करने के बाद उसकी मृत्यु दक्षिण के अहमदनगर में 3 मार्च सन 1707 ई. में हो गई थी । उसकी नीति ने इतने विरोधी पैदा कर दिये, जिस कारण मुग़ल साम्राज्य का अंत ही हो गया । वतर्मान काल के विद्वानों ने औरंगज़ेब की नीति की आलोचना करते हुए उसके दुष्परिणामों का उल्लेख किया है ।

  • प्रो. कादरी ने लिखा है- 'बाबर ने मुग़ल राज्य के भवन के लिए मैदान साफ किया, हुमायूँ ने उसकी नीव डाली, अकबर ने उस पर सुंदर भवन खड़ा किया, जहाँगीर ने उसे सजाया−सँवारा, शाहजहाँ ने उसमें निवास कर आंनद किया; किंतु औरंगज़ेब ने उसे विध्वंस कर दिया था।'
  • डा. रामधारीसिंह का कथन है− 'बाबर से लेकर शाहजहाँ तक मुग़लों ने भारत की जिस सामाजिक संस्कृति को पाल−पोस कर खड़ा किया था, उसे औरंगजेब ने एक ही झटके से तोड़ डाला और साथ ही साम्राज्य की कमर भी तोड़ दी । वह हिन्दुओं का ही नहीं सूफियों का भी दुश्मन था और सरमद जैसे संत को उसने सूली पर चढ़ा दिया।'

औरंगजेब के पुत्रों में बड़े का नाम मुअज़्ज़म और छोटे का नाम आज़ाम था। मुअज़्ज़म औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद मुग़ल सम्राट हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (1678 ई. पत्नी रबिया दुर्रानी की स्मृति में)
  2. (दिल्ली के लाल क़िले में)

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